“शब्द गूंगे हो गए हैं
अर्थ बहरे हो गए हैं,
वक़्त की हाराकिरी में
घाव गहरे हो गए हैं।”
– रामाश्रय सविता
सच में आज वक़्त की हाराकिरी (आत्महत्या करने को जापानी में हाराकिरी कहते हैं ) , में ऐसे गहरे घाव मिले हैं, जिनसे शब्द और अर्थ ही गूंगे और बहरे हो गए हैं।इतने दिनों से न तो कुछ लिखने का मन होता है और न ही बोलने का।सारी रचनात्मकता, सारी सृजनात्मकता मानो कहीं चली गयी हो लेकिन कुछ लोग जिन्हें हम सही अर्थों में कोरोना योद्धा (Corona Warrior) कह सकते हैं, वे इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी रचनात्मकता, अपनी सृजनात्मकता को बरकरार रखे हुए हैं और नम आंखों से ही सही, अपने किसी अजीज़ को काल के क्रूर हाथों में जाता देखकर भी अपने और अपने उस बेहद प्रिय के सपनों को पूरा करने का हौसला, दिल मे रखते हैं और इस जज़्बे के साथ कि जन्म लिया है तो रुकना नही है बल्कि मानवता के लिए कुछ करना है।ऐसे लोगों को सलाम और उनसे ही सबक मिलता है कि हमें भी घबड़ाकर रुक नही जाना है।अपने कर्म करते जाना है बाकी जो भी ईश्वर की इच्छा।ईश्वर ने एहसास कराया है कि उससे ऊपर कोई नही है।
लेकिन कोरोना (Corona ) महामारी की इस त्रासदी के समय जो एक बात सबसे ज़्यादा मन को व्यथित करती है, वह है कि ऐसा क्यों हो रहा है ? ईश्वर कैसे हमारा इतना दुख देख रहे हैं, यह प्रश्न भी मन मे उठता है।लेकिन अगर हम अपने भीतर झांककर देखें तो हमें एहसास होना चाहिए कि हमसे भी बहुत सी गलतियां हुई हैं।इस बात का बहुत से लोग यह तर्क रखते हैं कि हमसे तो कोई खास गलती हुई नहीं तो हमें क्यों यह दुख मिला ? इसके पीछे कारण यह सोचना चाहिए कि यह पूरी मानवता के कर्मों का फल है जो सभी को उठाना पड़ रहा है।किसी एक या कुछ लोगों से न जोड़कर पूरी मानव जाति द्वारा की गईं गलतियां हैं जो पूरी मानव जाति ही भुगत रही है।
काम, क्रोध, मद, मोह आदि हमारे मन मे डेरा डाले रहते हैं।इनका अतिरेक होते ही भीतर का रामत्व मर जाता है तथा हमारे अंतर्मन में कुंडली मारे बैठा रावणत्व अट्टहास करने लगता है।अहंकार अपनी चरम सीमा पर पहुंचते ही मनुष्य रावण बन जाता है और यही सब पिछले काफी वर्षों से हो रहा था।जो कुछ भी हो रहा था क्या उसे सामान्य कहा जा सकता है ? नहीं, मानवता के ऊपर कलंक हैं वह बातें।फिर भी जो इन दुष्प्रवृत्तियों से घिरकर यह सब कुछ कर रहे थे, वे भी पापी, जो देख रहे थे वे भी पापी और जो सत्ता पर बैठकर भी कुछ नही कर पा रहे थे वे भी उतने ही पापी हैं।यह सारा चक्र चलता चला जा रहा था, तो कुदरत को कहर बरपाना वाजिब ही था।हमें कई बार सचेत किया कुदरत ने लेकिन हम अपने अहंकार, अपने मद में चूर बैठे थे।हमारे पास पैसा है, पद है तो हम अच्छे से अच्छा इलाज खरीद सकते हैं, अच्छे से अच्छा जीवन स्तर रख सकते हैं, अच्छे से अच्छे दोस्त और अपना सामाजिक स्तर बना सकते हैं, कहने का मतलब कि अपने पैसे रुतबे से सब कुछ खरीदा जा सकता है, इसी मद में हम चूर थे पर आज ईश्वर ने वही घमंड सारी मानव जाति का तोड़ दिया है।लाखों खर्चकर भी लोग अपनों की जान नहीं बचा पा रहे, जीवन स्तर तो यह हो गया है कि इंसान घर में कैद ही हो चुका है और दोस्त, रिश्तेदार भी अब बस फोन पर ही मिल रहे।
इन सब बातों को जब सोचो तो यही लगता है कि हमने उस परमसत्ता, जिसे ईश्वर, अल्लाह या किसी भी नाम से पुकारिये, उससे भी स्वयं को बड़ा समझ लिया था।हर बात में अपना ही योगदान समझते थे और सोचते थे कि इस चीज़ को तो हम हासिल कर ही लेंगे लेकिन उस परमसत्ता ने आज आभास करा दिया है कि उसके आगे कोई भी कुछ नही है।आज ज़रूरत है कि हम खुद को उसी में विलीन कर दें, ऐसी याचना, ऐसी प्रार्थना करें कि उस ईश्वर तक हमारी पुकार जाए।
यह सब बातें करते हुए मुझे कविवर अज्ञेय जी की कविता ‘असाध्य वीणा’ का स्मरण हो जाता है।यह एक कथा-प्रधान कविता है, जिसकी संक्षिप्त कथा यह है कि एक राजा थे।उनके पास एक वीणा थी, यह एक अनोखी वीणा थी, जिसे पाकर राजा धन्य हो गए थे, परंतु जब उन्होंने उस वीणा को बजाने के लिए देश-देशान्तरों के कलावंतों को निमंत्रण दिया और कोई भी उसे न बजा सका तब राजा अत्यंत निराश हुए और इसी कारण उस वीणा का नाम ‘असाध्य वीणा’ पड़ गया।एक दिन राजा ने पर्वत-गुहा-निवासी प्रियंवद केशकंबली को आमंत्रित किया।राजा ने उन्हें आसन दिया और कहा कि “तात! आप यहां पधारे हैं, इससे मैं आज कृत-कृत्य हो गया हूं।अब मुझे भरोसा है कि आज मेरे जीवन की साध पूरी हो जाएगी।”
केशकंबली ने वीणा अपनी गोद मे रख ली और कहा कि “राजन! मैं तो कोई कलावंत नहीं हूं।मैं तो जीवन के अकथित सत्य का साक्षी हूं, एक शिष्य हूँ सुर साधक हूं…..” बहुत समय तक चिंतन, मनन एवं ध्यान में लीन केशकंबली वीणा न बजाकर उसके साथ ,उसके हर हिस्से के साथ आत्मीय संबंध स्थापित करते रहे।यह सारा घटनाक्रम कैसे हुआ उसका इतना सजीव चित्र कवि अज्ञेय ने अपनी लेखनी से खींचा है कि पढ़ो तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं, हृदय के तार झनझना उठते हैं।सच पूछिए तो अज्ञेय जी की यह कविता तो इतनी गहरी और सारगर्भित है कि उसपर अलग से मैं एक कार्यक्रम बनाकर प्रस्तुत करना चाहती हूँ।मुझे विश्वास है कि आप भी ज़रूर इसे जानना और सुनना चाहेंगे।आज के परिप्रेक्ष्य में तो बस हम इतना ही कह और समझ सकते हैं कि जैसा केशकंबली ने वीणा के तार झंकृत होने और राजा सहित पूरे दरबार के प्रसन्न होने पर कहा कि, “इसमें मेरा तो कुछ भी श्रेय नहीं है।मैं तो उस शून्य में डूब गया था और वीणा के माध्यम से मैंने अपने को ‘सब कुछ’ के प्रति समर्पित कर दिया था।इसलिए यह जो स्वर आपको सुनाई पड़ा है, वह न तो मेरा ही है, न वीणा का ही है, अपितु, उसी ‘सब कुछ’ का है, जो महाशून्य एवं महामौन में लीन है और शब्दहीन होकर भी सब में गाता रहता है।
आज कोरोना (Corona) काल में एक बात तो हमें महसूस होनी चाहिए कि हम सबने स्वयं को ही सब कुछ समझ लिया था और उसी अहंकार में उस परमसत्ता से भी टकराव लेने की आदत होती जा रही थी, समर्पण भाव तो जैसे खो ही गया था।उस महाशून्य में हम क्या खुद को समर्पित करेंगे? हमने तो माता-पिता और बड़ों को भी अपने अहंकार के आगे कुछ भी न समझना शुरू कर दिया था।इस कविता का उद्देश्य उस असाध्य कार्य को भी साध्य बनाने से है, जो प्रायः दुष्कर, असम्भव, क्लिष्ट एवं कठिन कहकर छोड़ दिया जाता है।यह ‘असाध्य वीणा’ कविता आज के भ्रमित एवं निष्क्रिय व्यक्तियों को सत्यपथ पर लाकर कर्मण्यता का पाठ पढ़ा सकती है, निराश एवं हताश मानवों को आशा का संदेश दे सकती है।संसार में वही व्यक्ति सिद्ध एवं सफल होता है जो अपना सर्वस्व अपने संकल्प के लिए मिटा देता है, जो अपना आत्मीय संबंध संसार के कण-कण से स्थापित कर लेता है तथा जो विश्व व्यापी चेतना के साथ पूर्णतया घुल मिल जाता है।इस जगत में उसी व्यक्ति को सिद्धि मिलती है, जो साधक बनकर अपना सर्वस्व इस महाशून्य में विलीन कर देता है।इस संसार में वही सत्य का साक्षात्कार करता है जो केशकंबली की भांति उस सत्य के साथ एकरूप हो जाता है।इसके साथ ही यहां वही व्यक्ति असाध्य से असाध्य कार्य को भी सिद्ध कर सकता है जो विनम्र एवं विनीत होकर अपने अंतःकरण में उसी कार्य का अन्तःस्वर सुनता है।
आइए आज से प्रयास करें कि अपना सर्वस्व उस महाशून्य में विलीन कर दें और उस परमसत्ता, जो वास्तव में ही ‘सब कुछ’ है, उसको ही सब कुछ मानते हुए समर्पण भाव लाएं।कुछ तो गलत होता जा रहा है, जिससे प्रलयंकारी कष्ट देखने को मिल रहे हैं, इन्हें दूर करने के लिए खुद की सोच बदलें।
सराहनीय एवं रोचक लेख