ऐसा बचपन देखकर चुभन होती है।हम भी कुछ कर सकते हैं???…
पब्लिक स्कूल का बोर्ड जहाँ पूरी तरह से यूनिफार्म पहन कर अपने बस्ते टांग कर जाते हुए बच्चे दिखते हैं वही उसी बोर्ड के नीचे अधनंगा,पुराने टायर और टूटी बोतल से खेलता यह बच्चा?
सीमेंट,ईंट और गारा लेकर मजदूरी करते माँ-बाप और पास उसी मिट्टी-गारे को खेल की सामग्री बना कर मस्ती से बैठे यह बच्चे।इनका वर्तमान तो दिख ही रहा है लेकिन भविष्य क्या होगा?यह हमें आपको तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग को भी सोचना चाहिए लेकिन सरकार को भी ध्यान देने की ज़रूरत है क्योंकि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी कितनी पीढ़ियाँ निकल गईं लेकिन आज भी उन्हीं परम्पराओं को अपनाया जा रहा है।कागजों में तो साक्षरता का प्रतिशत लगातार बढ़ता जा रहा है लेकिन जनसँख्या जितनी तेजी से बढ़ रही है क्या साक्षरता का प्रतिशत भी उतनी तेजी से बढ़ पाया है?शायद स्कूल भी काफी हैं लेकिन माता पिता में जागरूकता का अभी भी काफी अभाव है वरना मजदूरी में पैसे कमा कर भी हर माता पिता अपने बच्चों को स्कूल पढ़ने तो भेज ही सकता है क्योंकि सरकारी स्कूल में बिना फीस के बहुत ही कम खर्च में पढ़ाई होती है लेकिन स्वयं भी अनपढ़ माता-पिता पढ़ाई का मूल्य न समझ कर अपने बच्चों को अपने साथ ही काम पर ले जाते हैं और बच्चे भी सारा दिन सड़क पर धूल मिट्टी में खेल कर अपना भविष्य दांव पर लगा रहे हैं।हर हाथ में आजकल मोबाइल फोन तो अवश्य दिख जाएगा चाहे यह मजदूरी करते माता-पिता हों या इनके बच्चे भी लेकिन न तो बच्चों के हाथ में कोई किताब कॉपी दिखती है न माता-पिता का इस ओर कोई ध्यान ही जाता दिखता है।21वीं सदी की यह भी एक विडंबना है……
चुभता बचपन।पूरे समाज की ज़िम्मेदारी है इन्हें आगे बढ़ाने की।बधाई।
bilkul sahi gaavon m yhi hota h.
Well said and absolutely right