आज पता नही क्यों दिल में एक टीस सी है और एक माँ का चेहरा मेरी आँखों के आगे घूम रहा है जिसने अभी कुछ महीनों पहले अपने ऐसे होनहार बेटे को खोया है जिसका जाना हम जैसे न जाने कितने लोगों के दिल को आज भी असीम वेदना से भर देता है।मैं बात कर रही हूँ अंकित चड्ढा की जो दास्तानगोई की दुनिया में एक जाना पहचाना नाम है और किसी परिचय का मोहताज नहीं।कहानी कोई भी हो उसे अपने अंदाज़ से अंकित ऐसा रूप देता था कि सुनने वाले उसके मुरीद हुए बिना नही रहते थे।उसके बारे में मुझे ज़्यादा कुछ बताने की ज़रूरत नही है क्योंकि साहित्य कला आदि से सम्बन्ध रखने वाले लोग उससे अच्छी तरह परिचित होंगे और हमारे लखनऊ के लिए तो वह वैसे भी इतना जाना पहचाना नाम था कि लोग उसके कार्यक्रमों का इंतज़ार करते रहते थे।
यह मेरा सौभाग्य है कि मैं इतने अच्छे कलाकार और उतने ही अच्छे इन्सान की बहन हूँ लेकिन उतनी ही दुर्भाग्यशाली भी हूँ क्योंकि मेरा भाई इतनी जल्दी हम सबको छोड़कर चला गया।लेकिन कलाकार कभी भी मरते नही और अंकित तुम हमारी स्मृतियों में हमेशा जिंदा रहोगे।अभी कुछ दिनों पहले दैनिक जागरण के कार्यक्रम संवादी में अंकित के घनिष्ठ मित्र और उसके साथ ही इतनी दास्तानें कहने वाले हिमांशु बाजपेई को भी दास्तान कहते सुनकर बहुत ही अच्छा लगा।उनको भी अपने काम में इतनी तल्लीनता से लगे देखकर अंकित की रूह को सुकून तो ज़रूर मिलता होगा।
अंकित की माँ और मेरी माँ दोनों बहनें हैं और अपनी मासी का दर्द जो मैंने 9 मई 2018 से लेकर आज तक देखा और महसूस किया है उसे मैं शब्द दे ही नही सकती।ऐसी माँ जिसने बेटे की ख़ुशी और अच्छे भविष्य को ही अपना सपना समझा था वह बेटा ही उससे हमेशा के लिए इतनी दूर चला गया कि जहाँ से किसी के आने की कल्पना भी नही की जा सकती।लेकिन माँ कोई भी हो किसी की भी हो मुझे लगता है ईश्वर ने अपना रूप सबसे ज़्यादा देकर इस धरती पर अगर किसी को भेजा है तो वह माँ ही है।माँ के प्यार में सिर्फ त्याग है और कामना का कोई अंश नही।तभी तो अंकित के चले जाने के बाद भी माँ को देखो अभी भी उसी के सपनों के साथ जी रही है और उन सपनों को साकार करने में लगी हुई है।अंकित का सपना था कि उसकी दस्तानों की एक किताब प्रकाशित हो और “तो हाज़िरिन हुआ यूँ…दास्तान-ए-अंकित चड्ढा” प्रकाशित हो गई और अंकित के माता पिता का भी जैसे कोई सपना पूरा हुआ हो और मुझे लिखते हुए भी दिल में इतना दर्द महसूस हो रहा है कि अंकित को तो हमने खोया ही उसके कुछ महीनों बाद ही उसके पिता भी असमय इस दुनिया से चल बसे शायद अंकित से दूर रहना उनको गंवारा नही था।परिवार पर क्या बीत रही होगी इसको कहने के लिए मेरे पास शब्द नही हैं।आप सब मेरी बात को ज़रूर महसूस कर रहे होंगे।लेकिन उस माँ का प्रेम वास्तव में निष्काम है।इतनी असीम वेदना के साथ जी कर भी उसने इस किताब को प्रकाशित किया।न सिर्फ बेटे के सपनों को पूरा करने के लिए बल्कि उस जैसे कितने युवा बेटों के मार्गदर्शन के लिए भी।
अभी मेरा दिल इतना भारी सा हो गया है कि क्या लिखूं?ऐसी माताओं के प्रेम को देखकर कुछ पंक्तियाँ बन गईं जिन्हें कविता न कहकर मेरे मन के उद्गार,इस पूरी दुनिया की माताओं के लिए कहे जा सकते हैं।इसलिए इसे मैं अपनी कविता न कहकर “दिल के कुछ उद्गार माताओं को समर्पण” कह सकती हूँ।वैसे भी मैं कविता कम ही करती हूँ और उपन्यास कहानी लेखन में स्वयं को ज़्यादा सहज महसूस करती हूँ।लेकिन पता नही ऐसा क्यों होता है कि जब भी कोई बात मेरे दिल को ज़्यादा व्यथित करती है या ज़्यादा चुभती है तो कुछ पंक्तियाँ अनायास बन जाती है जिन्हें मैं कविता न कहकर मन की व्यथा कहना उचित समझती हूँ।
कामनारहित निष्काम प्रेम जीवन को जोड़ता है।
त्याग से ही प्रेम का जन्म होता है।
वही जीवित है,जो प्रेम के लिए मरता है।
प्रेम का अर्थ ही है पुरस्कार की कामना किये बिना कर्म करना।
प्रेम ही ईश्वर है जो इस धरती पर सिर्फ माँ में दिखता है।
माँ का स्वरुप एक सन्यासिनी का होता है।
सन्यासिनियाँ तथा माताएं हैं दोनों मूर्ति की पुजारन-
सन्यासिनियाँ पूजती हैं भगवान राम,कृष्ण,शंकर को,
माताएं पूजती हैं शिशु को आशाओं की प्रतिमा मानकर,
परन्तु आशाओं की प्रत्येक प्रतिमा,अधिकतर निराश कर देती है उसका ह्रदय तोड़कर।
इसलिए माँ के प्रेम का स्वरुप जितना विराट होगा
पुत्र का व्यक्तित्व भी उतना ही श्रेष्ठ होगा।
मोह में डूबा माँ का प्रेम यदि मानवता के लिए अभिशाप है
तो ऐसा कामनारहित निष्काम प्रेम मानवता को बचाने के लिए वरदान है।
सत्य ही है कि माँ के प्रेम का दीपक सदा एक जैसा जलता रहता है।