हममें से शायद ही कोई हो जिसने अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से यह न सुना हो कि समय बड़ा गतिशील है या समय बड़ा बलवान है आदि-आदि।अर्थात हमारे माँ-पिता ने भी यही हमसे कहा और उनके भी माता-पिता ने उनसे यही कहा होगा और ऐसे ही शायद यह क्रम चलता जा रहा है।कहने का तात्पर्य यह है कि समय अपना प्रभाव सब पर छोड़ता है और लगभग हर युग में सभी यह महसूस करते रहे हैं कि समय के साथ काफी कुछ बदल जाता है लेकिन इधर लगभग दस सालों से एक फ़र्क जो मुझे नज़र आ रहा है वह यह है कि पहले एक युग बीतने पर ही एक युग माना जाता था लेकिन आज कुछ महीनों में ही एक युग बीत जाता है यानि कुछ दिनों में ही हर तरफ़ इतना परिवर्तन आ जाता है जो पहले शायद कई सालों में आता था।
आज विज्ञान और टेक्नोलॉजी के कारण भी बहुत तेजी से चीज़ें बदली हैं।युवा पीढ़ी तो पूरी तरह इनपर निर्भर और इनकी आदी हो ही चुकी है।छोटे-छोटे बच्चे भी इस पर ही निर्भर कर रहे हैं और इनकी तो जाने दें अधेड़ और वृद्धावस्था को प्राप्त कर चुके लोगों को भी इनपर निर्भर होना पड़ता है।अब यहाँ आज मैं यह विचार नही करुँगी कि इन चीज़ों ने हमें क्या लाभ दिया और क्या हानि क्योंकि यह एक अलग बिंदु होगा जिस पर एक अलग विषय के साथ चर्चा की जा सकती है।आज मैं जिस विषय पर प्रकाश डालना चाहती हूँ वह है “साहित्य से दूरी हमें कहाँ ले जा रही?”
अब इस प्रश्न पर सोचने को कहा जाए तो सभी यही कहेंगे कि भई ठीक है अब समय के साथ तो थोडा बहुत अंतर आता ही है और आज समय किसके पास है इतना लिखने पढ़ने का?लेकिन क्या इस दौर ने हमें इन्सान कम और मशीन ज़्यादा नही बना दिया?पहले किसी भी विषय पर कोई जानकारी लेनी होती थी तो हम कई पुस्तकालय और किताबों की दुकानों की खाक छानते थे,विषय विशेषज्ञ के पास चक्कर काटते थे और फिर जो जानकारी मिलती थी वह हमें जीवनपर्यंत याद रहती थी और दिल और दिमाग पर उसका असर भी ताउम्र बना रहता था लेकिन आज इसके उलट कोई भी जानकारी लेनी है तो इन्टरनेट के माध्यम से मिनटों में सारे विश्व के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।ठीक है इससे समय,पैसा,श्रम और भी न जाने क्या क्या बचता है और इसमें कोई शक भी नही कि विज्ञान और टेक्नोलॉजी के दम पर ही आज हमने हरेक क्षेत्र में इतनी तरक्की भी कर ली है परन्तु फिर वही एक प्रश्न जो दिल को कुरेदता है और वह यह कि हमने दिमाग का इस्तेमाल करते करते दिल से कितनी दूरी बना ली।मैं नही जानती कि आप में से कितने लोग मेरी बात से सहमत होंगे लेकिन मेरे साथ स्कूल- कॉलेज के दिनों में भी और उसके बाद भी कुछ समय तक किताबों की दुनिया सबसे प्रिय थी।जीवन की छोटी-छोटी बातों पर भी इन पुस्तकों में पढ़ी हुई बातों का ऐसा प्रभाव पड़ता था कि जैसे लगता था कि इन दो पंक्तियों ने सारा जीवन बदल दिया।मैं आज भी नही भूली हूँ कि एक आम लड़की जैसा मेरा भी स्वभाव था कि किसी के बाह्य-सौंदर्य(external beuty)को देखकर ही उसके व्यक्तित्व का निर्धारण कर लेती थी या उसकी किसी कमी का भी हो सकता है मजाक उड़ाया हो लेकिन जब मैंने कॉलेज के दौरान मलिक मुहम्मद जायसी को पढ़ा तो उनके व्यक्तित्व को पढ़ते हुए एक पंक्ति मेरे सामने आई और मैं सच कहती हूँ कि आज भी इतने वर्ष बीत जाने के बाद उसका असर मेरे दिल पर वैसे ही है।पहले मैं बताऊँ कि वह क्या पंक्ति थी–मलिक मुहम्मद जायसी सूरी वंश के शासक शेरशाह सूरी के समय उपस्थित थे।कहा जाता है कि एक बार शेरशाह के दरबार में जाने पर वह जायसी के कुरूप चेहरे को देखकर हंसा।जायसी ने बड़े शांत भाव से प्रश्न किया –
“मोहि का हँससि,कि कोहरहि?” अर्थात तू मुझ पर हंसा या मुझे बनाने वाले कुम्हार (ईश्वर) पर।इस पर शेरशाह ने लज्जित होकर सिंहासन से उतरकर उनसे क्षमा मांगी।सच में इस एक पंक्ति ने मेरे जीवन पर इतना प्रभाव डाला कि अब किसी का वाह्य रूप देखकर कभी भी मैं उपहास उड़ाने का प्रयास भी नही कर पाती क्योंकि तुरंत मेरे दिमाग में यह आ जाता है कि यह तो ऊपर वाले का यानि ईश्वर का बनाया रूप है और मैं हँस रही हूँ तो अमुक व्यक्ति पर नही बल्कि ईश्वर पर।
इसी तरह न जाने कितनी पंक्तियाँ हैं जिन्होंने मेरे व्यक्तित्व को पूरी तरह बदलने में मेरी मदद की।गोस्वामी तुलसीदास जी की भी केवल एक पंक्ति ही काफी है–
“डासत ही गई बीति निसा सब,कबहुं न नाथ नींद भरि सोयो”– अर्थात मेरा सारा जीवन उपाय करते करते और साधन जुटाने में ही बीत गया जिससे मैं आत्मबोध की सुखभरी नींद नही ले सका हूँ।वास्तव में अपने जीवन में हम सभी भौतिक साधन जुटाने और उनके रखरखाव में ही इतना समय नष्ट कर देते हैं कि वास्तविक सुख का उपभोग तो कर ही नही पाते।आप शायद मेरी इन आगे की पंक्तियों को पढ़कर हँसेंगे लेकिन कोई भी रात शायद ही जाती हो जब मैं रात को अपना बिस्तर बिछाते हुए इस पंक्ति को मन ही मन न दोहराती हूँ।मुझे यही लगता है कि सच में आज पूरा दिन हमने क्या-क्या उपक्रम नही किये लेकिन वास्तव में चैन से बैठकर भोजन और एक सुख की नींद भी दूभर होती जा रही है ऐसे में इन सारे प्रयासों का क्या मतलब रह जाता है?मुझे लगता है कि चाहे कुछ देर को ही सही ऐसे विचार मेरे मन में आए तो। कुछ तो इन्सान अपने अन्दर बदलाव लाने की कोशिश करता है।
ऐसे ही गुरुनानक जी की एक पंक्ति—
“नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात”—
इस एक पंक्ति में जो सार है पूरी किताब पढ़कर भी कोई इतना ज्ञान नही पा सकता।मुझे जो सबसे दिल को छूने वाली बात लगी वह यह कि मैं भी कभी-कभी सोचती थी कि मैं पूजा-पाठ पर ज़्यादा समय नही दे पाती लेकिन इस पंक्ति को पढ़ने के बाद मुझे भी लगा कि ईश्वर के नाम की खुमारी अगर चढ़ जाए तो और सब बातें कोई मायने नही रखती।ठीक कहा है—“हथ काम वाल ते ध्यान करतार वाल”अर्थात काम करते करते भी हम करतार यानि ईश्वर का ध्यान कर सकते हैं।रैदास का उदाहरण तो सबके सामने है।
कबीरदास जी के दोहों की बात न करना तो मेरी बात को ही अधूरा छोड़ देगा।उनके तो न मालूम कितने दोहे हैं जिन्होंने जीवन में कितनी शिक्षा दी है और कह सकती हूँ कि मार्गदर्शन किया है परन्तु यहाँ आज मैं जिन पंक्तियों का उल्लेख कर रही हूँ वह पहले दे दूँ फिर लिखूं कि इन्हें ही मैंने क्यों दिया—
तेरा मेरा मनवा कैसे इक होई रे।
मैं कहता आंखन की देखी,तू कहता कागद की लेखी।
मैं कहता सुरझावन हारी,तू राख्यो अरुझाई रे ।
आप यकीन मानिये जब भी अयोध्या राम मंदिर का मुद्दा कही न्यूज़ में या किसी के साथ बातचीत में सामने आता है तो मुझे कई साल पहले पढ़ी हुई कबीर की ये पंक्तियाँ ध्यान में आ जाती हैं और यही लगता है कि कागज़ी कार्रवाइयों में ही पूरे मसले को उलझा कर रख दिया गया है।सुलझने की जगह चीज़ें और उलझ ही गई हैं।
ऐसे ही कितने अनगिनत उदाहरण आप में से भी सभी के साथ कुछ न कुछ होंगे।थोडा सा भूतकाल में जाएँ और याद करें कि तब प्रेम प्रदर्शित करने का भी कितना मासूम तरीका था।अमृता प्रीतम की ‘रसीदी टिकट’ भी प्रेमिका को देकर प्रेम का एहसास करा दिया जाता था,शिवानी के उपन्यासों की नायिका इतनी सुन्दर होती थी कि हर लड़की कॉलेज में जाना शुरू करते ही उस नायिका के साथ एक अपनापन महसूस करने लगती थी और स्वयं को वैसा ही समझना चाहती थी।कितनी छोटी छोटी मासूम सी बातें थीं लेकिन दिल पर असर करती थीं आज वह सब कहाँ खो गया है?
एक और उदाहरण देना चाहूंगी क्योंकि इसके बिना शायद मेरा लेख पूरा ही नही हो सकता।इस एक छोटी सी पंक्ति ने भी मुझे जीवन का बहुत बड़ा सन्देश दिया।यह पंक्ति है अंग्रेजी के महान कवि जॉन मिल्टन द्वारा रचित ‘On His Blindness’ नामक कविता से। मिल्टन की नेत्र ज्योति उनके आधे जीवन से पूरे होने के पहले ही खो जाती है और सारा विशाल संसार उनके लिए शुष्क,नीरस और अंधकारमय हो जाता है।वे खेद प्रकट करते हैं कि अचानक अंधेपन के कारण वे कुछ लिखने में असमर्थ हैं और उन्हें यह डर लगता है कि ईश्वर प्रदत्त कवित्व गुण अब मृत्यु के अंतिम दिन तक सुप्तावस्था में पड़ा रहेगा और इस गुण का सदुपयोग न करने से कही ईश्वर उन्हें न धिक्कारे।लेकिन उनकी आत्मा तत्काल उन्हें प्रत्युत्तर देती है कि यह उनका मूर्खतापूर्ण प्रश्न था क्योंकि जो लोग ईश्वर द्वारा प्रदत्त कठिनाइयों व आपदाओं को प्रसन्नतापूर्वक तथा नम्रता से सहते है वे ईश्वर की सच्ची सेवा करते हैं।इस कविता को पढ़ने से मुझे हमेशा यही लगा कि सहनशीलता वास्तव में मानव में ईश्वरीय तत्व की प्रतीक है और ईश्वर उन्ही लोगों से भली प्रकार प्रेम करता है जो ईश्वर के विरुद्ध कोई शिकायत किये बिना ही उसके दिए हुए कष्टों को सहर्ष सहन कर लेते हैं।वैसे तो यह पूरी की पूरी छोटी सी कविता अपने आप में एक बहुत बड़ा सन्देश दे जाती है लेकिन इसकी एक पंक्ति जो मुझे लगता है कि किसी भी घोर अवसाद में डूबे व्यक्ति को भी नई उमंग से भर सकती है वह यह है —
They also serve God who only stand and wait.
इस पंक्ति में मिल्टन के ढृढ़ विश्वास के अनुसार वे लोग भी ईश्वर की सच्ची सेवा करते हैं जो अनेकों कष्टों को आनंदपूर्वक सहन करते हैं।ईश्वर सभी लोगों को आज्ञा देता है।कुछ लोग कार्य में सक्रिय होते हैं परन्तु जो केवल नम्रतापूर्वक खड़े रहते हैं,वे भी ईश्वर की सच्ची सेवा करते हैं क्योंकि वे ईश्वर की ख़ुशी व इच्छा में ही खड़े रहते हैं।मैं जब भी अपने जीवन में दुखी या निराश हुई हूँ इस पंक्ति ने जैसे बाहें फैलाकर मुझे अपना सहारा दिया है।इस लाइन ने मुझे यही एहसास कराया कि ईश्वर उसी से ज़्यादा प्रेम करते हैं जो अपने कष्टों को भली प्रकार सह सकते हैं और यकीन मानिये कि कई बार जब मैं बहुत अस्वस्थ भी हो गई तो इन्हीं भावों ने जैसे मुझे मौत के मुंह से निकाला।
आज का लेख बहुत लम्बा हो गया शायद इसमें दिल की भावनाएं ज़्यादा आगे आ गईं।मुझे ऐसा लगता है कि मेरे पाठकों को यह लेख ज़रूर एक बार कुछ सोचने पर मजबूर करेगा और शायद कुछ यादें भी ताज़ा कराएगा।ठीक है इक्कीसवीं शताब्दी में जी रहे हैं तो टेक्नोलॉजी का उपयोग करिए लेकिन अपने अन्दर के मानवीय गुणों को न मरने दीजिये और उनको जिंदा रखने के लिए अच्छा साहित्य ज़रूर पढ़िये।
लेख को पढते वक्त एक अलग सी अनुभूति । ऐसा प्रतीत हुआ की कहीं न कहीं मेरी भावनाओं को भावना ने शब्द दे डाला।साहित्य बिना जीवन अधूरा सा लगता है हम कितना भी तरक्की कर लें ।पठन – पाठन की कितनी भी सामाग्री इकट्ठा कर ली जाय किंतु किताबों की जगह कभी भी नेट नही ले सकता।
ठीक कहा किरन आपने।अपने पाठकों की भावनाओं को शब्द देना ही भावना का काम है।
अति सुंदर लेख।थोड़ी गुदगुदाने वाली,थोड़ी चुभाने वाली और थोड़ी सहलाने वाली।
दरअसल साहित्य, संगीत और कला के लिए जो स्पेश, शांति और मौन चाहिए,वो समय वाट्सएप विश्वविद्यालय के अधकचरे और प्रायोजित ज्ञान ने ले लिया है।
धन्यवाद अमित भाई!आपलोगों द्वारा लेखों को पसंद किया जाना ही मेरे लिए बहुत बड़ी बात है।
साहित्य समाज का दर्पण है और हम सभी के लिए साहित्य प्रेरक का कार्य करता है।सुंदर आलेख……..
शुभाशीष
धन्यवाद,आप लोगों के सुझाव मेरे लिए अमूल्य हैं।