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नई करवट लेती नारी अस्मिता

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है मेरे ख्याल से किसी को भी बताने की ज़रूरत ही नही है क्योंकि प्रिंट मीडिया,सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जहाँ भी देखिये आज तरह-तरह के कार्यक्रम,सन्देश और शुभकामनाओं से भरे ऑफर हम सबको मिल जाएँगे।कल रात ही मुझे मेरी दोस्त ने बताया कि कई अस्पताल तो महिलाओं के लिए फ्री चेक-अप कैंप लगा रहे हैं और भी कई तरह के सामानों पर बहुत सारे ऑफर यानि आज सिर्फ हम महिलाओं का ही दिन है लेकिन आज ही मुझे यह प्रश्न भी करना है कि ऐसा एक ही दिन क्यों?लेकिन ठीक है आज मैं कोई भी चुभने वाली बात नही कहना चाहती क्योंकि कवि अज्ञेय ने ‘आइडेंटिटी’ के लिए पहली बार हिंदी शब्द ‘अस्मिता’ का प्रयोग किया था और आज नारी-अस्मिता यानि औरत की पहचान हर जगह नए-नए आयाम स्थापित कर रही है।प्रश्न कई हैं जो मेरे दिल में चुभन जगाते हैं।नारी स्वतंत्रता की बात करके हम कितना स्वतंत्र हो पाते हैं,समाज कितना योगदान देता है,हम औरतों की खुद की क्या मानसिकता होती है अपने अधिकारों और अपने कर्तव्यों के लिए,नारी ही कितना नारी का सहयोग कर पाती है फिर वह चाहे घर परिवार हो या कार्य-क्षेत्र या समाज में और भी कहीं?ऐसे न जाने कितने अनगिनत सवाल हैं जिनका मैं वर्णन करना चाहती हूँ और उनका जवाब मांगना चाहती हूँ लेकिन इस मुद्दे पर मैं बहुत जल्दी लिखूंगी पर आज ऐसा कुछ लिखने का मन नही कर रहा,न तो ऐसे घिसे-पिटे मुद्दे जिन पर वर्षों से लिखा जा रहा है और सीता सावित्री से लेकर आज तक मुझे गिनती करने कराने की कोई ज़रूरत नही लगती कि इस क्षेत्र में महिलाओं ने यह किया और वह किया या इसी तरह के महानता के किस्से सुनाना क्योंकि आज हर जगह हमें विस्तार से ऐसा बहुत कुछ पढ़ने-सुनने और देखने को मिलेगा जो हम वर्षों से पढ़ते आ रहे हैं।या फिर ऐसे भी वर्णन मिल जाएँगे कि औरतों पर यह अत्याचार हुआ या उनके साथ इस बीते वर्ष इतने हादसे हुए आदि-आदि।

इसलिए आज के दिन हम अति सकारात्मक और अति नकारात्मक दोनों ही स्थितियों से बचें।न तो औरत को देवी बनाने की कोशिश करें और न ही अत्याचारों से जूझती एक अबला।ऐसे किस्से बहुत-सुन,देख और सह चुके हैं।आज के दिन से अपनी नई अस्मिता गढ़ने की कोशिश की तरफ एक कदम ही बढ़ाएँ।आज मैं आपको एक ऐसे क्षेत्र में महिलाओं के प्रवेश और उनके योगदान के बारे में बताना चाहूंगी जो स्त्रियों के लिए वर्षों तक वर्जित था।जी हाँ इस शिवरात्रि में सिर पर भगवा पगड़ी,भगवा रंग के वस्त्र और गले में रुद्राक्ष की माला पहने महिला महंत को आध्यात्मिक सत्ता संभाले अपने शहर लखनऊ के दो बड़े शिव मंदिरों में देखने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ–बुद्धेश्वर मंदिर में महंत लीला पुरी और मनकामेश्वर मंदिर में महंत देव्या गिरि।ठीक कहते हैं कि आध्यात्म के आगे विज्ञान हार जाता है।मनकामेश्वर मंदिर की महंत देव्या गिरि का भी सफ़र कुछ ऐसा ही है।उनका जन्म बाराबंकी उत्तर प्रदेश में हुआ और उन्होंने बीएससी,डिप्लोमा ऑफ़ पैथोलॉजी और पीजी तक की पढ़ाई की लेकिन उनका महंत बनना आसान नही था।अनेकों कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने हार नही मानी और आज मंदिर प्रशासन उनके बिना नही चलता।उन्होंने कारोबार के लिए मुंबई जाने की सोची लेकिन तभी भोले बाबा के दर्शन से उनके जीवन की दिशा ही बदल गई और उसी दिन से वे भोले बाबा की शरण में हैं।

इन्हीं की तरह गोंडा में जन्मीं बुद्धेश्वर मंदिर की 65 वर्षीय महिला महंत लीला पुरी का भी सम्पूर्ण जीवन ईश्वर की आराधना में बीत रहा है।कक्षा पांच तक की पढ़ाई के बाद नौ वर्ष की उम्र में ही माँ काली की पूजा-पाठ में लीन हो गईं और ग्यारह वर्ष की उम्र में अयोध्या पहुँच गईं और यहाँ महंत नृत्य गोपाल दास महाराज की छावनी में गुरुकुल में दिन भर शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करतीं।1984 में आप अयोध्या से बुद्धेश्वर मंदिर आ गईं।यहाँ महंत फौजी बाबा ठाकुर पुरी महाराज की शिष्या बनकर रहीं।1997 में शिवबाला घाट काशी महानिर्माणी अखाड़ा व तत्कालीन जिलाधिकारी ने लीला पुरी को बुद्धेश्वर मंदिर का महंत घोषित किया।लीला पुरी ने महंत बनने के बाद मंदिर में राम दरबार,संतोषी माता,दुर्गा माता,शनि महाराज के साथ ही गुरु महाराज की प्रतिमा भी स्थापित करवाई।

ऐसे ही न जाने कितने अनगिनत कार्य क्षेत्र हैं जिनमें औरतों का प्रवेश वर्जित ही था लेकिन उन्होंने अपने बूते अपनी जगह बनाई लेकिन आज की बेटियों के अभी भी बहुत से ऐसे सवाल हैं जो अनुत्तरित हैं।ऐसे ही कुछ सवाल एक बेटी माँ से पूछना चाहती है लेकिन माँ के पास कोई जवाब नही होता और माँ भी स्वयं को बेबस महसूस करती है।इन्ही बातों को कविता के रूप में कुछ दिनों पहले मैंने शब्द दिए थे।उस कविता को मैं आज के दिन देना चाहूंगी—

कविता : “माँ से बिटिया का सवाल”

माँ कितने दिनों से तुमसे कुछ पूछना चाहती हूँ

कुछ बातें जो तुम बचपन में हमेशा कहती थी

क्यों इतनी अच्छी लगतीं थीं ?

कि आज भी दिल से निकलती नहीं हैं,

लेकिन आज उनका कहीं कोई अस्तित्व नहीं है।

तब जब भी मैं कभी डरती या घबराती थी

तुम हमेशा कहती थी बेटा बोलो –

‘जय गोविंदा जय गोपाल मेरी डोरी तेरे हाथ’

यह बोलते ही सब दुख और घबराहट दूर होते जाते थे,

पर आज मैं जब भी डरती या घबराती हूँ

यह शब्द दोहराती हूँ पर कोई संबल नहीं मिलता

कोई भी हाथ मेरी डोर नहीं थामता।।

तुम हमेशा बचपन में मुझे यह कह कर छकाती थी

बेटा जल्दी से खा ले नहीं तो चिड़िया ले जाएगी

माँ आज तक कोई चिड़िया तो मेरा कुछ न ले पाई

हां हर तरफ गिद्ध ज़रूर दिखते हैं,

जो मेरा सर्वस्व लेने को तैयार बैठे हैं।

चिड़िया से तो तू हमेशा बचा लेती थी

पर इन गिद्धों से मुझे अब कौन बचाएगा?

माँ का जवाब –

बिटिया तेरे इन सवालों का मेरे पास कोई जवाब नहीं है

मेरी माँ भी मुझे ऐसे ही समझाती थी

और ज़िंदगी बड़े आराम से गुजरती जाती थी।

मेरी माँ और मेरी उम्र में भी लगभग उतना ही फासला था

जितना तेरी और मेरी उम्र में-

पर तब एक युग बीतने पर ही एक युग बदलता था

लेकिन आज तो हर एक-दो वर्ष में एक युग बदल जाता है।

इसलिए मेरी बिटिया तुझे मैंने जो बातें कहीं थी

उनको गुजरे तो कई युग बीत गए हैं

तभी तो मेरी बातें आज बेमतलब हो गई हैं

और युगों का असर उनपर हावी हो गया है।

इसलिए मेरी बातों पर तू गौर न कर

अपनी डोर खुद कस कर थाम और

हर गिद्ध से बचने का स्वयं कर इंतज़ाम।

3 thoughts on “नई करवट लेती नारी अस्मिता

  1. बेहद उम्दा भाव ।हर गिद्ध से बचने का स्वयं इंतजाम कर

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