किसी भी समाज की उन्नति के लिए आवश्यक है कि उस समाज की महिलाएं अपने मज़हबों को मानते हुए भी प्रगतिशील नज़रिया रखें,परन्तु बदकिस्मती से ऐसा हुआ नहीं।औरतों को पूरी दुनिया में भेदभाव का शिकार होना पड़ा है।भारत में औरतों के संघर्ष कहीं अधिक जटिल रहे हैं और आज भी हैं।ख़ास तौर पर मुस्लिम औरतों को पर्देदारी की जद में यूँ गिरफ्तार किया गया कि आज़ादी के बाद इस तबके की अधिकतर औरतें घर की दहलीज के भीतर सिमट गईं।संसद में हमारी मुस्लिम बहनों की आवाज़ पहुंची भी तो वह अधिकतर पुरुष आवाज़ थी,जिसने तीन तलाक जैसी तमाम कुरीतियों के ख़िलाफ़ कभी कुछ नहीं किया।
मेरे नियमित पाठक इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि किसी भी विषय पर राजनीति करना मेरे बस की बात ही नहीं है और न ही यह मेरे लेखन का उद्देश्य ही है।इसके साथ ही किसी भी धर्म या उसकी मान्यताओं को किसी भी प्रकार से ठेस पहुँचाना भी मेरा उद्देश्य नहीं है।मैं तो जो विषय या बातें चुभन देती हैं उन्हें ही अपने लेखों में मुद्दा बनाती हूँ।मुझे ऐसा लगता है कि हिन्दू धर्म में भी बहुत सी ऐसी मान्यताएं या प्रथाएँ थीं और अभी भी हैं,जिनके कारण हिन्दू धर्म मानने वाली महिलाओं को भी बहुत झेलना पड़ा।परन्तु क्या हिन्दुओं में बाल-विवाह प्रथा समाप्त नहीं की गई?सती-प्रथा के ख़िलाफ़ भी कानून बना कि नहीं?इन सब प्रयासों से कोई शक नहीं कि महिलाओं की स्थिति में बहुत सुधार हुआ।इसलिए मेरा तो यही मानना है कि इन सब कुप्रथाओं को धर्म से जुड़ा मानकर थोपते रहने का कोई फायदा नहीं बल्कि इन्हें अभिशाप समझ कर समाज से दूर करना चाहिए।आजकल क्योंकि हमारी मुस्लिम बहनों के तीन तलाक का मसला ज़्यादा चर्चा में बना हुआ है और इसके ऊपर आए दिन टीवी चैनलों पर डिबेट होते रहते हैं।ऐसे ही आजकल इस विषय पर चर्चा देखते और सुनते हुए मेरे मन में एक ऐसा चित्र तैयार हुआ जिसे सोचकर खुद मन ही मन मैं मुस्कुरा उठी और विचार आया कि आपको भी क्यों नहीं मैं यह शब्दों का चित्र बनाकर थोड़ा-सा हंसाने और गुदगुदाने की कोशिश करूँ.तो पेश है मुस्लिम बहनों की कांफ्रेंस-
हज़रत पार्क के मैदान में एक मंच सजा हुआ है।ऊपर फूल-पत्तियों वाले शामियाने लगे हुए हैं तथा अगल-बगल पानी का छिड़काव करके मिट्टी को गीला किया गया है ताकि धूल-मिट्टी न उड़े,इत्र की भीनी-भीनी खुशबू माहौल को खुशनुमा कर रही है।पंडाल मुस्लिम महिलाओं से भर चुका तो मंच पर भी स्थानीय और बाहर से आई चुनिन्दा मुस्लिम युवतियां आकर बैठ गईं।इन्हें अपने ठोस विचार श्रोता महिलाओं के आगे रखने थे और बाद में एक प्रस्ताव पास कर मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार की बात सरकार तक पहुँचाने की योजना थी।
कार्यकम की शुरुआत की गई।ज़ेब रहमान ने खड़े होकर संचालन शुरू किया, “बहनों,दुनिया भर की औरतों ने न जाने क्या-क्या उठा पटक की,उन्होंने अपने हक हुकूक अपने शौहरों से,सरकार से और न जाने कहाँ-कहाँ से तलब किये…मगर जाने दीजिये हम तो ईमान वाली औरतें हैं,हमने भी अब अंगड़ाई ली है।अब हम दुनिया को ज़रूर दिखा देंगे कि मुस्लिम औरतें भी किसी से कम नहीं हैं।आज की मीटिंग यानि मजलिस इसीलिए की जा रही है कि हम भी हिन्दू औरतों की तरह वक़्त से लोहा लें।”
अपनी बात कहते-कहते ज़ेब रहमान बड़े जोश में आ गईं और बोलीं, “आज हम पर्दा,तलाक और मेहर पर चर्चा करेंगे।आपस में इस मुद्दे पर बहस होगी और हम जब किसी मसले पर एकराय हो जाएँगे तो शरीअत में संशोधन की मांग बुलंद की जाएगी।इसलिए मैं उम्मीद करती हूँ कि आप सब शांतिपूर्वक वक्ताओं के विचार सुनेंगी और उन बातों पर गौर भी फ़र्माएंगी।” उनके इतना कहने के साथ ही पहली वक्ता नसरीन बानो उठीं और कहना शुरू किया, “बहनों मैं बड़ी दूर से आपकी खिदमत में आई हूँ।मुझे परदे से सख्त नफरत है।अभी ख़ुदा की मेहरबानी से वक़्त हमारे साथ है।अब भी अगर हम कुछ न कर सके तो क़यामत तक हमारी हालत शायद ही सुधरे।मेरी आप से दरख्वास्त है कि पर्दा छोड़ कर हमें बेपर्दा होना होगा।बरसों तक हम इस कैद में रहे हैं लेकिन अब हम परदे की जहालत उतार फेंकेंगे।”
नसरीन बानो ने चेहरे पर लटक आई जुल्फों को पीछे किया।सामने बैठी औरतों की तरफ नज़र डाली और गला साफ़ करते हुए आगे बोलना शुरू किया, “और ख़ुदा की खुदाई से ज़्यादा इन मर्दों की खुदाई से हम तंग हैं।न कहीं हम खुले घूम सकते हैं,न अच्छा लिबास पहन कर ही किसी को दिखा सकते हैं।अब आप मुझे ही देखिये अल्लाह मियां झूठ न बुलाए,मेरे पास दो दर्ज़न से ज़्यादा बेहतरीन साड़ियाँ हैं,कई स्कर्ट,पैन्ट-टॉप,जीन्स सब कुछ है,मगर उन का क्या इस्तेमाल?सब बेकार है।”
अपनी बात कहते-कहते नसरीन बानो इतनी ज़्यादा भावुक हो गईं और जोश में आ गईं कि उनके हाथ ने ऐसा झटका खाया कि माइक से टकरा गया और माइक स्टैंड ने कई हिचकोले खाए।तब इंतज़ाम देख रहे लड़के उधर दौड़े और माइक को स्थिर किया गया।नसरीन ने अपना बोलना जारी रखा, “मैं जब भी उन कपड़ो को पहनती हूँ तो वे कौवे की तरह आँखें घुमा कर ऐसे देखते हैं कि मन मसोस कर अपने उस लिबास पर बुरका डालना ही पड़ता है।हमारा बनाव-श्रृंगार,बालों का स्टाइल, ड्रेस की डिजाइनिंग-सब का सत्यानाश,कितनी मजबूरी है।हम किसी को दिखा नहीं पाते और जब लोग हमारा वह लिबास देख नहीं पाते तो कोई तारीफ भी कैसे करे?….तौबा तौबा,अल्लाह ही अब हमें बचाए।मैं आप सबका ज़्यादा वक़्त नहीं लूँगी और यही गुजारिश करुँगी कि हमें अब इस गुलामी से निज़ात पानी है वर्ना हम पिछड़ जाएँगे।”
फिर माइक के ऊपर ही लगभग दहाड़ते हुए नसरीन बानो चिल्लाईं, “शर्मोहया….”
श्रोता महिलाएं चिल्लाईं , “छोड़ दो….”
“पर्दा….”
“तोड़ दो….”
“बुरके….”
“उतार दो….”
और देखते ही देखते वास्तव में मुस्लिम बहनों ने अपने बुरके उतार कर बगलों में दबा लिए।मानो एक सत्य सा उजागर हो गया था।वाकई बुर्कों के नीचे एक से एक लिबास थे जो बुर्कों के हटते ही चमचमाने लगे और सभी महिलाओं के चेहरों पर एक खास रौनक उभर आई।
मंच संचालन कर रही ज़ेब रहमान बोलीं, “अभी आपने मोहतरमा नसरीन बानो के विचार सुने।पर्दा सच में हमारी जहालत की निशानी है।हम अपने आज़ाद मुल्क की गुलाम औरतें हैं।खैर अब आप इसके विपक्ष में विचार सुनिए।आप के सामने आ रही हैं मोहतरमा शबाना बेग़म।आप ने मुस्लिम बहनों की भलाई के लिए कई काम किये हैं।वे अपना निजी तजुर्बा आप को बताएंगी।लीजिये सुनिए मोहतरमा शबाना बानो।”
एक लम्बी छरहरी सी युवती माइक पर आई और बड़ी तल्खी भरी मुस्कुराहट के साथ बोलना शुरू किया, “बहनों अभी-अभी आपने मोहतरमा नसरीन बानो की लचर तक़रीर सुनी।लगता है इन्हें कोई शऊर नहीं है।पर्दा छोड़ो,पर्दा छोड़ो की रट लगा दी लेकिन मैं पूछती हूँ कि हम भला पर्दा क्यों छोड़ें?क्या परदे के फायदे हम नज़रंदाज़ कर सकते हैं?नहीं हरगिज़ नहीं।दुआ दीजिये और सलाम भेजिए उन बुजुर्गों पर जिन्होंने मुस्लिम महिलाओं के लिए पर्दा लाज़िमी ठहराया।”
शबाना बेग़म ने अपने बुरके को हिला कर थोड़ी हवा की और बोलना जारी रखा, “देखिए परदे की वजह से हमें कोई काम नहीं करना पड़ता।जिस दिन मर्द जान गये कि परदे में मज़ा है तो कसम परवरदिगार की कि वे हमें आज़ाद कर देंगे।मैं मोहतरमा नसरीन बानो से पूछना चाहूंगी कि पर्दा तोड़ कर खेत-खलिहानों और नौकरियों में मरखप कर क्या हमें अपना रंग रूप गंवाना है?याद रखो,पर्दा छोड़ने की बेवकूफी न कर बैठना,वर्ना चमड़ी जल कर काली हो जाएगी।हाथ की नाज़ुक हथेलियाँ जिन पर मेहँदी रचती है वह खुरदुरी हो जाएगी और सोच लो कि रूप गया तो तलाकों की बाढ़ भी आ सकती है।”
शबाना बेग़म तो जैसे नसरीन बानो की हर बात को काटने के लिए ही मंच पर बैठी थीं और उनके पास अपने तर्क भी बेहिसाब थे, “चादर या बुरके के कारण आपके लिबास को कोई देख नहीं पाता यह कहना भी गलत है।अरे भई,गली से आगे जाते ही आप बुरका उतार कर अपनी बगल में ले सकती हैं।मैं तो यही करती हूँ।मेरी अम्मा,खाला,और तमाम बहनें भी ऐसा ही करती हैं।मेरा मतलब पर्दा है ही कहाँ?यह तो एक आड़ है इसे बरक़रार रखो।इन नसरीन बानो के पास इतनी साड़ियाँ और ड्रेसें क्या खाक होंगी?यह तो सिर्फ बघार रही हैं।…..खैर हमें पर्दा रखना है।”
बोलो, “शर्मोहया….”
“नहीं छोड़ेंगे….”,भीड़ चिल्लाई।
“पर्दा….”शबाना बेग़म लहराईं।
“नहीं तोड़ेंगे….”और उतरे हुए बुरके वापस पहने जाने लगे।
“शुक्रिया,” कहकर जब शबाना बेग़म माइक से हटीं तो तालियों की आवाज़ से पंडाल गूंज उठा।शबाना ने तब बड़े घमंड और व्यंग्य के साथ पहली वक्ता नसरीन बानो की तरफ देखा।नसरीन तिलमिला उठी और उसने आयोजकों से दो मिनट का वक़्त और माँगा जो कि मिल गया।वह शबाना बेग़म को खा जाने वाली निगाहों से घूरती हुई माइक के पास आ गई और मुंह से आग उगलना शुरू हुआ, “बहनों आप ने शबाना बेग़म के ताने अभी सुने।वह तक़रीर नहीं छींटाकशी कर रही थी।उस ने मेरे लिए कहा कि मुझे शऊर नहीं।मगर मैं कहती हूँ कि उस को खुद न शऊर है,न सलीका,न तमीज़ और न तहज़ीब है।वह एक फूहड़ और जाहिल औरत है।वह कहती है कि मेरे पास दो दर्ज़न साड़ियाँ नहीं हैं।अरे,मैं तो वह हूँ जो इस जैसी को नौकर रख सकती है।खैर….” और नसरीन बानो हांफने लगी थी।
थोड़ी देर रूककर उसने लम्बी साँस ली और शबाना की तरफ घूर कर देखा और बोली, “हमें परदे में रखकर हमारे मर्द खुद खुले फिरते हैं।हम खुद उन्हें इतनी छूट देते हैं ताकि वे किसी से भी आंख लड़ाते रहें क्योंकि पीछे से उनको कोई खटका तो रहता नहीं।जब पानी सर से गुज़र चुका होता है तो हमें ख़बर लगती है।हम तब बोल नहीं पातें है और बोलते हैं तो तलाक़ तैयार होता है।मेरा दावा है कि मुसलमानों में आए दिन होने वाले तलाकों का कारण ख़ुद हम ही हैं,हमारा पर्दा है।”
नसरीन बानो का दिल शबाना के तानों से इतना जला हुआ था कि उन्होंने उसे जलाने के लिए कोई कसर बाकी नहीं रखी।उसने आगे कहा, “हाँ यह हो सकता है कि शबाना बेग़म का शौहर बूढ़ा हो और इसलिए उन्हें कोई खतरा न हो।”
इतना सुनते ही शबाना बेग़म आग बबुला हो गई, “क्या कहा,क्या कहा?मेरा शौहर बूढ़ा और उछल कर उसने नसरीन की गर्दन पकड़ ली।दोनों मंच पर ही गुत्थमगुत्था हो गईं।शबाना ने झपट्टा मारा तो नसरीन के नकली बाल हाथ में आ गये और पंडाल में एकाएक हंगामा मच गया।तभी संचालन कर रही ज़ेब रहमान ने उचक कर शबाना के हाथ से माइक स्टैंड छीना और खुद माइक में थरथराती आवाज़ में चीखने लगी, “सुनिए,सुनिए,आज की कार्रवाई यही ख़त्म होती है।आप अपने अपने घर जाइए।मेहर और तलाक पर मुक़ाबला कल होगा।” और वह बेचारी खुद भी गुत्थमगुत्था हुई नसरीन और शबाना के संघर्ष में शामिल हो गई।
मेरा आज का यह छोटा-सा व्यंग्य लेख आपको ज़रूर पसंद आया होगा।कभी-कभी हम अपने उदगारों को गंभीरता से उतनी अच्छी तरह पेश नहीं कर पाते जितनी अच्छी तरह हम उसे हंसी-मज़ाक में कह देते हैं।मुझे लगता है यह मुद्दा भी जो इतने सालों से अटका हुआ है उसका एक मुख्य कारण महिलाओं का भी आपस में एकमत नहीं हो पाना है।अल्लाह करे वे एकजुट हों और उनकी अगली कांफ्रेंस सफल हो…..