मानव स्वभावतःअंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ता है।उसकी इसी प्रवृत्ति ने ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का गंभीर घोष किया।दीपावली को आधुनिक और स्वस्थ सन्दर्भ में मानव के इसी स्वभाव का प्रतीक कहा जा सकता है परन्तु इस सारे सन्दर्भ में एक बात जो सबसे ज्यादा चुभन देती है वह यह है कि इस हर्षोल्लासमयी दीपावली के पर्व को आखिर कैसे मनाया जाए?कब तक उन्हीं परम्पराओं को निभाया जाता रहेगा जिनमें बच्चे आतिशबाजी चला कर खुश होते रहेंगे और बड़े जुए और शराब में डूबे रहेंगे।
दीवाली पर्व है प्रकाश का और अमावस्या के दिन होता है।इसके ठीक एक दिन पूर्व नरक चतुर्दशी होती है जो नरक से बाहर आकर स्वर्ग के निर्माण का भी उत्सव है परन्तु यदि हम ध्यान से देखें तो आज हर तरफ इसका उल्टा ही हो रहा है।आज हम अपने क्रिया-कलापों से इस त्यौहार को नरक रचने और अँधेरा बढ़ाने का त्यौहार बनाते जा रहे हैं।मेरे लिखने का अभिप्राय आपमें से अधिकतर लोग समझ ही गये होंगे क्योंकि इधर कुछ वर्षों से ऐसा हो गया है कि दीवाली आते ही सावधान होने की ज़रूरत हो जाती है।आतिशबाजी के शोर और ज़हरीली हवाओं से पर्यावरण प्रदूषण का क्या हाल होता है यह आप सभी जानते हैं।पहले तो बड़े-बड़े महानगरों तक ही यह समस्या सीमित थी लेकिन आज हर शहर,कस्बे और गाँवों तक भी यह ज़हरीला धुआं पहुँच चुका है।इस पर्व के आते ही एक तरफ मन जहाँ श्रद्धा और उल्लास से भर उठता है तो वही दूसरी ओर ऐसा लगता है कि कुछ दिन के लिए किसी ऐसी जगह चले जाएँ जहाँ धूमधड़ाका न हो,जहाँ चैन से रात को नींद ली जा सकती हो,सड़कों पर घूमा फिरा जा सकता हो,बारूद की दुर्गन्ध में लगातार हफ़्तों तक (क्योंकि दीवाली ही एक ऐसा पर्व है जो कम से कम पांच दिन तो मनाया ही जाता है और इसके आने के कुछ दिन पहले और बाद तक लोग इसे मनाते और आतिशबाजी आदि करते रहते हैं) सांस लेने और उसके बाद बीमार पड़ने से बचा जा सकता हो तथा कार,स्कूटर,मोटर साइकिल आदि के टायरों को विस्फोटों से बचाया जा सकता हो।
आज पर्यावरण की हालत से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है।हमारे देश में हालात यह हो गये हैं कि आम लोगों को हमेशा ही दूषित वायु में सांस लेना पड़ता है और आवाज़ों और शोरशराबे के वातावरण में रहना पड़ता है परन्तु इस त्यौहार के अवसर पर 10-12 दिनों तक हवा और ध्वनि का प्रदूषण इस कदर बढ़ जाता है कि बीमारों की संख्या कहीं ज्यादा बढ़ जाती है।मेरी तरह बहुत से लोगों का यह व्यक्तिगत अनुभव होगा कि इधर 3-4 वर्षों से ऐसा वातावरण हो जाता है कि सांस लेना भी दूभर हो जाता है और लोग घर से निकलना तो दूर कमरे से निकलने में डरते हैं।बहुत से श्वांस के रोगी इस त्यौहार के आने के एक हफ्ते पहले से ही एंटी एलर्जिक गोलियां खाना शुरू कर देते हैं और हफ़्तों तक उनकी दवाएं चलतीं हैं।स्मोग का स्तर इतना बढ़ जाता है कि जैसे लगता है आसमान पर बदल छाए हों।अधिकतर लोग इन बातों से वाकिफ ही हैं और जिनको यह सब अनुभव करने का मौका नहीं मिला वे ज़रा एक बार घर से निकल कर कुछ बुजुर्गों और श्वांस और ह्रदय के रोगियों से मिलें जो दीवाली के आगमन से आतंकित रहते हैं।
आज से लगभग 40-50 वर्ष पूर्व छोटे-बड़े शहरों,कस्बों और गावों में लोगों को धूमधड़ाके वाली दीवाली मनाते हुए कभी नहीं देखा जाता था।खुशियाँ मनाने की एक परिपाटी थी।घर जैसे भी थे,लीपे पोते जाते थे।साफ नये कपडे पहने जाते थे।घर के कोने-कोने को प्रकाशित करने और छतों पर दीपमालाएँ सजाने,कंदील लटकाने में प्रतिस्पर्धा की जाती थी।मित्रों,सम्बन्धियों के यहाँ बांस की खपच्चियों से बनी हलकी सी टोकरियों में मिठाइयाँ पहुंचाई जाती थीं।लेकिन आज गत्ते के भारी और सुन्दर तरीके से सजाए डब्बों को मिठाई के भाव तोलने और ग्राहकों को लूटने की मनोवृत्ति बिलकुल छा चुकी है।हर चीज़ में ब्रांड देखा जाता है।मिठाई लाने वाले के प्रेम और आदर के भाव को न देख कर यह जानने की जिज्ञासा ज्यादा होती है कि मिठाई कितनी नामी दुकान की है।मिठाई से भी ज्यादा मेवों का चलन बढ़ गया है।
इस अवसर पर आतिशबाजी का भी शौक लोग खूब पूरा करते हैं और एक दूसरे से बढ़कर पटाखे फोड़ने की होड़ रहती है।सन 1983 में ही विस्फोटक पदार्थों के लिए अधिनियम तय किये गये थे।हर वर्ष की बढ़ती दुर्घटनाओं ने सरकार को यह अधिनियम बनाने के लिए विवश कर दिया था कि हर पटाखे पर उस का उपयोग करने के तरीके लिखे होने चाहिए।पूरी की पूरी सावधानियां भी हर पटाखे के साथ लिखी हुई खरीदार के पास पहुंचनी चाहिए लेकिन रोना तो इस बात का है कि उन लिखित सावधानियों को पढ़ने वाला ही कोई नहीं होता।सावधानियों के कागज़ को बेकार का कागज़ समझ कर फेंक दिया जाता है।इन सावधानियों को बरतने के लिए न तो सरकार या पुलिस कुछ ठोस कदम उठाती है और न ही समाज सेवी संस्थाएं ही।लोगों में भी जागरूकता का इतना ज्यादा अभाव है कि व्यक्तिगत स्तर पर कोई कुछ करता ही नहीं।हम सभी में एक कमी बहुत ज्यादा है कि हमलोग सरकार से,व्यवस्था से बहुत ज्यादा अपेक्षा रखते हैं लेकिन अपने स्तर पर कुछ भी करने से बचते हैं।यदि एक-एक नागरिक अपना छोटा-सा भी कर्तव्य निभाता तो आज इस हालत में हमारा पर्यावरण न पहुँचता।
इन सब परेशानियों से बचने के लिए हमें कोई बहुत बड़े प्रयास नहीं करने होंगे बल्कि छोटी-छोटी सावधानियों से ही इस बड़ी समस्या को काफी हद तक दूर किया जा सकता है।सबसे बड़ी सावधानी यही है कि इन खतरनाक चीज़ों को घर में लाया ही न जाए।बच्चों के लिए खास तौर पर अंकुश रखा जाए।प्यार से समझाने का मतलब यह नहीं कि उन्हें प्यार से वंचित किया जा रहा है।आग से खेलने का आनंद बच्चों के ह्रदय में इतने जोर से उमड़ता है कि वे उस पर नियंत्रण नहीं रख पाते।आश्चर्य तब होता है जब बड़े और अभिभावक भी खतरों की परवाह किये बिना स्वयं उस में शामिल हो जाते हैं।हाथ में पकड़ कर बमों को पहले दियासलाई दिखाना,फिर फूटने से पहले उसे दूर फेंकना बिलकुल एक खिलवाड़ समझा जाता है।खतरों से सावधान रहने की तरफ कोई सोचता ही नहीं,आँख तब खुलती है जब अपने साथ ही कोई दुर्घटना हो जाती है।
कुछ वर्ष पहले मैंने समाचार पत्र में पढ़ा था कि कुछ लोग एक छत पर खड़े होकर आतिशबाजी का तमाशा देख रहे थे।नीचे से किसी ने बड़ा वाला बम आसमान में फेंका।वह खोल समेत छत पर खड़े एक व्यक्ति के सर पर जा कर लगा और वहीँ उस के सर के टुकड़े-टुकड़े हो गये।ऐसी घटनाओं का कोई अंत नहीं है।इसके बावजूद कोई भी आग के इन खेलों से परहेज नहीं करता।इसका कारण शायद एक यह भी है कि हमारे देश में कोई सख्त कानून नहीं है।
आतिशबाजी विदेशों में भी अलग-अलग समारोहों पर उपयोग में लाई जाती है,मगर उनके लिए सख्त कानून बनाए गये हैं और उनका पालन भी सख्ती के साथ ही किया जाता है।इंग्लैंड ने आतिशबाजी के सम्बन्ध में वर्षों पहले ही अधिनियम बना कर जनता पर लागू कर दिए थे।18 वर्ष से कम उम्र वाले नागरिकों को न तो पटाखे खरीदने की अनुमति है और न ही खेलने की।खरीदने वालों को पहले प्रशिक्षण लेना पड़ता है कि इनका उपयोग कैसे करें?
अमरीका में सन 1900 से लेकर 1930 तक आतिशबाजी के खेल से जितनी ज़िंदगियाँ ख़त्म हुई थीं,उनकी संख्या उन जिंदगियों से ज्यादा थी जो आज़ादी की लड़ाई में काम आईं थीं।इसलिए अब उनके भी कई प्रदेशों में आतिशबाजी पर पूरा प्रतिबन्ध लगा हुआ है परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि आतिशबाजी बनाने वाले कारखाने बंद कर दिए गये हैं।वास्तव में रोकथाम करने से सिर्फ इतना फर्क पड़ा है कि अब वही लोग यह खेल तमाशा कर सकते हैं जो प्रशिक्षण पाए हुए हैं।
हमें अब तो ज़रूरत है कि हम कुछ चेतें और अमरीका जैसे देशों से कुछ सीखने का प्रयास करें।अमरीका में 4 जुलाई को स्वाधीनता दिवस पर बड़े नगरों में खूब आतिशबाजी की जाती है,पर जहाँ इसका आयोजन किया जाता है वहां पर अग्निशमन गाड़ियाँ तैनात रहती हैं।ज़्यादातर लकड़ी के मकान होने के कारण घनी बस्तियों वाले क्षेत्र में या सड़कों पर आतिशबाजी बिलकुल नहीं खेली जा सकती।जिन संस्थाओं या व्यक्तियों को आतिशबाजी के लिए अनुमति दी जाती है,उन्हें यह लिखकर देना पड़ता है कि अगर आग लग गई या और किसी को कोई नुकसान हो गया तो उस का पूरा मुआवजा देना पड़ेगा।
कनाडा में भी एक्सप्लोसिव एक्ट पास हुए बहुत वर्ष गुजर गये।वहां भी प्रशिक्षण प्राप्त 18 वर्ष से ऊपर वाले नागरिकों को ही आतिशबाजी खरीदने और खेलने की अनुमति है।यही नियम डेनमार्क,स्वीडन,नार्वे,पश्चिम जर्मनी और स्पेन में भी लागू हैं।इटली में बिलकुल ही सुरक्षित आतिशबाजी के लिए 18 वर्ष से ऊपर की उम्र वालों को इजाज़त दी जाती है।जापान में बिलकुल ही हलके बारूद वाले पटाखे आतिशबाजी के खेलों में शामिल किये गये हैं वह भी गर्मियों के एकमात्र त्यौहार पर और उस को खेलने वाले लोग विशेषज्ञ हो सकते हैं।
क्या हमारे देश में प्रजातंत्र इस तरह का प्रतिबन्ध लगाने में अड़चन पैदा करता है?कानून होते हुए भी उसकी धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं जैसे न्यायालय या सरकार का इसमें कोई व्यक्तिगत स्वार्थ हो।हम यह क्यों नहीं समझ पाते कि हमें ऐसा करने से इसलिए रोका जा रहा है कि इससे हम और हमारा परिवार सुरक्षित रहे और पर्यावरण प्रदूषण जो कि सबके लिए घातक है उससे बचा जा सके।क्या हमारे यहाँ 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों का जीवन मूल्यवान नहीं है?क्या हम इस तरह के खेल किन्हीं मैदानों में मिलजुलकर नहीं खेल सकते,जहाँ पुलिस और अग्निशमन गाड़ियाँ दुर्घटनाओं से जूझने के लिए तैयार खड़ी हों?मुझे पिछले वर्ष 2018 की दीवाली भूली नहीं है।जब सुप्रीम कोर्ट ने भीषण पर्यावरण संकट को देखते हुए दीपावली पर पटाखों की बिक्री और उन्हें चलाने को लेकर स्पष्ट गाइडलाइन जारी की थी परन्तु न तो उसके हिसाब से पटाखों की बिक्री हुई और न ही तय समय सीमा तक उनका उपयोग हुआ।सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि रात दस बजे के बाद पटाखे छुड़ाने की किसी को भी अनुमति नहीं होगी परन्तु पूरे देश में कोई भी ऐसा स्थान नहीं होगा जहाँ इन आदेशों का पालन किया गया हो।देर रात तक पटाखों का शोर मचता रहा और उसके बाद पर्यावरण का जो हाल हुआ वह किसी से भी छुपा हुआ नहीं है।अस्पतालों में इतने ज्यादा मरीज हर शहर में भर्ती किये गये जिन्हें श्वास और अस्थमा के अटैक आ गये थे।
यह कोई पहली बार नहीं है जब जाने-अनजाने में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों या उसके फैसलों की अनदेखी की गई हो।अब मेरी तो ईश्वर से यही प्रार्थना है कि इस बार की दीवाली हम बिलकुल अलग तरीके से मनाएं जिसमें अपनी,अपने परिवार की,दोस्तों की और सबसे बड़ी देश की सेहत का ध्यान रखें।जिस तरह से हमारे देश में कोर्ट के आदेशों की भी अनदेखी की जाती है तो ऐसे में मेरा प्रशासन से भी आग्रह होगा कि इन आदेशों और फैसलों का कड़ाई से पालन कराया जाए।चाहे फिर इसके लिए कठोर सजा भी क्यों न देनी पड़े?क्योंकि जो लोग इस त्यौहार के आस-पास दो सुकून की साँस भी नहीं ले पाते उन मरीजों के दर्द को महसूस करते हुए मुझे तो यही लगता है कि जो लोग भी इस तरह से पर्यावरण के खिलाफ कृत्य करते हैं उन्हें सजा तो मिलनी ही चाहिए जिससे सभी लोग मिलजुल कर हर्ष और आनंद से प्रकाश पर्व को मना सकें।
त्यौहार के माध्यम से मानव मात्र को झकझोरने वाला लेख।कर्ण भेदी पटाख़ों का शोर बेज़ुबानों के लिए भी कष्टदायक है।दूसरों की ज़िन्दगियों को रोशन करने के साथ ही समाज और देश में हम बदलाव ला पाएंगे।सभी को दीपावली की शुभकामनाएं।हफीज़ बनारसी के शब्दों में….
सभी के दीप सुन्दर हैं
हमारे क्या तुम्हारे क्या।
उजाला हर तरफ़ है
इस किनारे उस किनारे क्या।।
मेरी तो यही कहना है, दिवाली मानने के लिए हम लोग पटाखें खरीदने में जितना पैसा खर्च करते हैं, अगर उतना पैसा हम किसी ज़रूरत मंद को दें, तो उसके घर में भी उजाला हो जाएगा. वो भी दिवाली मना पायेगा. एक बार ऐसा करके तो देखिये दिवाली का असली मतलब समझ आएगा कि दिवाली पटाखे जलाने का नहीं, बल्कि खुशियां बांटने और दूसरों के घरों में रौशनी करने का त्यौहार है…..धन्यवाद!!
सटीक और यथार्थ परक प्रस्तुति। 💯 प्रतिशत सहमत हैं इस विश्लेषण से, त्योहार का मक़सद खुशीयाँँ हैं ना कि भय। प्रदूषण में जीना हराम हो जाता है। बाकी आपने बयां कर ही दिया है। काश इस दिशा में लोग दिखावा को त्याग जागरूक हो तो उत्सव के सही मायने है।