हम सभी वर्षों से यह सुनते आये हैं कि आधा गिलास पानी से भरा या आधा खाली।बात नज़रिए की है।एक बात मुझे बहुत चुभन देती है और वह यह कि वैसे तो हम सभी कभी न कभी अपने जीवन में निराशा और दुःख के दौर से गुजरते हैं और यह दौर कभी लम्बा होता है और कभी-कभी बहुत कम समय में हम इससे उबर जाते हैं और यही जीवन का यथार्थ रूप है जो हम सभी को स्वीकार करना होता है लेकिन समस्या तब आती है जब कुछ लोग इसी दुःख के साथ जीने को ही अपना सब कुछ मान लेते हैं।उन्हें ऐसा लगता है कि उनके जैसा दुखी तो इस पूरे संसार में कोई है ही नहीं।आपको भी बहुत से लोग यह कहते हुए मिल जाएँगे कि ‘हमारी तो किस्मत ही ऐसी है कि हमें कोई यश नहीं’ या ‘हमारी किस्मत में तो सिर्फ दुःख ही लिखे हैं।’ जबकि मैंने देखा है कि ऐसा कहने वाले अधिकतर लोगों के जीवन में जो भी दुःख या परेशानियाँ होतीं हैं वह इतनी अधिक नहीं होतीं जितना वे सोच-सोचकर व्यथित रहते हैं और अपने जीवन को दुःख और निराशा के बादलों से ढंककर रखते हैं।ऐसे लोगों को उन लोगों के जीवन को देखना चाहिए जिन्होंने एकदम विपरीत परिस्थितियों में रहकर भी अपने जीवन को संवारा और कभी किसी को अपने आंसू नहीं देखने दिए।कहते हैं कि काया का दुःख सबसे ज्यादा कष्ट देता है क्योंकि और दुखों में तो कोई फिर भी कुछ क्षण उनको भूलकर भी काट सकता है परन्तु शरीर में यदि कोई बीमारी है या विकलांगता है तो उसके साथ जीना और एक अच्छा तथा सफल जीवन जीना बहुत बड़ी बात है लेकिन ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्होंने अत्यधिक शारीरिक कष्टों के होते हुए भी अपने जीवन में कई बड़े मुकाम हासिल किये और अपनी विकलांगता को दिव्यांगता में बदल डाला।
याद रखिये हमेशा अपने दुखों में ही जीना एक अपराध है।‘स्वदया’ (self pity) से बढ़कर कोई अभिशाप नहीं है।बाइबिल में भी ऐसा ही कहा गया है।बीसवीं शताब्दी के प्रसिद्ध ईसाई दीक्षा गुरु (Baptist) Oswald Chambers ने कहा है-
“No sin is worse than the sin of self-pity,because it removes God from the throne of our lives.”
इसी प्रकार श्रीमद्भागवद्गीता जो कि ज्ञान का अथाह सागर है और विश्व साहित्य में जिसे सर्वोच्च स्थान प्राप्त है,उसमें भी दुःख-शोक,विषाद और करुणा से निवृत्त होने का मार्ग दिखाया गया है।महात्मा गाँधी कहा करते थे कि जब मुझे कोई परेशानी घेर लेती है तो मैं गीता के पन्नों को पलटता हूँ।जैसा कि सभी जानते हैं कि श्रीमद्भागवद्गीता में कर्म की महत्ता पर विशेष बल दिया गया है।गीता में निराशा के भंवर में फंसे संसार को सफलता और असफलता के प्रति समान भाव रखकर कार्य करने की प्रेरणा दी गई है।यही श्रीकृष्ण का कर्मयोग है और यह हमें सिखाता है कि बिना फल की इच्छा रखे हम अपना कर्म करते रहें और जो भी व्यक्ति कर्म में लिप्त रहता है उसे दुःख तो छू भी नहीं सकेगा।हमारे पास तो लाखों उदाहरण भरे पड़े हैं।संत कवि रैदास अपने कर्म (जूते बनाने) में ही असली आनंद प्राप्त करते थे।वास्तव में यदि हम किसी भी काम को पूरी लगन और मेहनत से करें तो कोई शक ही नहीं कि हम खुश न रहें।लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि यदि हम भार स्वरुप और सिर्फ ज़िम्मेदारी समझकर ही किसी काम को करेंगे तो हमें आत्मिक सुख मिल ही नहीं सकता।आज के समय में अत्यधिक दुःख का कारण ही यही है कि लोग बोझ समझ कर अपने काम कर रहे हैं और उसमें भी एक दूसरे से प्रतियोगिता रहती है कि किसने क्या किया?जबकि मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह है कि किसी भी काम को यदि हम पूजा समझ कर या ईश्वर की कृपा समझ कर बिना उसका फल सोचे पूरी ईमानदारी के साथ करें तो यकीन मानिये कि वही काम हमें इतना आनंद देगा कि किसी और मनोरंजन की हमें ज़रूरत ही नहीं होगी।मुझे पता है कि इन सभी बातों का अनुभव कभी न कभी मेरे पाठकों ने अवश्य किया होगा।उनके पास भी ऐसे बहुत से उदाहरण होंगे।मेरे पास भी इस सम्बन्ध में बहुत सारे लोगों के उदाहरण हैं जिन्हें मैं आपके साथ साझा करना चाहती हूँ लेकिन आज इस विषय पर सोचते हुए मैंने एक कविता लिख डाली जो कि मेरे नियमित पाठक जानते हैं और मैं कई बार इस बात को आपके साथ साझा भी कर चुकी हूँ कि कविता मैं कम ही लिखती हूँ और गद्य-लेखन में ही अधिक सहज रहती हूँ लेकिन कभी-कभी कोई ऐसा विषय आ जाता है जिसमें अनायास ही कुछ पंक्तियाँ बन जाती हैं।ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है और मैंने अपनी कविताएँ आपके साथ साझा की हैं तो आज मैं अपनी वही कविता दे रही हूँ और इस विषय (स्वदया self-pity) पर मैं फिर कभी अपने आगे के लेखों में आपके साथ अवश्य अपने कुछ विचार और अनुभव साझा करुँगी।
स्वदया
जो भी मेरे नज़दीक आया,मेरी आँखों की कोरों में कितनी नमी है?
यह न देख पाया।
हर दिल का दुःख मेरे सीने ने अपनाया,
हर एक को मैंने धीरज बंधाया,
तो सभी ने यह समझा कि मैं कितनी खुश इन्सान हूँ,
जो कभी भी रोती या उदास नहीं होती
जिसे ईश्वर प्रदत्त सब खुशियाँ हासिल हैं,
परन्तु कोई भी यह कब जान पाया?
कि मेरे भी दिल के कितने अरमान कुचले हैं
हर पल मैं दुःख के बादलों में चलती हूँ
लेकिन विडंबना यह है कि
मैं स्वदया पर नहीं जीती हूँ।
स्वयं पर तरस खाना मुझे अपराध लगता है
तभी तो मेरे दिल में समाया दुःख
किसी को भी नहीं दिखता है।
परन्तु संतुष्ट और खुश रह लेने की भी एक आदत ,होती है,
जो स्वयं ही विकसित होती है
फिर इस भाव में जीने का जो आनंद मिलता है
उसमें जीना किसी भाग्यशाली को ही नसीब होता है ।