5 जून को पूरे विश्व में पर्यावरण दिवस मनाया जाता है।यह दिवस पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण के लिए ही मनाया जाता है।इसे मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र ने पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने हेतु वर्ष 1972 में की थी।प्रथम विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून 1974 को मनाया गया।जैसा की मैंने लिखा कि यह दिन पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण के लिए मनाया जाता है तो मेरा चुभता प्रश्न यह है कि हम पर्यावरण के संरक्षण के लिए कितने जागरूक हैं क्या सिर्फ एक दिन इसे मनाकर और अखबारों तथा मीडिया में समाचार डलवा लेने भर से हमारे कर्तव्य की इतिश्री हो जाएगी तो निश्चित ही सभी का जवाब होगा नहीं क्योंकि विडम्बना यह है कि हमलोग अपने अधिकारों के प्रति तो आवश्यकता से अधिक जागरूक हैं लेकिन कर्तव्यों के प्रति हमारी जागरूकता बहुत ही कम है और कहीं.कहीं तो है ही नहीं।यद्यपि आज विश्व पर्यावरण दिवस है लेकिन मैं आज के दिन अपने देश की ही बात करना चाहूंगी उस अपने भारत देश की जहां के मनीषियों ने हजारों वर्ष पूर्व मानव जीवन के कल्याणार्थ पर्यावरण का महत्व और उसकी रक्षा, प्रकृति से सान्निध्य, संवेदनशीलता, रोगों के उपचार तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी अनेक उपयोगी तत्व निकाले थे। वेदकालीन समाज में न केवल प्रकृति के सभी पहलुओं पर चौकन्नी दृष्टि थी वरन् उसकी रक्षा और महत्व को भी स्पष्ट किया गया है। प्रकृति की रक्षा पूजा का एक अविभाज्य अंग था, जैसा कि कहा भी गया है –
यस्य भूमिः प्रमाऽन्तरिक्षमुतोदरम्।
दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः।।
अर्थात् भूमि जिसकी पादस्थानीय और अन्तरिक्ष उदर के समान है तथा द्युलोक जिसका मस्तक है, उन सबसे बड़े ब्रह्म को नमस्कार है।
यहां परब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार कर प्रकृति के अनुसार चलने का निर्देश किया गया है। वेदों के अनुसार प्रकृति एवं पुरुष का सम्बन्ध एक-दूसरे पर आधारित है –
माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।
ऋग्वेद में वर्षा ऋतु को उत्सव मानकर शस्यश्यामला प्रकृति के साथ अपनी हार्दिक प्रसन्नता की अभिव्यक्ति की गयी है।
वृष्टि-विज्ञान वेद का प्रमुख विज्ञान है। इसके द्वारा “निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतुः” । जब-जब हम चाहे तब वर्षा हो जब न चाहें तब वर्षा न हो- इस प्रकार का वर्षा पर नियन्त्रण करके पृथ्वी को धन-धान्य से पूर्ण, सुखी कर सकते हैं और अतिवृष्टि से होने वाली बाढ़ आदि की धन एवं जनहानि से बचा सकते हैं और असमय की वृष्टि के निवारण द्वारा कृषि को हानि कार्य से भी मुक्त कर सकते हैं। वैदिक वृष्टि-विज्ञान इस कार्य में बहु परीक्षित, प्राचीन काल से अब तक व्यवहार सिद्ध है। मेघों के न होने पर भी यज्ञ द्वारा मेघों का निर्माण भी होता है और मेघ होने पर उनको बरसाया भी जा सकता है। वर्तमान विज्ञान अभी इस विषय में बहुत पीछे है। वह मेघों के होने पर उन्हें बरसाने की क्रियामात्र कर सकता है।अभी पिछले वर्ष हमने देखा कि महाराष्ट्र में सूखे की स्थिति उत्पन्न होने पर कृत्रिम बारिश कराई गई थी।
प्रकृति के अनुकूल-प्रतिकूल ये दोनों रूप मानव तथा उससे सम्बद्ध परिपूर्ण परिवेश को सदैव प्रभावित करते रहे हैं। यही नहीं मनुष्य ने भी जीवन निर्वाह की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अपनी विकास-यात्रा के सन्दर्भ में प्रकृति को प्रभावित किया है।
ईसा की बीसवीं शताब्दी के अन्तिम लगभग तीन-चार दशकों से पर्यावरण असन्तुलन की विकराल भयावहता को देखकर विश्व-स्तर पर चिन्ता व्याप्त रही है। जनसंख्या विस्फोट तथा औद्योगिक प्रगति ने प्राकृतिक-संसाधनों के सर्वथा दोहन एवं शोषण द्वारा तीव्र गति से सम्पूर्ण परिवेश को इस सीमा तक प्रदूषित कर डाला है कि मानव-जाति का ही नहीं, अपितु पशु-पक्षी जगत् तथा वनस्पति संसार का अस्तित्व ही समाप्तप्राय होता जा रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्रसंघ तथा उससे सम्बद्ध अनेकों संस्थाएं इस जटिल समस्या का अध्ययन और समाधान करने में सन्नद्ध हैं। राष्ट्रीय स्तर पर भी चिपको-आन्दोलन, भीनासार आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन तथा अन्यान्य गैर सरकारी संगठन तथा संस्थाएं इस दिशा में सचेष्ट तथा सक्रिय हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम पुनः उन वैदिक प्राचीन एवं सर्वथा वैज्ञानिक पद्धतियों की ओर देखें तथा अपनी प्राकृतिक सम्पदा को बचाने का प्रयास करें।
समस्त प्रकृति एवं मानव जीवन के परस्पर सामंजस्य का प्राचीन भारत के ऋषियों-मुनियों द्वारा विरचित वेदों, पुराणों, उपनिषदों तथा अनेक धार्मिक-ग्रन्थों में चित्रण किया गया है। वैदिक ऋषियों ने प्राकृतिक शुद्धता को जीवों के लिए अनिवार्य माना है। उन्होंने प्रकृति के छोटे से छोटे तथा बड़े से बड़े महिमा विवर्तों के सम्मुख स्वयं को सर्वात्मना उपासक के रूप में समर्पित किया।
जल (आपः), वायु(वातः) एवं औषधि (पेड़ पौधे) इन तीनों ने इस विश्व को (त्रीणि छन्दांसि) आवृत्त कर रखा है। ‘छन्दांसि’ शब्द का अर्थ है -परिधि। प्रकृति के प्रत्येक कण में अन्तर्धि (आन्तरिक शक्ति) और परिधि (बाह्य शक्ति) होती है। अन्तर्धि इसे गति और ऊर्जा देती है और परिधि इसकी रक्षा करती है।
इस परिधि (बाह्य-शक्ति) का उद्देश्य जीवन की रक्षा से है। वन्य-जीव वनों को बनाये रखते है; वन जलों को आकर्षित कर पृथ्वी पर बरसाते हैं एवं वायु को शुद्ध करते हैं। इस प्रकार इस परिधि के बने रहने से (पारिस्थितिकी सन्तुलन व वातावरण की शुद्धता बने रहने से) जीव जीवित रहते हैं।
इस परिधि में पृथ्वी अन्तरिक्ष, द्यौः जल, अग्नि आदि देव, दिशायें, पर्वत, मेघ, वन, वृक्ष, औषधि वनस्पति, पशु आदि पदार्थ में परमात्मा का प्रमुख स्थान है, जिससे सभी जीवों की सुरक्षा होती है। अर्थववेद में जल, वायु और औषधियों को छन्दस् आच्छादक बताया गया है।
मानव के लिए कृषि अत्यन्त आवश्यक है। भूमि की अनादिसिद्धि उर्वराशक्ति का संरक्षण कृषिकार्य ही सम्पादित कर सकता है। भारतवर्ष कृषि प्रधान राष्ट्र है, क्योंकि यहाँ की प्राकृतिक स्थिति इसके लिए सर्वथा उपयुक्त है। वैदिक कृषिसूक्त अथर्ववेद तृतीय काण्ड के सत्तरहवें क्रम में वर्णित है, जिसमें विश्वामित्र ऋषि ने कृषि को प्राणीजगत्- मनुष्य, पशु-पक्षी आदि सभी के लिए सौभाग्यवर्द्धक तथा सर्वदा कल्याणकारक कर्म बताया है। प्राणरक्षक अन्न की उत्पत्ति कृषि से ही होती है।
कृषि कार्य में गोवंश (पशुवर्ग) का अनिवार्य सहयोग अपेक्षित होता है, अतः वेद में ‘गो-सूक्त’ तथा ‘गोष्ठसूक्त’ के माध्यम से यह बताया गया है कि गायें हमारी भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति का प्रधान साधन हैं। आस्तिक मनुष्य को धन, बल, अन्न और यश गौ तथा गोवंश से ही प्राप्त है। घर की शोभा, पारिवारिक आरोग्यता तथा पराक्रम के लिए प्राणपण से इन मूक प्राणियों का सर्वथा संरक्षण करे, जिससे सामाजिक-आर्थिक उन्नति के साथ पर्यावरण संरक्षित रह सके।
धर्मशास्त्र में कहा गया है कि – गाय के गोबर में श्री लक्ष्मीजी का वास होता है जो कि पवित्रता और सर्वत्र मांगलिकता प्रदान करता है –
‘‘गोमये वसते लक्ष्मीः पवित्रा सर्वमंगला।’’
आधुनिक वैज्ञानिक भी वैदिक आर्यों की इस सनातन अवधारणा को प्रामाणिक रूप से स्वीकार करते हैं कि गाय तथा गोवंश के गोबर में वे बहमूल्य तत्त्व सन्निहित हैं जो रोगोत्पादक- प्रदूषक-कृमि-कीटों के विनाश में परमोपयोगी है। गोमय-लेपन भारतीय संस्कृति की पवित्रता का सूचक है। सम्प्रति कृषि-कार्य में उपयोग किया जाने वाला कृत्रिम-रासायनिक खाद धरती एवं पर्यावरण के लिए घातक सिद्ध हो रहा है, भूमि की उपजाऊ शक्ति क्षीणप्राय हो रही है धरती बंजर होती जा रही है। पानी की खपत अधिक मात्रा में सिंचाई के रूप में बढ़ती जा रही है। रासायनिक घटकों के प्रयोग से निर्मित, विषयुक्त होने से पानी के संसर्ग से तरल होकर पशु-पक्षियों आदि द्वारा पी लेने से लाखों जीवों का मरण प्रतिदिन होता है। गोवंश का गोबर इन सबका सरल-सहज पर्यावरणीय संरक्षण का समाधान है परंतु चुभन इस बात की है कि हम गोवंश की रक्षा के लिए कितने जागरूक हैंघ्पालिथीन खाने से कितनी गाय अपना जीवन खो दे रहीं हैं लेकिन फिर भी हम अपनी सुविधा के लिए पालिथीन का मोह त्याग नही पा रहे हैं और प्रयोग करने की बात तो एक तरफ रही हम उन्हें सड़कों पर भी ऐसे ही फेक देते हैं कि कोई भी जानवर उन्हे खा ले।जैसा कि हमने देखा कि हमारे तो वेद पुराण और ग्रंथ ही इन संदेशों से भरे पड़े हैं और पर्यावरण के संरक्षण का भंडार ही हैं फिर भी हमारा देश 2018 के पर्यावरण निष्पादन सूचकांक के निचले पाँच देशों में से एक है।यह द्विवार्षिक रिपोर्ट विश्व आर्थिक मंच के सहयोग से येल और कोलम्बिया विश्वविद्यालय द्वारा तैयार की गई है।
ऋग्वेद और अथर्ववेद में पृथिवी की रक्षा के लिए ‘महद् उल्बम्’ इस वैदिक पद का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ ‘ओजोन परत’ के रूप में संसूचित होता है जिस प्रकार से गर्भस्थ शिशु की रक्षा के लिए ‘उल्ब’ (जार-जेर-झिल्ली-परत) होती है। उसी प्रकार पृथ्वी रूपी शिशु को सर्वथा रक्षा के लिए परमात्मा ने इस महद् उल्ब (ओजोन परत) की रचना की है जो स्थविर-स्थूल रूप वाला है। इसका स्वरूप सुवर्ण के समान दिव्य आभामय है। सम्प्रति वैज्ञानिक इसके रहस्य, ज्ञान और संरक्षण में शोधरत है जबकि वैदिक, विवेकी ऋषियों ने अरबों वर्ष पूर्व अपनी तपः साधना के प्रभाव से इस तथ्य का अभिज्ञान कर लिया था।
आज मानव अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर वृक्षों, वनों आदि को तेजी से काट रहा है। यजुर्वेद के एक मन्त्र में ‘मापो औषधीर्हि सीः’ कहकर वृक्षों की हिंसा अथवा उनके काटने का निषेध किया गया है। ऋग्वेद के एक सम्पूर्ण सूक्त में वन की देवी ‘अरण्यानी’ का वर्णन है, जहां उसे बहुत अन्नों वाली सबसे महान तथा समस्त वन्य जन्तुओं की माता कहा गया है।
अथर्ववेद में पीपल को ‘देवानाम सदनमसि; कहकर उसमें देवों का वास बताया गया है। सम्भवतः यही कारण है कि लोक में पीपल की पूजा की जाती है। जंगल-जलेबी के वृक्ष में तेजाबी वर्षा से मुक्ति दिलाने की क्षमता है, क्योंकि यह वृक्ष वर्षा के मुख्य घटक सल्फर डाई आॅक्साइड की सान्द्रता को अस्सी प्रतिशत तक सोख लेता है। इसी प्रकार चीड़ का पेड़ मिट्टी से ‘वैरीलिय’ धातु को तथा सेम व मटर के पौधे भूमि से ‘मालिब्डिनम’ जैसी भारी धातुओं को प्रदूषण से भूमि को मुक्त करते हैं। इस प्रकार वन-सम्पदा से जहां हमें फलों, लकड़ियों तथा औषधियों की प्राप्ति होती है तो वहीं वन पर्यावरण का भी सशक्त एवं अपरिहार्य साधन है। वेदों में इसी दृष्टि से ‘वनानां पतये नमः’ तथा ‘नमो वृक्षेभ्यः’ इत्यादि कहकर उनके रक्षकों को आदर दिया गया है।
इस प्रकार वैदिक सभ्यता में वनों का अत्यन्त महत्व है। मानव जीवन का प्रथम भाग ब्रह्मचर्य है। उस अवस्था में अध्ययन करना आवश्यक है। अध्ययन के लिए ये ब्रह्मचर्याश्रम, गुरुकुल आदि जंगलों में ही होते थे। गृहस्थाश्रम में मानव को कृषि, जंगलों के कार्य, व्यवसाय, रक्षा आदि के लिए भी जंगलों का आश्रय लेना पड़ता है और उनमें जीवन व्यतीत करना पड़ता है। तृतीय आश्रम वानप्रस्थ स्वयं अपने नाम से ही वन की आवश्यकता को प्रकट कर रहा है जिसमें साधना करने के लिए वनों का ही आश्रय लेना पड़ता है। चैथा आश्रम सन्यास भी ऐसा ही है कि इसमें जो गिरि, पर्वत, आरण्य आदि सन्यासी होते हैं वे भी वनों का ही आश्रय लेते हैं।
ऋग्वेद में ही बताया गया है कि शुद्ध वायु कितनी अमूल्य है? वह जीवित प्राणियों के लिए औषधि का काम करती हैं। शुद्ध ताजी वायु तपेदिक जैसे घातक रोगों के लिए अमोघ औषधि है।
सहस्रों वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों को यह ज्ञान था कि हवा कई प्रकार के गैसों का सम्मिश्रण है, जिनके अलग-अलग गुण एवं अवगुण हैं। इनमें ही प्राण वायु (आॅक्सीजन) भी है जो जीवन के लिए आवश्यक है।
जल जीवित प्राणियों के लिए अत्यन्त आवश्यक है। कहा भी गया है कि जल ही जीवन है। जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जल को कई प्रकार के काम में लिया जाता है। ऋग्वेद में जल के लिए प्रार्थना की गई है।
जल मानव जीवन का अभिन्न अंग है। जल जीवित प्राणियों के लिए औषधि के समान है। जल से ही प्राणी की आन्तरिक तथा बाह्य शुद्धि होती है।
कृषि-कर्म में सन्नद्ध कृषक के लिए तो जल ही सर्वस्व है। वैदिक साहित्य के भूगोल वर्णन में नदियों का वर्णन होता है।
आधुनिक समय में औद्योगिकरण के परिणामस्वरूप कल-कारखानों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि, कारखानों से उत्पन्न अपशिष्ट पदार्थ कूड़ा करकट, रासायनिक अपशिष्ट आदि नदियों में मिलते रहते हैं। अधिकांश कल कारखाने-नदियों झीलों तथा तालाबों के निकट होेते है, जनसड्.ख्या वृद्धि के कारण मल-मूत्र नदियों में बहा दिया जाता है। गाँवों तथा नगरों का गन्दा पानी प्रायः एक बड़े नाले के रूप में नदियों-तालाबों और कुओं में अन्दर ही अन्दर आ मिलता है। समुद्र में परमाणु विस्फोट से भी जल प्रदूषित होता है। वेदों में जल को शुद्व रखने पर विस्तार से विचार किया गया है। मकान के पास ही शुद्व जल से भरा हुआ जलाशय होना चाहिए।
वैदिक ऋषि इस तथ्य से परिचित थे कि यदि प्राकृतिक सन्तुलन को बनाए रखना है तो पशु, अश्व और मनुष्य तीनों को परस्पर मिल जुलकर चलना पड़ेगा, जिससे धान्य की समृद्वि भी बढ़ेगी।
ऋग्वेद में पर्वतों की रक्षा की प्रार्थना की गई है। उनपर लगे वृक्ष प्रकृति को शुद्व करने वाले है, इसलिए उनसे सुरक्षा की प्रार्थना की गई है।
सूर्य भी एक ऐसा प्राकृतिक कारक है जो मानव जीवन का अभिन्न अंग है। शरीर के असाध्य रोगों से मुक्ति दिलाने में सूर्य अपूर्व शक्ति रखता है। सूर्य प्राणिमात्र को सत्कर्म में प्रेरित करता है तथा पापों से बचाता है। सूर्य प्रकृति में प्रदूषण को भी दूर करता है।
मानव ने बाह्य प्रकृति पर तो विजय प्राप्त कर ली है परन्तु आन्तरिक प्रकृति को वश में नहीं कर सका, इसलिए विकृत स्वभाव के कारण बुद्विमान होता हुआ भी वह पाशविक कार्यो में लिप्त रहता है। वेद में मानव की अन्तः प्रकृति को सुधारने के लिए, उसके आत्मिक बल के लिए बहुत उदात्त आचार शास्त्र का संकलन है। वेद में विशुद्व मानववाद का दिव्य सन्देश है जो आज के सन्दर्भ में मानव मात्र के लिए बहुत उपयोगी है। वेद मानव मात्र को अमृत पुत्र घोषित करता है। उसका उद्घोष है कि सब मनुष्य भाई हैं इनमें कोई जन्म से बड़ा नहीं है, कोई छोटा नहीं है – इस समानता के भाव को धारण करते हुए सब ऐश्वर्य या उन्नति के लिए मिलकर प्रयत्न करें –
अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते संभ्रातरो वावृधुः सौभगाय’’
मानव आन्तरिक प्रकृति को यादि वश में करना चाहता है तो उससे तात्पर्य मन से है। यदि मन शुद्व पवित्र सत्य से युक्त और वश में है तो दुःख की जगह सुख उत्पन्न होता है। प्रकृति का दोहन भी यही मन करता है। मन के दूषित भावों के तरंगों से मानसिक रोग उत्पन्न होते है। इसलिए सर्वप्रथम मानव को अपनी प्रकृति (स्वभाव) बदलना है। यजुर्वेद के चौंतीसवें अध्याय के प्रारम्भिक छः मन्त्रों में मन को ‘तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु’ अर्थात् मेरा मन शिव अर्थात् कल्याणकारी संकल्प वाला हो, इस टेक के द्वारा परमात्मा से याचना की गई है।
आज जब मनुष्य धर्म, जाति, ऊँच-नीच, देशकाल की सीमाओं में और अधिक बँटता जा रहा है तो वेदों का उद्घोष सर्वथा सार्थक है।अथर्ववेद में गौओं, जगत् के अन्य प्राणियों एवं मनुष्य मात्र के कल्याण की कामना की गई है।
पंचभूतों एवं वनस्पतियों, पर्वतों इत्यादि के महत्व का मुक्तकण्ठ से गानकर वेदों ने प्रकृति से जुड़े इन घटकों का महत्व भली-भांति समझा है और इन्हें संरक्षित करने के उपायों को भी बतलाया है। आज आवश्यकता है कि इसी भाव को जन-चेतना में विकसित किया जाये तो एक ऐसा समय आएगा कि प्रगतिवाद के इस युग में भौतिक एवं औद्योगिक विकास के साथ ही मानव अधिक स्वस्थ रह सकेगा। वह प्रकृति के अधिक समीप रहकर मानसिक रूप से भी अधिक सबल होगा। आज मानवमात्र के आत्यन्तिक दुःख का कारण उसके जीवन की कृत्रिमता है। प्रकृति की नैसर्गिक गोद में रहकर वह अपना जीवन संवार सकता है।
यदि हमारे शरीर के शिर रूपी द्युलोक में ‘द्यौ शान्तिः’- की भावना प्रबल हो जावे और हमारे हृदय रूपी अन्तरिक्ष में ‘अन्तरिक्ष शान्तिः’- का वास हो जाये तो सर्वत्र द्युलोक, अन्तरिक्ष, पृथिवी, जल, वनस्पतियों में शान्ति ही शान्ति दृष्टिगोचर होगी। सब प्राणी शान्त एवं सुखी हो सकेंगे।
मानव जाति के लिए वेद मन्त्रों का एक-एक शब्द दैवी प्रेरणाओं का महान् कोश है। आज के मानव को जबकि प्रतिक्षण, अहर्निश दूसरों के आक्रमण का भय, दसों दिशाओं में से होता रहता है, ऐसे समय में वेद के उपरोक्त आदर्श एवं प्रेरणाप्रद मन्त्र हमारे अन्दर उत्तम विचारों को जागृत कर हमें वास्तविक सुख और शान्ति प्रदान करते हैं।आज हम सभी यहां तक कि पूरा विश्व कोरोना-कोविड 19 महामारी के वायरस से त्रस्त और उससे जूझ रहा है।क्या आज अपने घरों के अंदर बैठे हम सभी लोगों को विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर यह सोचने की ज़रूरत नहीं है कि हमने प्रकृति का,पर्यावरण का कितना दोहन किया है।निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर हम इतने अंधे हो जाते हैं कि यह भी नहीं सोच पाते कि हमारी उन गलतियों, जिन्हें हम अपनी छोटी सी भूल समझते हैं उनके कारण पर्यावरण का कितना विनाश होता है।यही सब छोटी-छोटी सी हमारी गलतियों के आज हमें इतने भारी परिणाम भुगतने पड़ रहे हैं।
मनुष्य का प्रकृति से अटूट सम्बंध है। प्रकृति व पर्यावरण संरक्षण हम सबकी जिम्मेदारी भी है और कर्तव्य भी।