ॐ अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
आज आषाढ़ माह की पूर्णिमा तिथि को गुरु पूर्णिमा के नाम से हम सब मना रहे हैं।इस दिन ‘महाभारत’ जैसे महाकाव्य के रचयिता महर्षि वेदव्यास जी की जयंती भी मनाई जाती है।वेदव्यास संस्कृत के महान ज्ञाता थे।सभी 18 पुराणों का रचयिता भी उनको माना जाता है।वेदों को विभाजित करने का श्रेय भी उन्हीं को दिया जाता है।यही कारण है कि उनका नाम वेदव्यास पड़ा।इसीलिए गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है।शिक्षा के बिना सभ्य और शिक्षित समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती और शिक्षा का यह मार्ग गुरु की कृपा से आगे जाता है।वह गुरु जो अपने ज्ञान और अनुभव से मामूली इन्सान को खास बना देता है।हमारी भारतीय संस्कृति में गुरु -शिष्य सम्बन्ध अन्य देशों से सर्वथा भिन्न रहा है।भारतवर्ष को जगद्गुरु कहा गया है तो यह गुरुतर शब्द ही हमारे देश के साथ जुड़ा हुआ है।उपनिषद शब्द की तो एक व्याख्या यह भी है कि गुरु के समीप बैठकर ज्ञान प्राप्त करना। ईशावास्योपनिषद का प्रथम मन्त्र है …..
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
जिसे अभिव्यक्त किया जाता है वह परब्रह्म स्वयं में पूर्ण है।उस पूर्ण तत्व में से इस पूर्ण विश्व की उत्पत्ति हुई है और उस पूर्ण में से यह पूर्ण निकाल लेने पर भी वह शेष भी पूर्ण ही रहता है तो गुरु भी पूर्ण है और शिष्य भी पूर्ण है।उसे शिक्षा देनी नहीं है क्योंकि “अहम ब्रहास्मि”के आधार पर सभी ब्रह्म हैं लेकिन जो शिष्य पर अन्धकार का आवरण है उसे हटाकर प्रकाश की ओर ले जाना ही गुरु का दायित्व है।उस शिष्य को दीक्षा देनी है।दीक्षा द्वारा दाक्षिण्य या प्रवीणता आती है।उस दक्षता के कारण मनुष्य में श्रद्धाभाव उत्पन्न होता है और श्रद्धा से ही जीवन -लक्ष्य रूप सत्य ब्रह्म की प्राप्ति होती है। “सा विद्या या विमुक्तये”– आत्मिक उन्नति के द्वारा मुक्ति या ब्रह्म की प्राप्ति।विद्या भी दो प्रकार की हुई – कर्ममार्ग विद्या (अविद्या) से जीवन निर्वाह होता है और ज्ञानमार्ग विद्या (विद्या) से मोक्ष की प्राप्ति। तो शिक्षा का उद्देश्य भी ज्ञान और कर्म का समन्वय है।
बात आती है कि विद्या का पात्र व्यक्ति कैसा होना चाहिए – विनम्र, जिज्ञासु और संयत व्यक्ति ही ज्ञानोपदेश का पात्र होता है।इस महत्वपूर्ण ज्ञान के लाभ को ही समझाने के लिए कहा गया है —
विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनाद् धर्म: ततः सुखम्।।
अधिकारी सत्पात्र को विद्या देने से ही विद्या की पुष्टि होती है।जिज्ञासा एक पिपासा है और ज्ञान पुष्टिकारक सुखद अमृतस्वरूप है।पिपासु की पिपासा शान्त होने पर सुख होता है।
ज्ञानरूपी ज्योति गुरु से ही प्राप्त होती है।गुरु उदयकालिक सूर्य के समान आनन्दमय एवं अमृतमय ज्ञानस्रोत का उद्गम स्थान है।गुरु से विद्या या ज्ञान प्राप्ति के तीन साधन शास्त्रों में प्रतिपादित किये गए हैं।वेद के अंग शिक्षा-शास्त्र की भाषा में वे तीनों साधन सेवा,धन और विद्या नाम से प्रतिपादित हैं।उपर्युक्त तीनों साधनों से गुरु के द्वारा विद्या प्राप्त की जाती है।प्राचीनकाल में विद्या गुरुमुख से सुन लेने पर विद्यार्थियों को ही नहीं वरन गुरुकुल में स्थित पक्षियों को भी कण्ठस्थ हो जाती थी।
मैंने बहुत ही संक्षेप में भारतीय परम्परावादी शास्त्रीय दृटिकोण पर दृष्टि डाली है परन्तु आज जब से मैं गुरुपूर्णिमा के अवसर पर कुछ लिखने का सोचकर बैठी तो मुझे अपने जीवन के प्रथम गुरू की बहुत याद आ रही है और आज जो कुछ भी थोड़ा बहुत ज्ञानार्जन मैं कर सकी उसमें उनका बहुत ही योगदान है।जी हां प्रथम गुरु तो निस्संदेह माता-पिता ही जीवन में होते हैं और मैं सर्वप्रथम उन्हें सम्मान के साथ धन्यवाद और प्रणाम कहना चाहूंगी लेकिन उसके बाद मेरा ध्यान सिर्फ एक व्यक्ति पर जाता है श्री कमला कांत मिश्रा सर।वे अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन मैं अपना यह लेख उन्हें ही समर्पित करती हूं।जब मुझे ठीक से अक्षर ज्ञान भी नहीं था और नर्सरी क्लास में मैं रही हूँगी तभी वे मेरी बड़ी बहन को पढ़ाने आते थे।मैं बहन के बगल सर के सामने स्लेट और चाक लेकर बैठ जाती थी और वे बड़े प्यार से मुझे अक्षर ज्ञान कराते जाते थे।मैं शरमा न जाऊं या संकोच न करूं इस कारण वे मेरे बाल मनोविज्ञान को समझते हुए मुझे बिना इस बात का एहसास कराए कि मैं कुछ पढ़ रही हूं, अनजाने में ही सब पढ़ा जाते थे।पढ़ने और लिखने की ललक बचपन से ही किसी ने मेरे मन में डाली तो वो मेरी माँ और मिश्रा सर ही हैं।
एक बात जिसकी टीस मेरे मन से नहीं निकल पाती, वह यह कि इतना ज्ञानी और मेहनती होते हुए भी सर आगे की पढ़ाई अपनी पारिवारिक परिस्थितियों के कारण नहीं कर पाए।उनका सपना था अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. करना।सारी पुस्तकें उनके पास थीं और उनका उन्होंने खूब अध्ययन भी किया था लेकिन पता नहीं कौन सी उनकी उस समय परिस्थितियां थीं जिनके चलते वे कभी भी परीक्षा नहीं दे सके और इसी कारण उनकी पदोन्नति भी नही हो पाई और वे मिडिल स्कूल के मास्टर बनकर ही रह गए जबकि बी. ए. और एम. ए. के बच्चों को वे उस क्लास के अध्यापकों से कहीं ज़्यादा अच्छा पढ़ा लेते थे।एक बात आज उनकी ज़रूर बताना चाहूंगी।मैंने बी. ए. ऑनर्स अंग्रेजी साहित्य में किया तो उसमें जॉर्ज बर्नाड शॉ का प्ले Arms And the Man था जिसमें प्ले का हीरो Sergius प्ले के ही दूसरे हीरो के लिए कहता है
“What a man is he a man” ? यह वाक्य इस प्ले का key sentance था ,ऐसा हमारे कॉलेज के प्रोफेसर साहब ने हमें लेक्चर देते समय समझाया था लेकिन क्यों और कैसे यह key sentance है और इस एक वाक्य से ही हीरो का पूरा चरित्र कैसे समझा जा सकता है ? यह मुझे मेरे मिश्रा सर ने बात-बात में ही समझा दिया था।उनके पढ़ाने का तरीका ऐसा था कि लगता नहीं था कि हम पढ़ रहे हैं बल्कि ऐसा महसूस होता था जैसे मनोरंजन करते हुए ही ज्ञानार्जन हो गया।वे अपने पढ़ाने के तरीके में अपने समय से बहुत आगे थे।आज शायद वे होते तो पता नही कितना आगे जाते।
मैं अपने मिश्रा सर को कोटिशः श्रद्धांजलि और नमन करती हूं।वे जहां भी हों उनकी आत्मा शांति और सुकून से हो यही प्रार्थना है और उनका आशीर्वाद मेरे जैसे उनके सभी विद्यार्थियों के साथ रहेगा यही मेरी कामना है।
सर को मैं ज़्यादा याद करना ही नहीं चाहती क्योंकि मन बहुत भावुक हो जाता है।वे भी शायद मेरी प्रतिभा को मेरे बहुत बचपन से ही समझते थे तभी कहते थे कि “बिटिया खूब लिखेगी।” तभी उन्हें याद न करना चाहकर भी वे हमेशा मुझे याद रहते हैं।जब भी लिखने बैठती हूँ तो वे याद आते हैं।एक प्रेरणादायी व्यक्तित्व, मेरे गुरु और बहुत ही सज्जन पुरूष को शत-शत नमन।
सभी गुरुजन जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया और लिखने-पढ़ने की ओर प्रेरित किया उनको नमन करते हुए आज के दिन की सभी को शुभकामनाएं देते हुए अपना लेख समाप्त करूँगी।
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