कविवर #जयशंकर_प्रसाद साहित्य के उन अमर रचनाकारों में से एक हैं, जिन्होंने देवी सरस्वती के पावन मंदिर में अनेक श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं।अपनी प्रतिभा से उन्होंने हिंदी साहित्य के कविता, कहानी,नाटक ,निबंध और उपन्यास आदि विविध अंगों को समृध्द किया है।
छायावाद के वे प्रवर्तक कवि थे।जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में न केवल कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई,बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और ‘कामायनी’ तक पहुंचकर वह काव्य-प्रेरक शक्ति काव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया।प्रसाद जी के प्रयासों का ही प्रतिफल था कि खड़ी बोली हिंदी काव्य की निर्विवाद सिध्द भाषा बन गयी।
जयशंकर प्रसाद जी मेरे प्रिय कवि रहे हैं और जब मैं हाइस्कूल में ही थी,तभी मुझे कामायनी की बहुत सी पंक्तियां याद थीं।आज 15 नवंबर को उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि।
यूं तो जयशंकर प्रसाद जी की रचनाओं में कोई भी रचना,यहां तक कि उनके नाटक भी इतना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं कि उनकी बात किये बिना प्रसाद जी को जाना ही नहीं जा सकता है फिर भी उनकी अक्षय कीर्ति का अमर आधार स्तंभ ‘कामायनी’ महाकाव्य है।इसको जितनी बार पढ़ा जाए,कम है।बचपन में जब मैं ‘कामायनी’ पढ़ती थी तब कुछ दूसरा ही प्रभाव आता था लेकिन आज तो मायने ही बदल गए हैं।आज हम सभी सोशल मीडिया पर इतना निर्भर हो गए हैं कि पढ़ना लिखना भूलते से जा रहे हैं।पढ़ने की प्रवृत्ति विकसित करनी चाहिए क्योंकि आज हम सिर्फ कुछ रचनाएं लिखकर स्वयं को साहित्यकार समझने लगते हैं और अपनी रचना पर थोड़ी सी भी विपरीत प्रतिक्रिया हमें झकझोर देती है लेकिन इन महान रचनाकारों को पढ़कर एहसास होता है कि साहित्य-सृजन क्या है?
आज मानव,हृदय-तत्व से विहीन होकर भौतिकता और बुद्धिवाद में ही जीवन का चरम आनंद खोजने का असफल प्रयास कर रहा है किंतु इस प्रयास में उसे आनंद के स्थान पर दुख ही मिलता है।सच्चा आनंद हृदय-तत्व को अपनाने से प्राप्त होता है।हृदय और बुद्धि का समन्वय ही मानव का कल्याण कर सकता है।यही प्रसाद जी ने इस महाकाव्य की कथा द्वारा हमें बताया है।कामायनी के कथानक के इस आयाम ने ही मुझे हमेशा प्रभावित किया है।
1935 में ‘कामायनी’ महाकाव्य प्रकाशित हुआ।इस महाकाव्य में प्रसाद जी ने अपने दार्शनिक विचारों को अभिव्यक्त किया है।इन दार्शनिक सिद्धांतों में समरसता का सिद्धांत प्रमुख है।समरसता शब्द का संबंध मूलतः प्रत्यभिज्ञा दर्शन से है। “दो का मिलकर एक हो जाना ही समरसता है।” ‘कामायनी’ में इस समरसता के सिद्धांत का नियोजन करके प्रसाद जी ने जीवन की अनेकों जटिलताओं और वैषम्यों के निवारण का मार्ग बताया है।
कामायनी में तप और भोग की समरसता पर भी बल दिया गया है-
“तप नहीं केवल जीवन सत्य
करुण यह क्षणिक दीन अवसाद
तरल आकांक्षा से है, भरा
सो रहा आशा का आह्लाद।”
नर-नारी तथा शासक-शासित के मध्य भी समरसता आवश्यक है।मनु समरसता के सिद्धांत को न अपनाने के कारण ही दुखी थे।काम उन्हें उनकी इस भूल से अवगत कराता है-
“तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की,
समरसता संबंध बनी अधिकार और अधिकारी की।”
जितना भी लिखने को दे दिया जाए इस महाकाव्य पर,उतना ही कम है।इसलिए प्रसाद जी की यह कृति हिंदी के आधुनिक महाकाव्यों में मूर्धन्य स्थान की अधिकारिणी है।
चिंता के मूल में दुख का भाव रहता है।प्रसाद जी ने चिन्ताजन्य दुख का उलेख इन पंक्तियों में किया है-
” चिंता करता हूँ मैं जितनी
उस अतीत की उस सुख की
उतनी ही अनंत में बनती
जाती रेखाएं दुख की।”
हम सभी जानते हैं कि श्रद्धा ‘कामायनी’की प्रधान नारी पात्र है।आदर्श भारतीय नारी के समस्त गुणों से आप्लावित उसका चरित्र इस महाकाव्य की एक दैदीप्यमान निधि है।कहा जा सकता है कि श्रद्धा के चरित्र में नारी जीवन की सम्पूर्ण विभूतियों का चित्र अंकित हुआ है।प्रसाद जी ने श्रद्धा के चरित्र चित्रण में आदर्श भारतीय नारी और विश्व का कल्याण करने वाले समस्त गुण भरे हैं-
“नारी तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत नग पग तल में
पीयूष स्रोत सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में।”
कामायनी की इन पंक्तियों को देखिए,मानव-जीवन के सफर का कितना सटीक चित्रण करती हैं-
“सदा पूर्णता पाने को
सब भूल किया करते क्या?
जीवन में यौवन लाने को
जी-जी कर मरते क्या?”
मैं पहले भी लिख चुकी हूं कि ‘कामायनी’ मेरी प्रिय रचना है और उस पर मैं बहुत कुछ लिखना चाहती हूं क्योंकि बचपन में,जब मैं कुछ भी नहीं समझती थी तब भी यह मेरी प्रिय रचना थी और आज जब कामायनी में विद्यमान अलंकार-विधान,रूपक तत्व,प्रतीकों और दार्शनिक तथा आधात्मिक पृष्ठभूमि को थोड़ा बहुत ही समझ पाती हूँ तब भी यह मेरी प्रिय रचना है।