भाषा का महत्व उसके साहित्य से आंका जाता है। अगर हम यह कहें, कि वास्तव में साहित्य भाषा का श्रृंगार है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। हम इस बात को भी नहीं नकार सकते कि साहित्य समाज का प्रतिबिंब एवं दिशा सूचक भी होता है। साहित्य ने हमेशा किसी भी काल एवं क्षेत्र के समाज की स्थिति से हमें अवगत कराया है। शायद इसी कारण विभिन्न क्षेत्रों के विभिन्न साहित्य को विभिन्न कालों में बांटा गया है, एवं तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार ही उस काल का नामकरण भी किया गया।
हम विश्व की प्राचीनतम भाषाओं की बात करें तो संस्कृत एवं तमिल को शीर्ष पर पाते हैं। कालांतर में, संस्कृत तो विभिन्न भाषाओं में विभक्त हो गई, परंतु तमिल ने अपने आप को और सुदृढ़ किया। इसके समानांतर हिंदी साहित्य ने अपने आप को इतनी तेजी से समृद्ध किया कि अल्प समय में ही हिंदी विश्व के अग्रणी साहित्य में गिनी जाने लगी। हमारे लिए यह गर्व की बात है कि विश्व का प्राचीनतम साहित्य एवं विश्व का सबसे समृद्ध साहित्य दोनों ही भारत वर्ष की झोली में आते हैं।
भारतीय भाषा में लिखे साहित्य की पृष्ठभूमि में अनेकों समानताएं पाई जाती हैं, और ऐसा ही विभिन्न कालों में हुए रचनाकारों के लेखन में भी देखा जा सकता है। आइए एक दृष्टि डालते हैं, विश्व के प्राचीनतम साहित्य ‘तमिल’ एवं विश्व के सबसे समृद्ध साहित्य ‘हिंदी’ की समानताओं पर। यह एक अच्छा संयोग ही है, कि इस विषय पर व्यापक संवाद किया जा सकता है। आइए कोशिश करते हैं इस वृहद सागर की कुछ बूंदों को समझने की। आइए हम एक दृष्टि तिरुवल्लुवर एवं कबीर के साहित्य की समानताओं पर डालते हैं।
तमिल साहित्य में तिरुवल्लुवर का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। तिरुवल्लुवर को तमिल साहित्य का जनक कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मात्र 1330 दोहों में उन्होंने समाज, व्यक्ति, अध्यात्म एवं दर्शन को, इतनी सटीकता से लिखा, जैसे सभी मनकों को उन्होंने एक जगह एकत्रित कर दिया हो। तिरुवल्लुवर के साहित्य को ‘तिरुकुरल’ के नाम से भी जाना जाता है। तिरुकुरल को आम जनमानस में भरपूर सम्मान प्राप्त है। आम जनमानस के मन में तिरुकुरल के प्रति सम्मान का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है, कि शादी ब्याह में तिरुकुरल को उपहार स्वरूप देने की परंपरा रही है। काफी जगह तो, जिन परिवारों में तिरुकुरल नहीं पाया जाता उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है। तिरुकुरल का गौरवशाली इतिहास भूत मे 2000 वर्षों तक पाया जाता है।
हालांकि कबीर का साहित्य 500 वर्ष पूर्व ही अस्तित्व में आया परंतु कबीर के साहित्य ने भी समाज में वही स्थान प्राप्त किया। कबीर को भी कम शब्दों में विस्तृत बात कहने में महारत हासिल थी। कबीर और तिरुवल्लुवर, दोनों के जन्म स्थान के बारे में अनेकों किंवदंतियां प्रचलित हैं। किसी को भी इन दोनों महान साहित्यकारों के जन्म स्थान के बारे में प्रमाणिक जानकारी नहीं है। जाति से दोनों जुलाहे ही रहे हैं। दोनों का ही जीवन, एक संत का जीवन रहा है। यह आश्चर्य की बात है कि, दोनों के साहित्य काल में इतना अंतर होने के पश्चात भी, दोनों के लेखन की दिशा के भाव सामान पाए जाते हैं। दोनों ही मानवता के प्रेमी एवं जाति, धर्म तथा वर्ग विभाजन के विरुद्ध रहे हैं। दोनों की ही ईश्वर में अप्रतिम आस्था रही है, दोनों ने ही सभी विषयों पर गहनता से लिखा है। यह भी सुखद समानता है कि, दोनों ही निर्भीक रूप से अपने विचार प्रकट करते थे।
दोनो भाषाओं की संचार एवं प्रसार में भले ही हजारों मीलों का अंतर रहा हो, परंतु दोनों एक दूसरे का प्रतिबिंब प्रतीत होते हैं। यह दुखद बात है कि आम जनमानस इन दोनों महान साहित्यकारों की समानताओं से अनभिज्ञ रहा है। आज आवश्यकता है कि हम दोनों सहित्य की समानताओं को समझें, एवं दोनों साहित्य के प्रगाढ़ संबंधों पर मंथन कर, मानवता में भी आत्मसात करें।
क्या यह हमारी सोच की विकृत प्रणाली नहीं है, कि साहित्य में इतनी समानता होते हुए भी, हमारे दिशा सूचकों के विचारों में इतनी समानता होते हुए भी, आम जनमानस भाषा के भेद पर बंटा हुआ है। शायद तिरुकुरल को भेंट करना एवं परिवार में अनिवार्य रूप से रखना ही एक परंपरा मात्र बनकर रह गई है। कबीर को पाठ्यक्रम में पढ़ना एवं शोध करना ही, हमारी अनिवार्यता बन कर रह गई है। यह उचित समय है कि हम महान भाषाओं के इन महान साहित्यकारों को ना सिर्फ पढ़ें बल्कि अपने विचारों में भी आत्मसात करें। आइए, इन दो साहित्यकारों के माध्यम से हम दो महान साहित्य को जोड़ने का प्रयास करें। शायद इस प्रयास से ही, हम संपूर्ण भारत के जनमानस को एक सूत्र में पिरो पाएंगे। मनिक तिरुवल्लुवर ने दिए हैं, सूत्र कबीर ने दिया है। क्या हम इन्हें पिरो भी नहीं सकते?