– अजय “आवारा”
यह सच है कि हमारी संस्कृति अपने आप में आकाश है। पर हम अपनी संस्कृति से कितना जुड़े हुए हैं और कितना उसे भूल चुके हैं ? क्या हम भारतीयता को सही मायनों में जी रहे हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं हो रहा है, कि हमारी भारतीयता कहीं खो गई है। बड़े अचरज की बात है कि, हमारे मूल रीति- रिवाज, पता नहीं कहां गुम हो गए। हमारे रीति-रिवाज, आज जिस रूप में हमारे सम्मुख हैं, जिनका हम अनुसरण कर रहे हैं, वास्तव में वह हमारी संस्कृति का हिस्सा रहे ही नहीं। उदाहरण के लिए जाति-व्यवस्था को ही लीजिए। भारतीय संस्कृति में जाति-व्यवस्था का कहीं जिक्र तक नहीं है। हां, वर्ण- व्यवस्था पाई जाती है और वर्ण पर आधारित व्यवस्था अब जाति के रूप में स्थापित हो गई। यह स्पष्ट है कि कालांतर में विभिन्न आक्रांताओं के आने से एवं विभिन्न परिस्थितियों में, उस समय के हिसाब से रिवाज या परंपरा बनाई गई थीं। उन्होंने हमारी संस्कृति को ढक दिया है। आज, हमारी मूल संस्कृति कहीं छुप गई है और वो रीत, जो लघु काल के लिए बनाई गई थी, आज कुरीतियों के रुप में स्थापित हो गई हैं। विशेषकर, अंग्रेजी शासनकाल में ऐसा हुआ कि हमारी संस्कृति खो ही गई। अंग्रेजों ने ऐसा किया, कि हम अपनी संस्कृति से दूर हो जाएं। जाति व्यवस्था एवं अन्य कुरीतियां उनके काल में ही जन्मीं या मुगल काल में। गौरतलब बात यह है, कि भारतीयता की व्यवस्था नहीं है।हमारी शिक्षा व्यवस्था में भी, भारतीयता के गौरव को पढ़ाने का या उससे बच्चों को परिचित कराने की कोई व्यवस्था नहीं है। कितने लोग आज वेद पुराण को जानते हैं? कितने लोग भारत की रीढ को जानते हैं? और कितने लोग हमारी संस्कृति पर गर्व करते हैं? हमने आधुनिकता को ही सब कुछ मान लिया है। आधुनिकता के नाम पर अंग्रेजी बोलना आधुनिक दिखना एवं अप्रमाणिक परंपरा को मान लेना ही हमने विकसित होने की निशानी मान लिया है। भारतीयता का अनुसरण पिछड़ेपन की निशानी माना जाने लगा है। हम यह मानने लगे हैं कि भारतीयता का अनुसरण करने वाले पिछड़े, एवं पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण करने वाले श्रेष्ठ एवं आधुनिक लोग हैं। जबकि सच्चाई यह है कि हमारे पुराने तौर-तरीकों को ही आज नए रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर खेती-बाड़ी को ही लीजिए। हमारी पारंपरिक खेती बाड़ी में गोबर का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया जाता था। फिर पश्चिमी देशों से आए उर्वरक ने इसकी जगह ले ली और अब फिर से वही पश्चिमी देश, हमारे गोबर की खाद की परंपरा को ऑर्गेनिक फार्मिंग के रूप में हमारे सामने दोबारा से प्रस्तुत कर रहे हैं। यह विदेशियों की बनाई है जो हमारी परंपरा नहीं, यह तो हमारा ही मूल है। इस तरह आयुर्वेद भी, हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है। आज हम आयुर्वेद को पिछड़ा मानने लगे हैं। हम मानने लगे हैं कि, आयुर्वेद किसी पुरानी पद्धति का नाम है जो आज के युग में तर्कसंगत नहीं है। कुछ तो यह भी कहते हैं कि यह चिकित्सा व्यवस्था नहीं है, लेकिन आयुर्वेद का ही एक रूप है, नेचुरोपैथी। सभी नेचुरोपैथी को आधुनिक से जोड़ते हैं। जब की सच्चाई यह है कि नेचरोपैथी आयुर्वेद का ही हिस्सा है। जब की कुछ लोग आयुर्वेद को प्रमाणिक ही नहीं मानते। एक और उदाहरण मैं देना चाहूंगा। भारतीयता में शिक्षा सेवा रही है और गुरु-शिष्य परंपरा को एक उन्नत परंपरा के रूप में देखा गया है। शिष्य, गुरु के प्राणों में बसता था। गुरु-शिष्य के बीच व्यवसायिक नहीं, आत्मीय संबंध था। लेकिन आज, शिक्षा एक बाजार हो गई है और हर चीज का मापदंड धन से जाना जाने लगा है। शिक्षा बिकने लगी है और जब शिक्षा बिकेगी, तो गुरु- शिष्य परंपरा का निर्माण कैसे होगा? भारतीयता में माता- पिता संस्कार देते थे, और गुरु ज्ञान। लेकिन आज, माता-पिता अपने बच्चों को व्यवसायिक शिक्षा में सौंप कर यह मानने लगे हैं कि उन्हे सब कुछ मिल रहा है। जबकि उन्हें शिक्षा संस्थानों में वास्तविक ज्ञान भी मिल ही नहीं रहा है न। परंपरा तो दूर की बात है, जाने अनजाने हम भारतीयता से अत्यंत दूर आ चुके हैं। स्थिति यह हो गई है कि हम भारतीयता पर नहीं क्षेत्रीयता के आधार सोचने लगे हैं। शायद यही कारण है कि हम एक भारतीय की पहचान के रूप में पिछड़ते जा रहे हैं।