इन्सान के महान विचार कार्य रूप में परिणत हों तो वह कई कदम आगे निकल जाता है और इस बात को सबसे अधिक किसी ने साबित किया है तो वे हैं युगपुरुष महात्मा गाँधी।सदियों बाद ऐसे प्रभावशाली पुरुष का उदय होता है।2 अक्टूबर 1869 यानि आज के दिन ही गाँधी जी का जन्म गुजरात के पोरबंदर में हुआ था।अहिंसा और सत्य को स्वाधीनता-संग्राम का हथियार बनाकर महात्मा गाँधी ने संसार के सभी पराधीन राष्ट्रों को अहिंसात्मक युद्ध का नया मार्ग दिखलाया,उनकी अन्य चमत्कारी उपलब्धियों में यह सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि थी।नवीन भारत के निर्माताओं में महात्मा गाँधी का नाम सबसे प्रथम आता है।अपने मौलिक चिंतन और अनुभव-सिद्ध प्रयोगों द्वारा उन्होंने लाखों व्यक्तियों का मार्ग-दर्शन किया है।जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं, जिसमे गाँधी जी ने नई राह न दिखलाई हो।उनका धर्म,उनकी राजनीति से अलग नहीं था।उनके चिंतन में सम्पूर्ण मानव-जीवन की उज्ज्वलता का प्रतिनिधित्व होता है।सही मायनों में उन्होंने दुनिया को जीने की कला सिखाई।
आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति हमारे व्यक्तित्व के विकास में कितनी सहायक हो सकती है,इसका सबसे बड़ा उदाहरण गाँधी जी हैं।वे 4 सितम्बर 1888 को 19 वर्ष की उम्र में कानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गये।उस उम्र में वे भी फैशनपरस्त थे।अपनी आत्मकथा ‘द स्टोरी ऑफ माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रुथ’ में वे कहते हैं कि ब्रिटेन में उन्होंने स्वयं को पूरी तरह जेंटलमैन बनाने का निश्चय किया।लन्दन के सबसे फैशनेबल और महंगे दर्जियों से उन्होंने अपने लिए सूट सिलाए।घड़ी में लगाने के लिए भारत से सोने की दोलड़ी चैन मंगाई।नाच-गाने की भी शिक्षा लेने लगे।तीन महीने तक वे फैशन की चकाचौंध में डूबे रहे परन्तु उन्हें आत्मनिरीक्षण की आदत थी।इस आदत ने ही उनके मन को झकझोर कर रख दिया।यह सब फैशन और तामझाम उन्हें बेमानी लगने लगा।उन्होंने फिजूलखर्ची छोड़ दी और मितव्ययी हो गये।
हम जितना भी उनके विषय में पढ़ते या सुनते हैं तो उनकी छवि एक कर्मठ कार्यकर्त्ता के रूप में ही हमारे सामने आती है।एक ऐसा कर्मठ इन्सान जो हर समय सक्रिय रहता था।एक बुजुर्ग इन्सान की अनथक कार्यशैली देखकर लोग दंग रह जाते थे।गाँधी जी का मानना था कि कभी खाली न बैठो,कुछ न कुछ करते रहो।सक्रियता से ही बदलाव होगा।वास्तव में हम आज के दिन उन्हें केवल याद ही न करें अपितु उनसे सीख लें कि कैसे जीवन को जिया जाता है?
संसार में जो भी महापुरुष हुए हैं, उनकी वाणियों या कथनों ने हम जैसे आम लोगों के जीवन पर बहुत प्रभाव डाला है।बस आवश्यकता इस बात की होती है कि हम इन बातों को कैसे ग्रहण करते हैं? इन कथनों या वचनों की सहायता से हम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में,विचार और चिंतन की नई सामग्री,दिव्य प्रेरणा एवं उचित मार्गदर्शन सहज ही पा सकते हैं।विभिन्न विषयों पर गाँधी जी के उद्गार,उन्हीं के शब्दों में मैं आपके लिए देना चाहूंगी,जिनसे हमें जीवन के कई मोड़ों पर प्रेरणा मिल सकती है। ‘धर्म’ के विषय में गाँधी जी का यह कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक है,जितना उस समय रहा होगा-
“धर्म हमारे सारे कार्यों में व्याप्त रहना चाहिए।यहाँ धर्म का अर्थ पंथ अथवा सम्प्रदाय नहीं है।उसका अर्थ है विश्व के व्यवस्थित नैतिक शासन में विश्वास।उसे हम अपनी आँखों से देख नहीं सकते,इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वह दृश्य वस्तुओं से कम वास्तविक है।यह हिन्दू धर्म,इस्लाम धर्म,ईसाई धर्म आदि से परे है। यह धर्म ऐसा धर्म है जो मनुष्य के मूल स्वभाव को ही बदल देता है,जो मनुष्य को अपने अंतर के सत्य के साथ कभी न टूटने वाले बंधन में बांधता है और जो उसे निरंतर शुद्ध करता रहता है।वह मानव के स्वभाव का शाश्वत तत्व है,जो अपनी सम्पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए किसी भी कीमत को अधिक बड़ी नहीं समझता और जो आत्मा को उस समय तक अतिशय अशांत बनाये रखता है जब तक वह अपने को पहचान नहीं लेती,अपने सर्जनहार को जान नहीं लेती और सर्जनहार प्रभु के तथा अपने बीच की सच्ची समानता को समझ नहीं लेती।”
हम सभी आज देख रहे हैं कि अज्ञानता ने हमारे देश का कितना नुकसान किया है और इसी कारण आज हम गरीबी,भुखमरी,बीमारियों और अधिक जनसँख्या की समस्या से जूझ रहे हैं।इस बात को बहुत पहले ही गाँधी जी ने समझ लिया था-
“गरीबों का शोषण कुछ करोड़पतियों का नाश करने से नहीं मिटाया जा सकता; उसे मिटाने का रास्ता है, गरीबों के अज्ञान को दूर करना और उन्हें अपने शोषकों से असहयोग करना सिखाना।इससे शोषकों का भी ह्रदय-परिवर्तन होगा।”
औरतों के अधिकारों के प्रति भी गाँधी जी की क्या विचारधारा थी?उनके शब्दों को जब हम पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने आज के समय के हालातों को देख कर ही इन शब्दों को कहा है।यह हमारे देश का दुर्भाग्य रहा कि हम सभी बातें तो बड़ी-बड़ी करना अच्छी तरह सीख गये परन्तु उन बातों पर अमल करना हमें नहीं आ सका।गाँधी जी जैसे महान व्यक्तित्व की जन्म-तिथि मनाना तो हमें याद रहा परन्तु उस महापुरुष ने क्या कहा इस तरफ हमने ध्यान देने की भी कोशिश नहीं की।यदि हमने ऐसा किया होता तो आज हमारे देश में औरतों की यह दशा तो कदापि न होती।उनके शब्दों की एक बानगी देखिये-
“स्त्रियों के अधिकारों के बारे में मैं कभी समझौता कर ही नहीं सकता।मेरी राय में कानून को स्त्री और पुरुष के बीच कोई असमानता नहीं रखनी चाहिए।मुझे लड़कियों और लड़कों के साथ पूर्ण समानता का व्यवहार करना चाहिए।
स्त्री और पुरुष का दरजा तो समान है,परन्तु दोनों एक ही नहीं हैं।दोनों की जोड़ी अनोखी है।दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।दोनों में से हर एक दूसरे की इतनी सहायता करता है कि एक के अभाव में दूसरे के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती।इन सत्यों से यह सिद्धांत आवश्यक रूप में निकलता है कि जो चीज़ दोनों में से किसी एक के दरजे को नुक्सान पहुंचाएगी,वह दोनों का समान रूप से नाश करेगी।”
आज हम छोटी-सी गलती पर भी बेचैन हो उठते हैं।कुछ लोग तो छोटी-सी गलती हो जाने पर अवसाद से घिर जाते हैं।वास्तविकता यह है कि गलतियों को स्वीकार करने की सहजता आज समाप्त होती जा रही है।यह उन्हीं में होती है,जो अपने कर्म में निष्ठा रखते हैं।जो सच्चे साधक होते हैं,जो हर गलती से सीखते हैं और अगले पड़ाव के लिए तैयार हो जाते हैं।गाँधी जी ऐसे ही साधक थे।वे अपनी गलतियों को हँसते हुए स्वीकार कर लेते थे।आज अगर हम भी अपने भीतर झाँकने की कोशिश करें तो ऐसा ही साधक हमें अपने भीतर मिल जाएगा।
जब भी कभी हमारे बड़े हमें कुछ समझाते हैं या हमारे सामने गाँधी जी जैसे किसी महापुरुष का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं तो ज़्यादातर हम लोगों की सोच यह होती है कि अरे वे तो गाँधी जी थे और हम तो मामूली इन्सान हैं इसलिए हम कैसे उनके जैसे बन सकते हैं? लेकिन यही हम गलत होते हैं क्योंकि गाँधी जी जैसे लोगों को यदि हम आम इंसान की तरह देखें,तब हमें एहसास होगा कि उनके विचारों और कार्यों को अपनाना हमारे लिए असंभव नहीं है। ‘हरिजन’ पत्रिका में महात्मा गाँधी ने लिखा था,
“मैं किसी-न-किसी तरह मनुष्य के सर्वोत्कृष्ट गुणों को उभार कर उनका उपयोग करने में कामयाब हो जाता हूँ।इससे ईश्वर तथा प्रकृति में मेरा विश्वास ढृढ़ रहता है।” गाँधी जी अपने इस कथन के माध्यम से यही कहना चाहते थे कि हर इंसान के भीतर ही असाधारण कार्य-निष्पादन के सारे गुण मौजूद होते हैं।इंसानियत के इन्हीं गुणों को अपने भीतर उतार लें तो हमारे आसपास उजाला अवश्य होगा।संवेदनशीलता और सहिष्णुता इन गुणों में सबसे ऊपर है।बापू को आज के दिन यदि हम सच्ची श्रद्धांजलि देना चाहते हैं तो संवेदनशीलता जैसा गुण अपने अन्दर जगाए रखें, जिससे अपने आसपास के एक-एक व्यक्ति से हमें जुड़ाव महसूस होगा और यह जुड़ाव ही हमें इंसानियत सिखाता है,जिसकी आज के समय में सबसे अधिक ज़रूरत है।