International Women’s Day special : part – 3
मैं, मैं ही रहूंगी….
– डॉ. स्वर्ण ज्योति
“मैं, मैं ही रहूंगी
अपनी ही छवि बनाऊँगी
मैं राधा नहीं बन सकती
कि आज प्रेयसी प्रताड़ित है
मैं सीता नहीं बन सकती
कि आज पतिव्रता पतित है
मैं मीरा नहीं बन सकती
कि आज भक्ति भ्रमित है
मैं यशोधरा नहीं बन सकती
कि आज विश्वास व्यथित है
मैं गांधारी नहीं बन सकती
कि आज त्याग त्यजित है
मैं उर्मिला नहीं बन सकती
कि आज समर्पण सारहीन है
मै, मैं ही रहूँगी
अपनी ही छवि बनाऊँगी
कर्तव्य सारे निभाऊँगी
मैं, मैं ही रहूंगी
अपनी ही छवि बनाऊँगी।”
श्री लंका में फ्रांसीसी राजदूत के निवास स्थान में, उनके साथ डॉ.स्वर्ण ज्योति जी।
नारी को लेकर आज तक की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि समाज नारी को एक बंधी-बंधाई दृष्टि से ही देखता है।अशिक्षित पिछड़ा और ग्रामीण वर्ग जहां उसे एक पर्दे में सजा कर रखने वाली रचना समझता है, वहीं पढ़ा लिखा और बुद्धिमान समझा जाने वाला शहरी वर्ग इसे पुरुष के समकक्ष बनाना चाहता है।यह दोनों ही नजरिए स्त्री से उसकी मौलिकता छीनते हैं। नारी की मौलिकता को सम्मान मिलना चाहिए।
एक बार हम नारी को उसकी मौलिकता में देखने की दृष्टि विकसित कर लें तो हम और सम्मान और प्रेम उसे दे पाएंगे । हम उसकी विशेषताएं और उनके समाज के लिए महत्त्व को सहज ही स्वीकार लेंगे।
सृष्टि का विस्तार करने वाली आदि शक्ति एक ही थी। वह न स्त्री थी, न पुरुष। कहते भी हैं- ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव।’ यानी वह माँ भी है वही पिता भी। अब आप उसे शिवा मानकर पूजें या शिव मानकर। शक्ति तो एक ही है। दोनों एक-दूसरे में समाए है, अर्द्धनारीश्वर हैं। इसी तरह हर नर में एक नारी और हर नारी में एक नर रहता है। यह व्यवस्था प्राकृतिक रूप से है। बावज़ूद इसके फिर भी उसका शोषण किया जाता है नारी का दर्जा निम्न ही माना जाता है।इन पंक्तियों में नारी की व्यथा कुछ इस तरह उजागर होती है-
“मैं सजाती रही तुम्हारा घर-द्वार
पूजती रही समझ सच्चा आधार
दी अग्नि परीक्षा बार- बार
तुमने दिया न कभी कोमल भाव
जो भी, जब भी दिया केवल घाव
तुम गर देते हल्का-सा एक प्यार
कोमल-सा एक दुलार तो
शायद मुझ में भी होता शक्ति संचार
भर जाता मेरा भी रिक्त संसार
पर तुम रहे केवल मूर्ति पाषाण
बन न सके कभी भगवान ॥”
अस्मिता स्वातंत्र और सामाजिकता – इन तीनों शब्दों में मानो तीनों लोक समाए हुए हैं।सदियों से स्त्री और पुरूष का सारा संघर्ष इन्हीं तीन शब्दों की धुरी पर केंद्रित है।स्त्री-स्वातंत्र्य और सामाजिकता से एकाकार होकर अपना अस्तित्व सुरक्षित करना चाहती है, तो पुरूष स्त्री की इसी चेष्टा से घबड़ाकर अपने अस्तित्व के प्रति सशंकित हो उठता है और स्त्री को अपने से एक दर्जा नीचे रखने के प्रयास में जुट जाता है। यह मामला आपसी शत्रुता का नहीं वरन एक दूसरे को भली-भांति न समझ पाने का है। महाभारत हो या रामायण या कलियुग, नारी का अस्तित्व समाज पर गहराई तक प्रभावित करता है, परिवर्तित करता है ।
“री!!गांधारी , तूने पट्टी क्यों बांधी?
तूने तो सुन ली थी समय की पदचाप,
फिर क्यों रही तू चुपचाप!!!?
री!!गांधारी , तूने पट्टी क्यों बांधी??
तूने तो देख ली थी भविष्य की चाल,
फिर क्यों बनी न तू राज्य की ढाल!!!
री!!गांधारी , तूने पट्टी क्यों बांधी??
तूने तो समझ ली थी शतरंज की बिसात,
फिर क्यों नहीं रोका तूने भाग्य का हाथ!!?
री !!गांधारी , तूने पट्टी क्यों बांधी??
सती धर्म की कसौटी पर,
राज्य धर्म को तू भूली ।
पुत्र-प्रेम में जकड़े पिता के लिए,
तूने ,कर्तव्यों की दी बलि ।।
री!!गांधारी , तूने पट्टी क्यों बांधी??
आज हैं सब , आँखों के होते अंधे,
कसे जाते हैं ,चहुं ओर शिकंजे औ फंदे।
नारी का न कोई मान, न स्थान
देख री गांधारी देख
तेरे सती-धर्म का कमाल।।
गर तूने थामी होती अंधे की डोर,
इतिहास का चेहरा होता कुछ और।
सती-धर्म की लटका कर तलवार,
झेले हैं नारी आज भी अत्याचार।।
री!!गांधारी , तूने पट्टी क्यों बांधी??”
स्त्री समाज की वह इकाई है, जिस पर संबंधो और अंतर्संबंधो की एक लंबी शहतीर टिकी हुई है फिर भी वह मानो कुछ भी नहीं है। सारे सामाजिक-पारीवारिक संबंध पुरूष से प्रारंभ होते हैं और पुरुष के साथ ही समाप्त हो जाते है, परंतु आज स्थिति बदल रही हैं शिक्षा के विकास के साथ- साथ मानसिकता भी बदल रही है।इस कविता में एक बच्ची अपनी मां की स्थिति का अनुमान लगाते हुए कुछ इस तरह का निर्णय लेती है-
“चोटी न बना सके
बिखरे छितरे घनघोर
बादल ऐसे
कभी छोटा- सा चाँद
सब, बस देखे झरोखे से
अम्मा
सर्दी गर्मी बरसात का अनुभव भी
बस प्रकोष्ठ ही कराए
यही हैं आठ दिशाएं
यहीं पर दुनिया अम्मा सजाए
टुकुर- टुकुर गिलहरी झाँकती
नन्हें नन्हें बच्चे बिल्ली के
चिड़िया घोंसला बनाती
गैय्या बछड़े को दूध पिलाती
साथी एक दूजे के
घर में कल भी नाना के
घर में आज भी पापा के
बस अम्मा ने दहलीज़ नहीं लाँघी
गली के कोने के घर में
सेंट लगाकर भैय्या जब-तब हैं जाते
पापा भी ” उसके” घर हैं आते-जाते
अम्मा चुपचाप आँसू बहाती,
मैं भी,
माँ बनूँगी एक दिन
फिर भी अम्मा की तरह कभी नहीं…..”
नारी ने आज के युग में अपनी योग्यता, क्षमता को जो प्रमाणित किया है और अपना आकर्षक रूप बनाया है, उससे पुरूष वर्ग भौंचक्का रह गया है और उसे पचा नहीं पा रहा है। अतः स्त्री पर अत्याचार बंद ही नहीं हो रहे हैं ।आज भी दहेज-प्रथा के कारण अनेक बहनें बलि चढ़ रही हैं। एक कविता के माध्यम से समाज से यह प्रश्न पूछने की कोशिश की है-
“एक रेखा,
शिशु ने
पालने से ,
रिसते मूत्र से बनाई ।
एक रेखा ,
बचपन में ,
नन्हीं ऊँगलियों ने खींची ।
एक रेखा ,
खेल में ,
आँगन की धरती पर बिछी ।
एक रेखा ,
जवानी ने ,
सुहाग रात में ,
तेरे सीने पर लिखी ।
सभी समय के साथ-साथ ,
हल्की होती हुई मिट गईं।
पर मेरे दोस्त ,
सुनो !!!
चालीस ग्राम सोना ,
चालीस लाख नगदी ,
हीरो होंड़ा और चांदी ,
घर बंगले के साथ भी ,
दहेज के लिए ,
मर मिटने की जो,
न मिटाई जा सके ,
ऐसी सीमा रेखा ,
कब खींचोगे ?
इनके लिए …. ।”
उत्तर प्रदेश के सांस्कृतिक मंत्री जी के साथ डॉ. स्वर्ण ज्योति जी
आज का युग नारी स्वतंत्रता का युग कहा जाता है, वस्तुतः आज भारतीय नारियों को पहले की अपेक्षा बहुत अधिक स्वतंत्रता मिली है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है किंतु उसे आजादी की वास्तविक जमीन आज भी नहीं मिल पाई है। स्वयं स्त्रियाँ भी अपनी पिछड़ी संस्कारजनित मानसिकता से उबर पानी में अक्षम हैं-जब तक उसे समझ में आता है तब तक समय गुज़र जाताहै-
“कभी मसाले के डिब्बे मे तो कभी दाल के,
कभी तकिए के नीचे तो कभी साड़ी के,
छोटे – छोटे से कुछ लम्हे छिपा कर रखे थे।
सिंदूर की डिबिया में तो कभी काजल की,
चूड़ियों के बक्से में तो कभी गहनों के,
कुछ रंग- बिरंगे सपनो को जोड़ कर रखे थे।
हर दिन की दिनचर्या में उन्हें सहला लेती,
एक दिन उन्हें जीने की चाह में बतिया लेती।
आज सोचा उनसे खुद को बहलाऊँ,
सज – धज कर खुद को रिझाऊँ ,
जो अक्स अपना देखा तो पाया ,
मैं तो कहीं नहीं थी !!!
मुझ जैसी ही कोई और थी।
ना जाने कब ,
हींग की छौंक में, दाल के गलने पर,
तकिए को बदलने मे ,साड़ी के खुलने पर,
सारे लम्हें छीत गए।
न जाने कब ,
सिन्दुर के घुलने पर ,काजल के फैलने पर,
चूड़ी के टूटने पर ,गहनों को बदलने पर,
सारे सपने रीत गए।
उन्हें सहला कर देखते- देखते,
उन्हें जीने की चाह में,
पल -पल हर एक दिन बीत गए।
आज अभी जीने की सीख दे गए ।।”
भारतीय समाज में नारी को अबला कहा गया है लोग इसका गलत अर्थ लगा लेते हैं अबला का अर्थ निर्बला दुर्बल या बल विहीना नहीं है।इसका सही अर्थ है बल प्रयोग से ऊपर होना। भारतीय संस्कृति में स्त्री और पुरूष को बराबर का दर्जा दिया गया है।मध्य काल में कन्याओं की शिक्षा की उपेक्षा की गई बाल-विवाह का प्रचलन हो गया और परदे की प्रथा प्रारंभ हो गई। इससे नारी का स्थान निम्नतर हुआ किंतु यह समाजिक विकृति थी मूल संस्कृति नहीं।हमारी संस्कृति में स्त्रियों को वेद पढने का अधिकार था। अनेक स्त्रियों ने मंत्र दृष्टा, दार्शनिका कवियत्री के रूप में ख्याति प्राप्त की थी।दर्शन-शास्त्र के क्षेत्र में गार्गी व मैत्रैयी के नामों से सभी परिचित हैं।
स्त्री के विविध रूपों को लेकर साहित्य-सृजन करनेवाले साहित्यकारों ने कभी स्त्री हृदय के गहन भावों को पूर्णता के साथ सृजित करने का दावा नहीं किया है।यह स्त्री का रहस्यात्मक चरित्र ही है जो निःसंदेह मानव मन की समझ से परे है।
“एक खुली किताब हूँ मैं,
जिधर से भी पढ़ो,
समझ में आ जाऊंगी,
शर्त ये है मगर तुम्हें,
पढ़ना आना चाहिए
स्पर्श-स्पंदन से परे
गहरी सुवास हूँ मैं
खुद अपनी बॉस हूँ मैं।
चेहरे को देखोगे तो
खो जाओगे,
शब्दो को ढूंढोगे
तो पछताओगे,
भावों को बूझोगे
तो उलझ जाओगे,
नीची निगाहों से निहारो
मन मस्तिष्क को भेद दूँ
ऐसी कटीली फाँस हूँ मैं
न आँखों देखी
न कानों सुनी,
ऐसी बात हूँ मैं
खुद अपनी बॉस हूँ मैं
लफ़्ज़- लफ़्ज़ मे-
गहरे अर्थ छिपाएं हूँ मैं,
सफ़े -सफ़े में
ज़िन्दगी बसाए हूँ मैं,
हर एक एहसास हूँ मैं
जीने की आस हूँ मैं,
समझो तो पास हूँ मैं
वरना एक राज़ हूँ मैं
बहुत खास हूँ मैं
खुद अपनी बॉस हूँ मैं
फिर भी एक खुली
किताब हूँ मैं।”
अंत में, भारतीय समाज में नारी एक विशेष गौरव पूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित है।आर्य पुरुष ने सदा ही उसे अपनी अर्धांगिनी माना है। इतना ही नहीं व्यवहार में पुरुष-मर्यादा से नारी-मर्यादा सदा उत्कृष्ट मानी गई है।नारी मातृदेवता है। भारतीय संस्कृति ने उसे माता के रूप में उपस्थित कर इस रहस्य का उद्घाटन किया है कि वह मानव के कामोपभोग की सामाग्री न होकर उसकी वंदनीया एवं पूजनीय है।नारी हृदय का एक अद्भुत भाव देखिए या कह लें कि नारी मन ऐसा संबंध चाहता है जो अमर हो-
“छू सको तो मेरे मन को छू लो,
गुन सको तो संग मेरे एक गीत गुन लो ।
सच्ची -झूठी ,असली- नकली सौग़ातें,
कितनी सारी कहने की हैं बातें।
सुन सको तो दिल की बात सुन लो,
छू सको तो मेरे मन को छू लो।
प्रेम, प्रीत,मनुहार और तकरारें,
जग में है रिश्ते कितने सारे।
बुन सको तो उर का एक रिश्ता बुन लो,
छू सको तो मेरे मन को छू लो।
काया नश्वर, पाया तो क्या पाया,
छाया है, बस माया ही माया।
चुन सको तो साँचा बंधन एक चुन लो,
छू सको तो मेरे मन को छू लो।”
कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि नारी, सृजन और चेतना की प्रतीक है । विविध रूपों में और भिन्न- भिन्न भूमिकाओं में यथा माँ , पत्नी, बहन ,और पुत्री के रूप में वह परिवार और समाज की संचालिका है। अपने अस्तित्व को जीवित रखते हुए वह मूल्यों की स्थापना व चरित्र-निर्माण से परिवार ही नहीं वरन समाज और राष्ट्र के प्रति अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकती है, सार्थकता सिद्ध कर सकती है ।
अति सुंदर प्रासंगिक प्रशस्त विचार नारी तुझे प्रणाम
एक सुंदर सटीक परिचर्चा लीक से हट कर रोचक कार्यक्रम । चुभन को बहुत बहुत बधाईयाँ ।
डा,स्वर्णज्योती के संबंध में इतना कुछ जानकर अतीव आनंद की अनुभूति हुई । मैं जैसी, जितनी कल्पना कर सकता था ,आपका साहित्यिक, सामाजिक कद उससे बहुत ऊपर है ।यह मेरे लिए हर्षमिश्रित आश्चर्य की अनुभूति है। आपको अनेकानेक शुभकामनाएं हार्दिक बधाई, आप शीघ्र ही साहित्य के उच्च शिखर पर दैदीप्यमान हो, ऐसी कामना करते हैं।🎉🎉🎉
By
के. सी. मिठास/Name.. Kailash Chandra Mithas.
Podcast सुना और बहुत अच्छा लगा … सबसे सशक्त और प्रभावशाली लगा अबला की परिभाषा … नारी बल का उपयोग ना करते हुए भी बहुत बलशाली है प्रभावशाली है … 👏👏💐🙏🏼
बहुत सारगर्भित आलेख व समाचीन कविताएँ ,,,महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों के साथ सुंदर चित्र
बहुत बधाई।
Thank you for every other informative web site. Where else may just I am getting that type of information written in such an ideal way? I’ve a venture that I’m simply now operating on, and I’ve been at the glance out for such information.