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देश : संस्कृति या स्वाभिमान

               – अजय “आवारा”

देश, एक सीमा में बंधा भूमि का टुकड़ा मात्र नहीं है। न ही देश कुछ लोगों का समूह मात्र है और न ही देश एक शासन व्यवस्था का नाम है। देश, एक संस्कृति है, वहां रहने वाले लोगों की सांस्कृतिक पहचान है।
देश, यूं ही नहीं बन जाते। जब कुछ समूह, एक विशेष परंपरा एवं रीति के अनुसार अपना जीवन यापन करते हैं एवं अपने समाज के लिए कुछ नियमों की व्यवस्था कर देते हैं तो उस व्यवस्था को हम देश का नाम दे सकते हैं। इस व्यवस्था में देश के प्रति आदर होता है, सम्मान होता है और साथ में होते हैं हमारे कर्तव्य। यह आवश्यक नहीं है कि उस देश का शासक कौन है ?आवश्यक यह है कि उस देश की संस्कृति क्या है ? उस देश की विचारधारा क्या है? कोई भी देश अपनी खुद की पहचान नहीं रखता। वहां की संस्कृति उस देश की पहचान होती है। उस देश की सांस्कृतिक विशेषता ही उस देश को विशेष बनाती है।
देश, मात्र शासन एवं शासन व्यवस्था से नहीं चलते। देश चलते हैं, विचारधारा से । देश अधिकार का विषय नहीं है, बल्कि यह कर्तव्य परायणता की विषय वस्तु है।अगर वहां की शासन-व्यवस्था अपने नागरिकों को अधिकार देती है, तो उसका सम्मान करना नागरिकों का कर्तव्य है। देश की परिभाषा तब सार्थक होती है जब हम अपनी समस्याओं को समाधान की ओर ले जाते हैं न कि विवाद की ओर। देश धर्म व जाति की व्यवस्था नहीं, एक विचारधारा का प्रवाह है। विचारधारा ही किसी देश को सम्मान दिलाती है और यही श्रेष्ठता,पहचान है हमारे भारत की।

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