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चांद ने चुरा लीं रोटियां

जय चक्रवर्ती

1.
प्रभो! मेरा लिखा इस सृष्टि का श्रंगार बन जाए,
दहकती नफरतों की आग में जलधार बन जाए,
झुकाएं लेखनी के सामने खुद शीश तलवारें,
जरूरत जब पड़े खुद लेखनी तलवार बन जाए।

2.
रहेगी साँस जब तक मैं सदा बेबाक बोलूंगा,
उजाले पर अँधेरे की चढ़ी हर पर्त खोलूंगा,
भुला देगा समय निर्मम मुझे मालूम है लेकिन,
समय की दास्तानों में मैं अपना अक़्स घोलूँगा।

3.
उठाने के लिए खुद को नहीं हरगिज़ गिरूंगा मैं,
रहे कुछ आग ज़िन्दा इसलिए पल पल जलूँगा मैं,
मरूँगा, पर मरूँगा मैं नहीं, मैं अग्निपाखी हूँ,
जला भी दो तो अपनी राख से फिर जी उठूँगा मैं।


लोकप्रिय और वरिष्ठ कवि जय चक्रवर्ती जी द्वारा रचित चंद मुक्तक मैंने आपके लिए प्रस्तुत किये। पिछले एपिसोड में मैंने आम से खुद को ख़ास बनाने वाले कलीमुल्लाह खान साहब से आप को मिलवाया था और आज मैं आम जन के ख़ास कवि जय चक्रवर्ती जी से आप सबको मिलवाऊंगी।
चक्रवर्ती जी को मैंने आम जन का ख़ास कवि इसलिए कहा क्योंकि आपके लेखन का मुख्य प्रयोजन व्यवस्था की ख़ामियों को उजागर करना और आम आदमी की पीड़ा को स्वर देना ही है।

प्रकाशित कृतियां:
1. संदर्भों की आग (समकालीन दोहा-संग्रह)
2. थोड़ा लिखा समझना ज्यादा (नवगीत-संग्रह)
3. ज़िन्दा हैं आंखें अभी (समकालीन दोहा-संग्रह)
4. हमारे शब्द बोलेंगे ( मुक्तक-संग्रह)

5. सुनो समय को ( देश के चुनिंदा दोहाकारों के प्रतिनिधि दोहों का संकलन) : संपादित

6. ज़िन्दा हैं अभी संभावनाएं’ ( नवगीत-संग्रह)
7. आख़िर कब तक चुप बैठूँ ( ग़ज़ल-संग्रह)

प्रकाशन : हंस, वागर्थ, इंद्रप्रस्थ भारती, वर्तमान साहित्य, अक्षर पर्व, गगनांचल, विभोम स्वर,अभिनव इमरोज़, युगीन काव्या, समांतर, साक्षात्कार, साहित्य भारती, सदीनामा, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला सहित देश की अधिकांश पत्र पत्रिकाओं में गीतों, नवगीतों, दोहों, ग़ज़लों आदि का नियमित प्रकाशन।

संपादन:
साहित्यिक मासिकी ‘ अंतराल’ का कई वर्षो तक साहित्य संपादन
वार्षिक साहित्यिक पत्रिका ” अवध केसरी” का विगत आठ वर्षों से संपादन
मासिक साहित्यिक पत्रिका ‘ दि अंडर लाइन ‘ के समकालीन दोहा विशेषांक का संपादन

– वर्ष 2000 के बाद के लगभग सभी प्रमुख नवगीत संकलनों, दोहा संकलनों के सहभागी रचनाकार.

– अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में निरंतर उपस्थिति एवं जन संवाद.

– अनेक प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरस्कृत।

संप्रति: भारत सरकार के महत्वपूर्ण सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठान आई टी आई लिमिटेड में वरिष्ठ राजभाषा एवं जनसंपर्क अधिकारी के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन में संलग्न हैं।

आप का एक सुप्रसिद्ध गीत जो मुझे भी बहुत ही पसंद है-

“चांद ने चुरा ली रोटियां”……..

वृंदावन
आग में दहे,
कान्हा जी रास में मगन।

चाँद ने
चुरा ली रोटियां
पानी खुद पी गई नदी।
ध्वंस-बीज लिए
कोख में
झूमती है बदचलन सदी।

वृंदावन
भूख से मरे,
कान्हा जी जीमते रतन।

क़ैद में-
कपोत -बुलबुलें
साँसों में बिंधी सिसकियाँ।
पहरे पर हैं
बहेलिए शीश धरे
श्वेत कलँगियाँ।

वृंदावन
दहशतें जिये,
कान्हा जी भोगते शयन।

रोशनी की बात कह गया,
सूरज वह
फिर नहीं फिरा।
कोहरे की पीठ पर चढा
फिर रहा है-
वक़्त सिरफिरा।

वृन्दावन
जागरण करे,
कान्हा जी बाँटते सपन।

3 thoughts on “चांद ने चुरा लीं रोटियां

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