आप सब जानते ही हैं कि चुभन पर हमारा प्रयास यह रहा है कि साहित्य, कला और संस्कृति के आधार पर हम पूरे देश को एक साथ लाएं, आपस में एक दूसरे के साथ भावों और विचारों का आदान-प्रदान करें। इस उद्देश्य के तहत हमने बहुत से कार्यक्रम चुभन से प्रसारित भी किये, जिन्हें आपने सुना और सराहा भी। दक्षिण भारत की हर क्षेत्रीय भाषा और साहित्य पर हमने कार्यक्रम दिए, उसी कड़ी में आज हम तेलुगु भाषा के लोकप्रिय कवि सिराजुद्दीन जी के विचारों और उनकी रचनाओं को सुनेंगे। आप जितने प्रसिद्ध अपनी तेलुगू रचनाओं को लेकर हैं उतना ही सुंदर लेखन आपका उर्दू और हिंदी में भी है। सिराजुद्दीन जी वारंगल से हैं, जो तेलंगाना राज्य का दूसरा सबसे बड़ा नगर है। वारंगल को तेलंगाना की सांस्कृतिक राजधानी भी कहा जाता है।
सिराजुद्दीन जी ने हिंदी के प्रति अपने लगाव का कारण कुछ इस प्रकार कहा-
” मै ये मानकर चलता हूँ, कि अगर कोई शख्स शायर है तो वह सारे जहां का दोस्त होता है। वह विश्व के सभी लोगों, भाषा संस्कृति, रीतियों आदि से प्यार करता है। तो हिंदी तो मेरे देश की माँ भाषा है। हमारा देश बहुत विशाल है, यहां कई भाषाओं का होना स्वाभाविक है। देश के कई प्रांतो मे बहुत सी और भी भाषाएँ हैं। मेरी अपनी मादरी जुबान भी अलग है, जो कि उर्दू है। बावजूद इसके मैंने मेरे प्रांत (तेलंगाना) की भाषा तेलुगु भी सीखी है। इसी तरह हिंदी मेरे देश की माँ भाषा है। इसे सीखना भी ज़रूरी था। आज तो ग्लोबलाइज़ेशन का दौर है, हर व्यक्ति को अपनी मातृ भाषा के साथ-साथ देश की माँ भाषा को भी सीखना ज़रूरी है। इसलिए मैने हिंदी को भी सीखा है।”
सिराजुद्दीन जी ने अमन और शांति की स्थापना के लिए एक नए त्यौहार को मनाने की परंपरा आरंभ की।उनकी सोच थी कि काश ये दुनिया भी उनके घर जैसी शांति औऱ सुकून से भरी होती तो अच्छा होता।वे सोचते थे कि क्या वो दुनिया को अपने घर की तरह बना भी सकते हैं या नहीं ?
और इसी सोच ने उनसे एक नई ईद की शुरुआत करवा दी।
आपका मानना है कि आदमी के नाम की, इंसानियत के नाम की एक ईद होनी जरूरी है।
औऱ आपने अपनी किताब के ज़रिए साल 1995 में एक नई ईद को प्रस्तुत कर दिया। दुनिया में अमन भाईचारे के लिए बनाई गई इस ईद का नाम आपने “वर्ल्ड पीस फेस्टिवल”, रखा। ये ईद 1997 से वारंगल के स्कूलों, कॉलेजों, गाँव शहर हर जगह मनाई जा रही है।
भारत मे जन्मी इस ईद को दुनिया भर में फैलाने के लिए World Peace Festival Society नाम से एक अंतरराष्ट्रीय शांति संस्था का भी आपने रेजिस्ट्रेशन करवाया। तो हम कह सकते हैं कि सिराजुद्दीन जी जितने अच्छे रचनाकार हैं, उतने ही अच्छे व्यक्ति भी।
सिराजुद्दीन जी के साथ ही आज हमारे साथ होंगी, तमिलनाडु से रम्या थंगम जी, जिन्होंने जितना सुंदर और भावपूर्ण लेखन अपनी मातृभाषा तमिल में किया उतना ही हिंदी में भी।
हिन्दी के प्रति अपने लगाव का कारण बताते हुए उन्होंने कहा-
” जब मैं छोटी थी तब मेरे पिता एक बड़ी कंपनी में काम कर रहे थे। वहां नेपाली और उत्तर भारतीय लोग भी काम करते थे।हम लोग क्वार्टर्स में रहते थे। कंपनी में बहुत सुविधाएं थीं। कंपनी की स्कूल बस में जाते थे हम लोग। रीक्रिएशन क्लब है तो हम लोग बच्चों के साथ खेलते थे। स्कूल जाते थे तो आपस में बातें भी करते थे, इसलिए मुझे थोड़ा हिंदी सीखने का अवसर मिला।
करस्पांडन्स कोर्स द्वारा हिन्दी वर्णमाला सीखी। फिर कालेज गयी। वहां भी एक उत्तर भारतीय सहेली मिली। वह भी मुझे हिंदी सिखाती थी। कालेज के बाद नौकरी के लिए दादरा नगर हवेली गयी। वहां मैं अच्छी तरह हिंदी बोलना सीखी। फिर तमिलनाडु आकर शादी के बाद मैंने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के द्वारा आयोजित की जानेवाली हिंदी परीक्षाएं की। एम.ए.की डिग्री प्राप्त की। उस के बाद हिंदी ट्यूशन सेन्टर खोलकर बच्चों कों हिंदी सिखाती हूं। साथ ही साथ तमिल और हिंदी में कविताएं और कहानियां भी लिखती हूं।”
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में हर वर्ष परीक्षाएं होती है, इनमें बच्चों को रम्या जी पढ़ाती भी हैं। आपका कहना है कि हर भाषा का अपना अलग महत्व होता है। हिंदी सीखने वालों को व्याकरणिक समस्या होती है। उसको भी वे अध्ययन करके अपने छात्रों को सिखाती हैं। अनुवाद का कार्य भी करती हैं।
“केंद्रीय हिंदी निदेशालय” द्वारा आयोजित किये जानेवाले ‘हिंदीत्तर भाषी नवलेखक शिविर’ में आपको भी बुलाया गया। इस में उन्होंने अपनी कविताएं, कहानियां, संस्मरण आदि सुनाई थी। अंत में एक प्रतियोगिता रखी गई। ‘आप लेखक क्यों बनना चाहते हैं ‘. इस में उन्हें प्रथम पुरस्कार मिला। इसमें प्रख्यात कवि एवं साहित्यकार अग्निशेखर जी जज थे।
अग्निशेखर जी द्वारा पुरस्कृत होते हुए।
ऐसे तीन शिविर में रम्या जी को बुलाया गया था, पॉन्डिचेरी, बैंगलोर और जम्मू।
तो आज “चुभन पॉडकास्ट” पर आप सिराजुद्दीन जी और रम्या जी के साथ हुए मेरे पूरे संवाद को सुनें।
एक एक बात सच है
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