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नारी स्वतंत्रता-प्रश्नचिन्ह

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर मैंने जो लेख प्रकाशित किया था उसमें मैंने यह लिखा था कि कई ऐसे प्रश्न हैं नारी स्वतंत्रता के बारे में जो मेरे दिल में चुभन जगाते हैं।ऐसे कई सवाल मेरे दिल में हैं जिनको मैं कहना भी चाहती हूँ और उनका जवाब भी चाहती हूँ।आज के समय में ‘स्वतंत्रता’ शब्द सर्वाधिक चर्चित है और इस शब्द की लोकप्रियता का नतीजा यह हुआ है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार स्वतंत्रता के अलग-अलग अर्थ ग्रहण करता है।अधिकांश मनुष्य स्वतंत्रता का अर्थ मनमानी करने से या अपनी इच्छानुसार कार्य करने से लेते हैं।स्वतंत्र विचारक स्वतंत्रता का अर्थ प्राचीन परम्पराओं और बन्धनों से मुक्त होने से लेते हैं,साधु-सन्यासी स्वतंत्रता का तात्पर्य सांसारिक बन्धनों से मुक्ति लेते हैं और गुलाम देश के लोग स्वतंत्रता को स्वराज्य का पर्यायवाची समझते हैं किन्तु वास्तव में स्वतंत्रता क्या है? देखा जाए तो ‘बन्धनों का अभाव’ ही स्वतंत्रता है किन्तु मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह समाज में रहते हुए असीमित स्वतंत्रता का उपयोग नही कर सकता।मेरे विचार से स्वतंत्रता दो तत्वों से मिलकर बनी है-एक बन्धनों का अभाव तथा दूसरा नियमों का पालन।दूसरे शब्दों में स्वतंत्रता जीवन की एक ऐसी अवस्था है जहाँ मनुष्य के जीवन पर न्यूनतम प्रतिबन्ध हो और उसके साथ ही साथ उसे अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिक से अधिक सुविधाएँ भी सुलभ हों।

विचारणीय मुद्दा यहाँ पर यह है कि नारी स्वतंत्रता का क्या तात्पर्य है?इस बात का जवाब हर कोई अपने तरीके से दे रहा है या यों कहें कि नारी की स्वतंत्रता का प्रश्न आज सबके लिए अलग-अलग हो गया है।वर्तमान समय में महिलाएं जितना कुछ कर रही हैं,उतना ही उनके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगता जा रहा है।आज मैं इतिहास के पन्ने पलट कर महिलाओं की स्थिति जानने का प्रयास नही करुँगी,क्योंकि इस विषय पर हम सभी पहले ही बहुत कुछ पढ़ चुके हैं और सीता-सावित्री आदि के आदर्श सामने रखकर महिलाओं का काफी शोषण किया गया है।आज जबकि महिलाएं हर क्षेत्र में इतना आगे बढ़ चुकीं है,फिर भी अगर गौर से देखें तो उनकी स्थिति कोई बहुत अच्छी नही है।इसका कारण क्या है?मेरे ख्याल से इसका मुख्य कारण महिलाएं खुद हैं।पढ़ने में शायद आपको यह बात चौंकाने वाली लगे लेकिन है यह वास्तविकता।आप कहेंगे कि महिलाएं स्वयं ही क्यों अपनी स्थिति को गिराएंगी?लेकिन ऐसा हो रहा है।कम पढ़ी-लिखी महिलाएं यदि अपनी परतंत्र स्थिति की ज़िम्मेदार ठहरें तो किसी हद तक हम उन्हें माफ़ कर भी सकते हैं लेकिन महिलाओं का वह वर्ग जो बुद्धिजीवी है या समाज में ऊँचे-ऊँचे पदों पर आसीन है,वह ही कुछ ऐसी बातें करे जिससे स्वयं ही महिलाओं की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह लगे तो यह मुद्दा शोचनीय हो जाता है।

सबसे पहले मैं बांग्लादेश की चर्चित लेखिका तसलीमा नसरीन की पुरस्कृत कृति ‘औरत के हक में’ में कही गयी कुछ बातों का विश्लेषण करुँगी।तसलीमा नसरीन जी ने इस पुस्तक में एक स्थान पर लिखा है-

“…………..मेरे भाई ने गर्मी लग रही है,कहते हुए आँगन में बैठकर सबके सामने शर्ट उतार दिया था।उससे ज़्यादा गर्मी में छटपटाते हुए भी मैं,उसकी हमउम्र बहन होने के बावजूद,इतनी आसानी से कपड़े नही उतार पाई।”

एक पढ़ी-लिखी इतनी बड़ी लेखिका की इतनी संकुचित सोच।क्या पहनावे उढावे से ही हम स्वतंत्र या परतंत्र बन जाते हैं?विचारों से चाहे जैसे भी हम हों पर आधुनिक कपड़े पहनकर जो चाहे हम पर अच्छे भी न लगते हों और उन्हें पहन कर चाहे हम सहज भी न महसूस करते हों पर मॉडर्न और स्वतंत्र दिखने की होड़ आजकल बहुत सी महिलाओं और कम उम्र की लड़कियों से भी ऐसा ही करवा रही है।इस समय हमारे देश की रक्षा मंत्री निर्मला सीतारामन और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के उदाहरण हमारे सामने हैं जो विचारों से पूरी तरह आधुनिक और स्वतंत्र होते हुए भी अपनी वेशभूषा को पारम्परिक तरीके से अपनाए हुए हैं।यही पर मैं एक बात का स्पष्टीकरण दे देना चाहूंगी कि मैं कोई वेशभूषा को लेकर यह नही कहती हूँ कि किसी भी महिला पर कोई बंधन या नियंत्रण होना चाहिए लेकिन सिर्फ यह सोच कि पहनावे से ही हम स्वतंत्र या परतंत्र हो जाएँगे अपनी इस सोच को महिलाओं को बदलना होगा। मैंने देखा है बहुत सी महिलाएं चाहे कोई भी कार्य कर सके या नही पर आधुनिक कपड़े पहनकर स्वयं को पढ़ा लिखा और मॉडर्न प्रदर्शित करने में नहीं चूकतीं।ऐसे विचारों की महिलाओं के कारण पूरे समाज में उनकी दशा और गिरती है।जो भी ड्रेस जिसमे आप स्वयं को सहज महसूस करें और आप को अच्छा भी लगे वहीँ पहने लेकिन सिर्फ दिखावा करने को कि मैं मॉडर्न हूँ या किसी की देखा-देखी ऐसे कपड़े पहनना जिनमें काम करना भी कठिन लगे या सहज न महसूस हो तो मुझे तो नही समझ आता कि कुछ महिलाएं ऐसा क्यों करती हैं?ऐसा करते हुए इस सोच की महिलाएं या जैसा तसलीमा जी ने लिखा यह कैसे भूल जाती हैं कि प्रकृति के द्वारा भी सभी व्यक्तियों को समान शक्तियां प्रदान नही की गईं हैं।साधारणतया स्वतंत्रता या समानता का लोग यही अर्थ निकालते हैं कि मनुष्य जन्म से ही समान है और इसी कारण सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त हैं लेकिन देखा जाए तो असमानता दो प्रकार की है-एक तो वह है जिसका मूल प्रकृति द्वारा विभिन्न व्यक्तियों में किया गया बुद्धि,शारीरिक संरचना,बल और प्रतिभा का भेद है,इस भेद के कारण जो असमानता उत्पन्न होती है,उसे प्राकृतिक असमानता कहते हैं।इस प्राकृतिक असमानता का निराकरण संभव और उचित नही है।

अतः यह बात स्पष्ट हो जाती है कि तसलीमा नसरीन के मन में जो यह ग्रंथि है कि उसके भाई ने सबके सामने कमीज उतार कर अपनी स्वतंत्रता प्रदर्शित की और वह ऐसा न करके परतंत्र हो गई,यह बात बिलकुल बचकाना है।प्रकृति ने ही जब शारीरिक संरचना अलग तरह से कर के नारी को भिन्न बनाया है तो फिर प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करना उचित नही।फिर यदि नारी में लज्जा है भी तो लज्जा कोई परतंत्रता का पर्यायवाची नही है।

समाज में दूसरे प्रकार की असमानता वह है जिसका उदय समाज द्वारा पैदा की गईं विषमताएं हैं।इनका निराकरण अवश्य हम कर सकते हैं जैसे लड़कियों की शिक्षा,स्वास्थ्य आदि पर ध्यान देकर और उनको अधिक से अधिक अवसर दिलाकर।ऐसा नही है कि मैं तसलीमा जी की सभी बातों से असहमत हूँ,बल्कि बहुत सी बातें उन्होंने ऐसी उठाई हैं जो सही हैं,लेकिन उपरोक्त प्रकार की बात करना एक ऐसी महिला का बिलकुल बचकाना लगता है।इस दृष्टि से देखें तो फिर तो स्वतंत्रता बिलकुल सतही चीज़ हो गई और बड़े-बड़े नाम जिन्होंने वह सब कुछ किया जो शायद पुरुषों के लिए भी असंभव होता उनकी सोच गलत हो जाती क्योंकि ऐसी महिलाओं ने इन सतही बातों पर कभी ध्यान न देकर अपने अन्दर की ताकत को पहचाना और वास्तविक स्वतंत्रता को प्राप्त करने की कोशिश की लेकिन दूसरी तरफ हमारे समाज में ऐसी भी बहुत सी महिलाएं हैं जो तसलीमा जी द्वारा कही गई इस प्रकार की बातों को अपनी प्रेरणा मान लेती हैं।ममता कुलकर्णी,पूजा बेदी और अंजली कपूर जैसी न जाने कितनी महिलाएं नग्न तसवीरें खिंचवा कर अपनी स्वतंत्रता का प्रदर्शन करती हैं।बहुत से लोग इन कार्यों को आधुनिकता और स्वतंत्रता का परिचायक मानते हैं,लेकिन देखा जाए तो यह कार्य स्वतंत्रता का नही वरन मेरे विचार से तो परतंत्रता का ही एक रूप है,क्योंकि इन महिलाओं की नज़र में स्वतंत्रता प्राप्त करना क्या इतना आसान हो गया है कि कपड़े उतारो और स्वतंत्र हो जाओ।ऐसा करते हुए ये महिलाएं क्यों भूल जाती हैं कि वास्तविक स्वतंत्रता कुछ और ही है जो हमारे तन से ज़्यादा मन की है।

हमारे देश में ऐसी महिलाओं का एक लम्बा इतिहास रहा है,जिन्होंने लैंगिक रूढ़ियों को तोड़ा है और पुरुष प्रधान समाज में शीर्ष मुकाम बनाने वाली पहली महिला बनीं।ऐसी महिलाओं ने देश को गौरवान्वित किया है।ज़्यादा पिछले वर्षों में न जाते हुए मैं अभी बिलकुल कुछ सालों के अन्दर जो विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं ने अपना योगदान दिया है सिर्फ उसकी चर्चा करुँगी क्योंकि हमारा इतिहास तो इतना गौरवशाली और लम्बा रहा है कि अगर शुरू से महिलाओं के योगदान के बारे में लिखने को कह दिया जाए तो कई दिनों तक लगातार लिखना पड़ेगा।गणतंत्र दिवस परेड 2019 में पुरुषों की टुकड़ी का नेतृत्व करने वाली पहली महिला सेना अधिकारी बनकर इतिहास रचने वाली लेफ्टिनेंट भावना कस्तूरी का योगदान अविस्मरणीय है।अरुणिमा सिन्हा 2013 में माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाली दुनिया की पहली दिव्यांग महिला बनीं।प्रांजल पाटिल भारत की पहली दृष्टिबाधित महिला आईएएस अधिकारी बनीं।पिछले वर्ष आपने केरल में एर्नाकुलम जिले के सहायक कलेक्टर के रूप में कार्यभार संभाला।डॉ जीसी अनुपमा फरवरी 2019 को देश में पेशेवर खगोलविदों के प्रमुख संघ,एस्ट्रोनोमिकल सोसाइटी ऑफ़ इंडिया की पहली महिला प्रमुख बनीं।फ्लाईट लेफ्टिनेंट हिना जायसवाल ने 16 फरवरी 2019 को भारतीय वायु सेना में शामिल होने वाली पहली महिला फ्लाईट इंजीनियर बनकर देश को गौरव दिलाया।फ़्लाइंग ऑफिसर अवनि चतुर्वेदी 19 फरवरी 2018 को लड़ाकू विमान को अकेले उड़ाने वाली पहली भारतीय महिला बनीं।उन्होंने एक मिग-21बाइसन को उड़ाया था।शांति देवी भारत में पहली महिला ट्रक मकैनिक बनीं और 20 से अधिक वर्षों से काम कर रही हैं।कविता देवी ने WWE में पहली भारतीय महिला पहलवान बनकर इतिहास रचा।ऊषा किरण छत्तीसगढ़ के उग्रवाद प्रभावित बस्तर क्षेत्र में तैनात होने वाली CRPF की पहली महिला अधिकारी बनीं।यही नही वे ऐसी पहली महिला CRPF अधिकारी हैं,जो कोबरा का हिस्सा हैं और कोबरा CRPF की एक विशेष इकाई है जो गुरिल्ला रणनीति और जंगल युद्ध में कुशल हैं।हमारी फिल्म इंडस्ट्री में भी ऐसी महिलाओं की कमी नही है।आज विद्या बालन,कंगना रनोट और रानी मुखर्जी जैसी अभिनेत्रियाँ अपनी शर्तों पर परदे पर आती हैं और अपनी भूमिकाओं को अपने अभिनय से दर्शकों के लिए स्वीकार्य  बनाती हैं।आलिया भट्ट जैसी अभिनेत्री ‘उड़ता पंजाब’ और ‘हाइवे’ जैसी फिल्म में अपने किरदार के लिए बगैर मेकअप तक आने में संकोच नही कर रहीं।यह वे अभिनेत्रियाँ हैं जिन्हें अपने किरदार पर और अपने अभिनय पर यकीन है।आज के समय में एक खास बात यह हुई है कि यह अभिनेत्रियाँ जितनी सशक्त और स्वतंत्र परदे पर अपने किरदार के साथ दिखती हैं,उतनी ही परदे के बाहर भी।एक अकेली कंगना रनौत ने जिस तरह से बॉलीवुड के तमाम ठेकेदारों का अकेले मुकाबला किया ,चाहे वह वंशवाद का मामला हो या ऋतिक रोशन से जुड़ा विवाद, वह काबिलेतारीफ है।यह आज की महिलाओं की सशक्त और स्वतंत्र होती छवि को भी प्रतिबिंबित करता है।यहाँ मैं कंगना की फिल्म मणिकर्णिका–द क्वीन ऑफ़ झाँसी की इन पंक्तियों को देना चाहूंगी “जब बेटी उठ खड़ी होती है,तभी विजय बड़ी होती है।”

थोड़ा-सा भी हम अपने आस-पास झाँकने का प्रयत्न करें तो ऐसे एक नही लाखों उदाहरण मिल जाएँगे लेकिन मजबूरी यह है कि हममे से कितने लोग ऐसा करने या बनने की कोशिश करते हैं।बहुत सी महिलाएं कहेंगी कि अरे इतने बड़े-बड़े काम अब सभी थोड़ी ही कर सकते हैं।मैं भी यह मानती हूँ कि ऐसे उदाहरण हर महिला नही पेश कर सकती लेकिन हम किसी भी स्तर पर हों अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व,स्वतंत्र अस्तित्व की रक्षा तो कर ही सकते हैं।अधिकांश मध्यमवर्गीय परिवार की महिलाओं की यह आम शिकायत रहती है कि वे तो पति और बच्चों की सेवा में ही व्यस्त रहती हैं।गृहस्थी के काम करने में और बच्चों के पालन-पोषण में भी वे हीनता का अनुभव करती हैं,किन्तु अब्राहम लिंकन,शिवाजी,नेपोलियन,महात्मा गाँधी और अन्य अनेक महापुरुषों ने अपने जीवन को ढालने में माताओं का ऋण स्वीकार किया है।एक रुसी लेखक ने तो यहाँ तक कहा है कि “आप मुझे 60अच्छी माताएं दो और मैं आपको एक अच्छा राष्ट्र दे दूंगा।” यह कथन राष्ट्र-निर्माण में माताओं के योगदान को स्वीकार करता है।माँ यानि औरत के स्वतंत्र व्यक्तित्व का यह भी एक रूप ही है।

महिलाओं को यह शिकायत भी रहती है कि वे स्वतंत्र नही हैं,क्योंकि उनके पास कोई भी अधिकार नही हैं।उनका सोचना है कि सारे अधिकार पुरुषों के पास ही हैं।बहुत हद तक यह बात सच भी है लेकिन इसका बहुत बड़ा कारण हम महिलाएं स्वयं भी हैं।हम खुद तो बिलकुल प्रयत्नशील नही होते और दोष समाज पर मढ़ देते हैं।ऐसी बहुत सी महिलाओं के उदाहरण हमारे सामने हैं जिन्होंने अपने अधिकारों के लिए लड़कर अधिकार प्राप्त किये और अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व का निर्माण किया लेकिन इसके पीछे हमें यह भी देखना होगा कि इन महिलाओं ने अधिकार प्राप्त करने के लिए कितना प्रयत्न किया,कितने कर्तव्यों का निर्वाह किया।अधिकार कर्तव्य का तथा कर्तव्य अधिकार का प्रतिबिम्ब मात्र है।एक के अंत से दोनों का ही अंत निश्चित हो जाता है।महिलाओं की गिरती हुई स्थिति का एक और कारण यह भी है कि महिलाएं अपने अधिकारों का तो उपभोग करना चाहती हैं लेकिन कर्तव्य पालन के प्रति उदासीन हैं।

आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन करें तो हमें अपने अधिकार स्वतः मिल जाएँगे।हमारा सबसे बड़ा कर्तव्य यह है कि हम स्वतंत्रता का अर्थ इतना संकुचित न लें,उसे इतना अस्थाई न समझें बल्कि वास्तविक स्वतंत्रता प्राप्त करें जो कि स्थाई है और जिसमे हमें आत्मसंतोष की प्राप्ति हो।सतही स्वतंत्रता सिर्फ कुछ दिनों का प्रचार है,जबकि विचारों की वास्तविक स्वतंत्रता मेरे विचार से स्थाई स्वतंत्रता की परिचायक है।

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