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आवारा की बातें

दोस्तों, हम सभी कभी न कभी ऐसा महसूस करते ही हैं कि हम अपने उद्गार कहीं व्यक्त नहीं कर पा रहे या कोई ऐसा प्लेटफॉर्म हमें नहीं मिलता, जहां हम स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करें।
हमारे ‘चुभन’ के प्लेटफॉर्म से काफी समय से जुड़े हुए बंगलुरू के वरिष्ठ साहित्यकार अजय ‘आवारा’ जी को भी ऐसा ही कुछ भाव मन में रहता था, जिसका जिक्र जब उन्होंने किया तो हमने आज से एक स्तंभ (Column) शुरू किया है, जिसमें श्री अजय ‘आवारा’ जी आप सबके साथ रूबरू होंगे।उनको स्तंभ लेखक के रूप में ‘चुभन’ की तरफ से शुभकामनाएं।
‘आवारा की बातें’ शीर्षक से आप उनकी रचनाओं को पढ़ और पॉडकास्ट में सुन सकेंगे।आज उन्होंने जिस विषय को उठाया है, वह बहुत ही ज्वलंत मुद्दा है-“सिकुड़ती सनातन संस्कृति”।
चलिए आपके विचार जानते हैं।

“सिकुड़ती सनातन संस्कृति”

किसी समय, ज्ञान का एकमात्र स्रोत रही सनातन संस्कृति, आज संदेह के घेरे में है। जिस संस्कृति ने, मानव को ज्ञान की राह दिखाई, वहीं संस्कृति, आज गंवारों की संस्कृति कहीं जा रही है। आखिर, समस्या कहां है? क्या विश्व की प्राचीनतम संस्कृति, जिसने मानवता के लिए, न सिर्फ धर्म का ही बीज बोया, बल्कि विज्ञान की नींव भी सनातन ने ही रखी। इतना ही नहीं, सनातन ने विज्ञान की हर शाखा को प्राचीन काल में भी अपने उत्कर्ष तक पहुंचाया।
आज भी नए आविष्कारों के आधार, सनातन के इतिहास में दबे मिल ही जाएंगें। फिर क्या कारण है कि वह सनातन संस्कृति, जिसने मानव के लिए ज्ञान की रोशनी को जमीन पर उतारा, आज वही स्वय अंधेरे में घिरती जा रही है। क्या, सनातन के ध्वज धारक खुद ही उदासीन हो चुके हैं?
इसे, एक विडंबना ही कहा जाएगा, कि जिस सनातन ने मानव को साहित्य प्रदान किया, वही आज सब लोगों की संस्कृति के नाम से पुकारी जा रही है।
शायद इसके लिए वही लोग जिम्मेदार हैं, जिनके कंधों पर इस संस्कृति के पोषण का भार है। स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने की जिद, आपसी बैर और फूट ने विदेशी आतताइयों को हम पर हावी होने दिया। उन विदेशी आतताइयों ने अपना काम बड़ी खूबी से किया। उन्होंने अपनी संस्कृति को, हमारे लहू से सींच दिया। परिणाम स्वरूप उधार संस्कृति वृहद हो गई और सनातन हो गया गौण।
जो संस्कृति, विश्व में ज्ञान-विज्ञान, धर्म, आचरण एवं मानवता की ध्वज वाहिनी रही, वही आज अपने ही घर में विरोध एवं अवहेलना की शिकार हो रही है।
आज, सनातन संस्कृति के पालकों को, सिर्फ रूढ़िवादी कहकर किनारे ही नहीं किया जा रहा, बल्कि अब तो उन पर पिछड़ेपन का लेबल भी लग गया है। सनातन के अस्तित्व को नकारने के लिए कितने ही तर्क दिए जा रहे हैं। वह भी, हमारे अपने ही लोगों द्वारा। आज, सनातन के अस्तित्व को साबित करने के लिए, उसे अवशेषों में खोजा जा रहा है। जाने क्यों, हम स्वयं के आधार को मिटाने में लगे हुए हैं। क्या हम स्वयं के ही अस्तित्व से मुंह मोड़ रहे हैं?

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