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बिखरते परिवार, लुप्त होती परंपराएं

आमतौर पर, हमें लगता है कि परिवार रिश्तो का बंधन है। परिवार रिश्तों में कर्तव्य एवं अधिकारों की व्यवस्था है। परंतु ऐसा नहीं है। वस्तुतः परिवार की नींव दो ऐसे लोगों के संबंध एवं मिलन से पड़ती है जो एक दूसरे से बिल्कुल अनजान होते हैं। तब हम किस आधार पर परिवार को रिश्तो की परिभाषा में बांधते हैं? परिवार वह व्यवस्था है, जहां विभिन्न गुण संपन्न लोगों को आपसी समझ एवं सहयोग से अपनी व्यवस्था को चलाना होता है। जैसे बुजुर्ग लोगों के पास अनुभव होता है एवं युवा शक्ति बुजुर्ग के मार्गदर्शन में काम करती हैं। अधिकार एवं कर्तव्य समय के अनुसार प्राप्त होते हैं। यह बात मानने योग्य है कि परिवार की जो व्यवस्था योग्यताओं एवं सहयोग के आधार पर बनाई गई थी, उसमें कुछ योग्यताओं ने दूसरी योग्यताओं को अपने अधीन कर उन पर दुर्भावना का प्रभाव डालना शुरू किया। परंतु हमने बदलाव के नाम पर उस दुर्भावना को खत्म करने की जगह बस उसकी दिशा मात्र बदल दी है। परंतु दुर्भावना वैसे की वैसे ही बनी रही। अब सवाल यह उठता है, कि व्यवस्था में बदलाव क्या पारिवारिक व्यवस्था की आस्था पर चोट नहीं है? क्या विचारों के बदलाव का एक मात्र ध्येय सिर्फ पारिवारिक व्यवस्था का विरोध करना ही है? क्या हम इस व्यवस्था की कमियों को दूर कर इस व्यवस्था को और मजबूत नहीं कर सकते? ऐसा क्या कारण है कि अब इस व्यवस्था को समाप्त करने पर तुल गए हैं? शायद, अब हम एक-दूसरे पर निर्भर नहीं हैं। वस्तुतः पारिवारिक व्यवस्था एक दूसरे की निर्भरता को साथ में ले चलने की व्यवस्था थी। परंतु क्योंकि अब हम एक-दूसरे पर निर्भर नहीं है, तो हमें किसी की आवश्यकता भी महसूस नहीं होती। चूंकि अब हमें एक दूसरे कीआवश्यकता ही नहीं होती इसलिए, हमें लगने लगा है कि यह व्यवस्था अब बूढी हो चली है। हो सकता है कि हमारे अंदर अधिकार भावना की अधिकता होती गई है, जिसने कर्तव्य-बोध को बांध दिया है। जिसने परिवार की व्यवस्था को धराशाई करने में मुख्य भूमिका निभाई है। तो क्या हमने अधिकार पाने की भावना, बराबरी की भावना एवं आधुनिकता की दौड़ में अपने ही व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया है? पारिवारिक एवं सामाजिक व्यवस्था इंसानी सभ्यता की पहचान थी और इस आधार पर ही मानव पशुओं से अलग रहा है। चूंकि हम इस व्यवस्था से बाहर आने की कोशिश कर रहे हैं। क्या हम मानवता के आधार पर ही चोट नहीं कर रहे हैं? तो क्या अब मानव सामाजिक प्राणी नहीं रहा? या हमारे अधिकार भाव इतने प्रमुख हो गए हैं कि हम सामाजिक कर्तव्य से विमुख हो समाज के आधार को ही खत्म करने पर तुल गए हैं। शायद आत्मनिर्भरता, वैयक्तिक बौद्धिकता एवं आत्म केन्द्रित होने के भाव ने इसे क्षीण कर दिया है। या, अब हमें सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती? शायद हम स्वयं में ही संपूर्ण हैं या कहीं हम संपूर्णता के भ्रम में अकेले पड़ते जा रहे हैं। हमें इस अकेलेपन का एहसास भी नहीं हो पा रहा है। पता नहीं, मानव का मानवीय रूप, मानव की बौद्धिक क्षमता एवं मानस बौद्धिक व्यवस्था अपने आप क्यों टूटती जा रही है। आइए इस पर विचार करें।

1 Comment

  • डॉ इन्दु झुनझुनवाला
    Posted December 25, 2022 at 9:49 pm

    बहुत सटीक और विचारणीय विषय।
    ये सोचने वाली बात है कि आत्मनिर्भरता, स्वतंत्रता, उच्छुखंलता और अधिकार -इन सबका अन्तर क्या है, कहीं हम वास्तव में फिर से उतने ही तो एकाकी नहीं हो रहे ,जितने आदिम जमाने मे थे,,वापस लौट रहें हैं पीछे, आधुनिकता के नकाब को ओडे।
    ये विकास के नाम पर पिछड़ापन तो नहीं?
    बहुत सही सवाल उठाया है आपने,,,वक्त फिसल रहा है,,, सोचना होगा,,,कुछ करना होगा,,,या फिर रह जाएगा इन्तजार,, एक बार शून्य से शुरू होगी यात्रा,,,, एक और मनु ,,,एक और श्रद्धा,,,,,,,,,,,

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