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भगवा,जय श्री राम या हिन्दू कहने में आपत्ति क्यों?

कुछ बातों की चर्चा मुझे लगता है कि बिलकुल अनर्गल होती है।उनपर बहस करना मतलब समय बर्बाद करना है।इस आधुनिक समाज में जहाँ करने को इतना कुछ है वहां छोटे-छोटे दकियानूसी विषयों या कह लें मुद्दों पर लम्बी-लम्बी बहस चलती है और समय बर्बाद किया जाता है जो निश्चित तौर पर दिल में चुभन देता है।लेकिन विडंबना यह है कि हम ऐसे ही हैं और सुधरने की हमारी फितरत ही नहीं है।तभी तो अभी हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब जापान में थे तो जापान में रहने वाले हिन्दुस्तानी उनका भाषण ख़त्म होने के बाद जय श्री राम के नारे लगा रहे थे,जबकि हिंदुस्तान में रहने वाले कुछ हिन्दुस्तानी सोशल मीडिया पर ‘से नो टू जय श्री राम’ का ट्रेंड चला रहे थे।अब हमारे सोचने का विषय यह है कि क्या अपने स्वतंत्र देश में जहाँ भगवान श्री राम हमारे आराध्य तो हैं ही उसके साथ उनके चरित्र की पूजा अधिक होती है और हर व्यक्ति उनके चरित्र की मिसाल लेकर आगे बढ़ना चाहता है ऐसे पूजनीय चरित्र की जयकार बुलाना क्यों गलत समझा जाता है?या इसे साम्प्रदायिकता से जोड़ दिया जाता है।इन बातों को तुरंत दो सम्प्रदायों के बीच फूट डालने के लिए इस्तेमाल करने लग जाया जाता है जबकि यह दो सम्प्रदायों के बीच का मसला बनता ही न यदि तथाकथित बड़े-बड़े नेता इन बातों पर आग में घी न डालते क्योंकि मैंने देखा है कि हमारे देश में आम मुस्लिम व्यक्ति भी श्री राम को पूरी श्रद्धा से देखता है।हमारा साहित्य और संगीत तो हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल है।मुस्लिम भक्त कवियों की प्रशंसा में भारतेंदु हरीशचंद्र ने कहा था-

“इन मुसलमान हरिजनन में कोटिन हिन्दुन वारिये।”

कृष्ण भक्ति से कई मुस्लिम कवि प्रभावित रहे।ताज नामक मुस्लिम महिला ने लिखा-

“नन्द के कुमार कुरबान तेरी सूरत पे।

हों तो मुगलानी,हिन्दुवानी है रहोंगी में।”

कृष्ण भक्ति का उज्जवल स्वरुप हमें रसखान की रचनाओं में प्राप्त होता है।पठान होते हुए भी उनका मन कृष्ण काव्य में लीन रहा।

न जाने कितने ऐसे मुस्लिम कवि हैं जिन्होंने राम और कृष्ण साहित्य को समृद्ध किया है।हम सभी उन नामों से भली-भांति परिचित हैं।वह अलग बात है कि बहुत से लोग इसे स्वीकार न करते हों।इसी प्रकार हमारा संगीत जगत भी मुस्लिम कलाकारों से भरा हुआ है जिन्होंने राम कृष्ण या भगवान को याद कर ऐसे गीत हमें दिए है कि मन भक्ति से ओत-प्रोत हो जाता है। ‘बड़ी देर भई,कब लोगे ख़बर मोरे राम’ इस गीत में मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में जो श्री राम के लिए पुकार है जिसमें अपार दर्द छलक रहा है, उसे सुनकर कहीं से भी ऐसा नही लगता कि यह गाना किसी ने ज़बरदस्ती गाया है,बल्कि एक सच्चे भक्त की पुकार ही अनुभव होती है।इसी तरह दो गीत हैं जिनका मैं यहाँ उल्लेख करना चाहूंगी-एक है कोहिनूर फिल्म का गीत ‘मधुबन में राधिका नाचे रे,गिरधर की मुरलिया बाजे रे’ और दूसरा गीत है फिल्म बैजू बावरा का ‘ओ दुनिया के रखवाले,सुन दर्द भरे मेरे नाले’ इन दोनों गीतों के गीतकार हैं शक़ील बदायूनी,संगीतकार हैं नौशाद और अपनी पाक मधुर आवाज़ से इसे सजाया है महान गायक मोहम्मद रफ़ी ने।इन गीतों को सुनकर आपमें से कोई यदि यह भेद कर दे कि इसे हिन्दू लिखता या संगीत देता और गाता तो और अच्छा गीत बनता तो मैं अपना लेखन का कार्य ही छोड़ दूंगी।ऐसे भजनों को सुनकर नौशाद,शक़ील और रफ़ी साहब की तिकड़ी को सलाम करने का ही जी चाहता है।

इतने सब उदाहरण हमारे सामने हैं और लगभग सभी इन बातों से परिचित भी हैं फिर भी पता नही कहाँ से साम्प्रदायिकता फैल जाती है।हमने तो भारत-पाक विभाजन का दौर नही देखा है लेकिन मेरे पिता और दादा आदि से सुनकर कुछ ऐसी बातें हैं जिनका मेरे ऊपर बहुत असर रहा है।हमें बताया गया कि 1947 में रेलवे स्टेशनों पर ‘हिन्दू पानी’ और ‘मुस्लिम पानी’ के बोर्ड लगे रहते थे।अर्थात ज़मीन से निकलने वाला पानी,पीने वालों के अनुकूल हिन्दू और मुसलमान हो जाया करता था।यह तो हुई उस समय की बात लेकिन आज जब हम हर क्षेत्र में स्वयं के आधुनिक होने का दम भरते हैं और इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं तो ऐसी अलगाववादी मानसिकता हमारे लिए शर्मनाक है।शायद इन्ही बातों का असर होता है कि अमेरिका के विदेश विभाग की अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट में अभी कुछ दिन पहले कहा गया है कि साल 2018 में हिन्दू कट्टरपंथी समूहों ने अल्पसंख्यकों पर हमले किये हैं।इसका जवाब देते हुए विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने एक बयान में कहा कि भारत को अपनी धर्म निरपेक्षता की विश्वसनीयता,सबसे बड़े लोकतंत्र तथा लम्बे अरसे से चले आ रहे सहिष्णु एवं समावेशी समाज पर गर्व है।वास्तविकता भी यही है कि हमें अपने धर्म निरपेक्ष होने पर सबसे ज़्यादा गर्व होना चाहिए।कोई भी धर्म क्यों न हो यह केवल हिंदुस्तान और यहाँ के लोग ही हैं जो हर धर्म का पूरा सम्मान करते हैं और इनके प्रतीकों या साफ शब्दों में कहें तो मस्जिद दरगाह,गिरजाघर सभी को एक समान आदर भारत देश में ही मिलता है(कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए क्योंकि यह जो अपवाद हैं इन्हें हम इस देश की मानसिकता मान ही नही सकते,यह कुछ गुमराह और भड़के हुए लोगों की प्रतिक्रिया कही जा सकती है।)

हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए कि हम उस देश के निवासी हैं जहाँ सर्व धर्म समभाव का पूरी तरह पालन किया जाता है और यह कोई सिर्फ दिखावा या ढकोसला ही नहीं है वरन हम वास्तव में ऐसा ही करते हैं तभी तो कोई भी धर्म रहा हो वह हमारी सभ्यता और संस्कृति में ऐसे घुल-मिल गया जैसे उसका जन्म और विकास इसी देश में हुआ हो।हम ‘धर्म’ शब्द को अक्सर रिलिजन(religion),पन्थ(path),नियम(law)अथवा नीति(ethics)के रूप में अनुवादित करते हैं परन्तु वास्तविकता तो यह है कि ये सभी अर्थ धर्म के मूल रूप को समझाने में असमर्थ हैं।सच्चाई तो यह ही है कि पारम्परिक संस्कृत शब्दावलियों में उपलब्ध धर्म के सिद्धांतों एवं दर्शन परम्पराओं का अंग्रेजी में कोई सटीक अनुवाद है ही नहीं।हमारे धर्म में विविध जीवन-शैलियाँ और विचारधाराएँ सम्मिलित हैं जो कई सदियों के दौरान विकसित हुई हैं। स्पष्ट है कि जो धर्म अनेकों जीवन-शैलियों और विचारधाराओं को अपने में समेटता हो और सदियाँ गुजर गईं हो जिसको विकसित होने में,उसपर साम्प्रदायिक और असहिष्णु होने के इलज़ाम लगें तो यह हमारे लिए शर्म और चिंता का विषय होना चाहिए।लेकिन एक बात और भी मैं स्पष्ट तौर पर कहना चाहूंगी कि जैसे अभी अमेरिकी विदेश विभाग की अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट में भारत के ऊपर जो भी इलज़ाम लगाये गए हैं उनमें मैं अमेरिका का उतना दोष नही देखती जितना हमारे खुद के देशवासियों का है क्योंकि हम स्वयं को विदेशों में भी ऐसे प्रस्तुत करते हैं कि जैसे पता नही यहाँ धर्म के नाम पर कितने अत्याचार हो रहे हों जबकि वास्तविकता तो यह है कि जितनी छूट और धार्मिक आज़ादी हमारे देश में है उतनी विश्व के किसी भी देश में नही है लेकिन फिर भी हम अपना रोना रोने से चूकते नही हैं।आम नागरिक तो फिर भी आपस में प्रेम और सौहार्द्र से रहते है लेकिन यह तथाकथित बड़े-बड़े नेता अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने के लिए अपने धर्म,संस्कृति और देश तक के सौदे को तैयार रहते हैं और कुछ भी बोल देने में इन्हें यह शर्म नही आती कि यह इनका अपना धर्म या देश है बल्कि मैंने कई बार देखा है कि विदेशों की सरकारों के जो बयान आते हैं वह फिर भी सधी भाषा में होते हैं लेकिन किसी भी एक छोटी सी घटना को ही ले लीजिये जैसे ही यहाँ घटित होती है हमारे विभिन्न राजनैतिक दलों के नेता जो कि संवैधानिक पदों पर बैठे हुए होते हैं, ऐसी शर्मनाक भाषा का प्रयोग करते हैं कि जिससे हमारे धर्म,सभ्यता,संस्कृति और देश का बहुत अपमान होता है।वह तो वास्तव में मुझे गर्व होता है कि हमारी सभ्यता,संस्कृति,धर्म सब सनातन है इसलिए उसपर कोई आंच आ ही नही पाती।

अभी बिलकुल नया उदाहरण मैं देना चाहूंगी कि वर्ल्ड कप 2019 में टीम इंडिया के सभी खिलाडियों के लिए भगवा रंग की जर्सी का प्रयोग किया गया है।इस जर्सी को पहन कर खिलाड़ी भी बहुत खुश हैं और हम भारत के नागरिक भी खुश हैं क्योंकि बहुत दिनों बाद टीम इंडिया की जर्सी के रंग में बदलाव आया है और परिवर्तन सदा ही सुखद लगता है।अब बात बस इतनी सी ही है लेकिन इसे झट धर्म से जोड़कर देखा जाने लगा और वह भी इस देश के आम नागरिकों को कोई आपत्ति है या नही कहा नही जा सकता लेकिन विभिन्न विपक्षी पार्टियों को इससे ऐतराज़ हो गया।जैसे लगता है कि हिन्दू धर्म और उसके प्रतीक कोई अछूत वस्तु हों जिन्हें सत्तारूढ़ भाजपा से जोड़ कर देखा जाने लगता है।मैं पूछना चाहूंगी कि क्या इस दल के लोग ही मात्र अधिकार रखते हैं अपनी सभ्यता,संस्कृति या धर्म की बात करने का?और लोग भी ऐसा करें।हमारा देश विभिन्न संस्कृतियों और सभ्यताओं का देश है इसलिए जिसकी भी जो बात अच्छी हो उसे मानने में क्या दिक्कत आ जाती है?भगवा या केसरिया रंग त्याग,ज्ञान शुद्धता तथा सेवा का प्रतीक है।यह रंग शौर्य,और वीरता का प्रतीक भी है।यह सूर्योदय और सूर्यास्त का रंग भी है।अब इस रंग में इतनी विशेषताएँ हैं व्यक्तिगत तौर पर मुझे भी यह रंग बहुत पसंद है और इसे धारण करते ही मन में एक अलग भाव और प्रफुल्लता आ जाती है।ऐसे में मैं यही पूछना चाहती हूँ कि हम इस रूप में क्यों न देखें कि इस रंग की विशेषताओं के कारण इसे हमारी क्रिकेट टीम की जर्सी बनाया गया है न कि कोई धर्म या राजनीति के कारण।

इसी तरह जब योग का प्रचार किया गया तो क्षुद्र मानसिकता के लोगों ने वहां भी आपत्ति मचाने से गुरेज़ नही किया।वैश्विक दृष्टिकोण में क्या गलत है?क्या भारतीय कला,चिंतन,विज्ञान,उपचार पद्धति आदि का बड़े पैमाने पर पश्चिमी संस्कृति में आत्मसात होना एक अच्छी और हमारे लिए गर्व की बात नहीं है?क्या यह प्रशंसनीय बात नहीं है कि आज लाखों अमरीकी और यूरोपवासी योगाभ्यास कर रहे है और भारतीय व्यंजन आज विश्वव्यापी हो गये हैं?इस वैश्विक संस्कृति ने विभिन्न राष्ट्रीयताओं ,जातियों और मतों को समीप लाकर उनकी सीमा रेखा को धुंधला कर दिया है।

मुझे दुःख तब होता है जब हिन्दू,हिंदी और हिंदुस्तान बोलने पर भी आपत्ति होती है।मैं पढ़ रही थी कि वीर सावरकर जिन्होंने सबसे पहले इन शब्दों का प्रयोग किया,उन्हें भी हेय दृष्टि से देखा जाता है और हद तो तब हो गई जब वर्तमान की राजस्थान सरकार ने कोर्स की किताबों के सिलेबस में बदलाव कर दिया क्योंकि उनमें सावरकर को वीर कहा गया था और उनके प्रयासों की सराहना की गई थी।ऐसा क्यों है?क्या वास्तव में उनके कार्य सराहनीय नहीं हो सकते?हिन्दू,हिंदी या हिंदुस्तान को धर्म से ही जोड़कर क्यों देखा जाता है?किसी भी धर्म को मानने वाले जो इस देश के नागरिक हैं वे हिन्दुस्तानी हैं और हिन्दू होते हुए उन्हें राष्ट्रभाषा हिंदी का सम्मान करना ही चाहिए।बस बात सिर्फ इतनी है जिसका इतना बड़ा विवाद खड़ा हो जाता है।मैं वीर सावरकर जी के बारे में आजकल पढ़ रही हूँ और जो मुझे लगेगा और किसी निष्कर्ष पर पहुंचूंगी तो वह विचार आप लोगों तक मैं ज़रूर पहुंचाऊँगी।

आज के मेरे इस विषय पर मेरे पाठकों से मैं यही चाहूंगी कि वे विचार ज़रूर करें।यह तो कुछ मुद्दे थे जो मैंने सामने रख दिए आप थोडा और देखेंगे तो इस तरह के अनगिनत मुद्दे हैं जिन्हें धर्म और राजनीति  से जोड़कर अनर्गल प्रलाप किया जाता है।क्या आज ऐसी बातों की आवश्यकता है? तनिक विचार करें।

6 Comments

  • Aloka Roy
    Posted July 4, 2019 at 8:56 pm

    Absolutely right

    • vijay
      Posted July 11, 2019 at 7:41 pm

      kaisi mansikta ho gai hai.Bahut sahi vichar

  • पूनम घई
    Posted July 5, 2019 at 10:34 am

    बहुत ही सामयिक एवं राष्ट्र को एक करने वाला लेख है।मलिक मोहम्मद जायसी के क्षेत्र से होने के कारण तुम्हारी दृष्टि बड़ी विस्तृत, राष्ट्रवादी और ‘वसुधैव कुटुम्बकं’ की है।मुझे इस लेख में नयापन लगा।निरन्तर इसी तरह तुम्हारी लेखनी प्रखर होती रहे।शुभाशीष एवं शुभकामनाएं।

    • Post Author
      Chubhan Today
      Posted July 5, 2019 at 2:08 pm

      आपने जायसी जी का ज़िक्र करके मेरे दिल को छू लिया।वास्तव में हम पता नही किस युग और दुनिया में जी रहे हैं?जब पद्मावत फ़िल्म आई तो इतना शोर शराबा मच गया और उन्हीं जायसी ने अपने “कंहावत”में राधा कृष्ण को लेकर कितना मार्मिक चित्रण किया है, यह शायद कम ही लोग जानते होंगे।पद्मावत ग्रंथ से कोई आपत्ति नहीं थी तो उस फिल्म को बिना देखे इतना शोर मचाने वालों ने शायद जायसी का मूल पद्मावत पढ़ा ही न होगा।पढ़ा होता तो फ़िल्म में ऐसा कुछ आपत्तिजनक नहीं था।कला को कला के लिए क्यों नही माना जाता उसे व्यक्तिगत क्यों सोच लिया जाता है।आप सभी अपने विचार रखें तो मुझे अच्छा लगेगा और इस विषय पर मैं जल्द ही लेख प्रकाशित करूंगी।

  • Kamendra Devra
    Posted July 5, 2019 at 10:36 am

    जय श्री राम

  • Amit
    Posted July 8, 2019 at 12:56 pm

    बहुत ही सामयिक , राष्ट्रवादी लेख में नयापन लगा

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