हर साल की तरह इस बार भी आठ मार्च को यानि कल हम ‘महिला दिवस’ मनाएँगे परन्तु शोचनीय प्रश्न वही है कि इक्कीसवीं सदी में पहुँचने के बाद भी महिलाओं से जुड़े मुद्दे कितने बदले?भले ही महिलाओं ने हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज की हो परन्तु घरेलू हिंसा और महिला सशक्तिकरण इस दिन का केंद्र बिंदु है।अशिक्षित ही नहीं,शिक्षित महिलाएं भी घरेलू हिंसा का सामना कर रही हैं।न सिर्फ घरेलू हिंसा बल्कि किसी भी जगह उनके साथ क्या हो जाए,कुछ भी निश्चित नहीं है।इसका प्रमाण देने की मुझे आवश्यकता नहीं है क्योंकि निर्भया और हैदराबाद वाली डाक्टर के साथ जो कुछ हुआ उससे समस्त देशवासियों का सर शर्म से झुक जाना चाहिए लेकिन कितना झुका यह तो मुझे नहीं पता लेकिन इन घटनाओं के बाद भी ऐसी ही घटनाओं के क्रम में कोई कमी नहीं आई है और निर्भया के दोषियों की सजा में जो रूकावट आ रही है उससे तो मन और भी खिन्न हो जाता है।कुछ प्रगतिशील उदाहरणों को अलग करके देखें तो आज भी हमारे समाज की अधिकतर बेटियों के साथ ऐसा बहुत कुछ होता है जो नहीं होना चाहिए।ऐसे में महिला दिवस के दिन बधाइयाँ दे देने,सोशल मीडिया पर अच्छे-अच्छे संदेशों का आदान-प्रदान कर देने,सांस्कृतिक कार्यक्रमों में महिलाओं को दुर्गा,काली और सीता जैसी कह देने या कुछ पुरस्कार आदि दे देने से ही महिला दिवस का उद्देश्य पूर्ण नहीं हो जाता।हमारी उम्मीद सरकार और प्रशासन से होती है कि वही सारी परिस्थितियों को बदलेगी लेकिन वास्तविकता तो यह है कि बदलने की ज़रूरत परिवार और समाज की भी है।परिवार में बेटियों को कितने अधिकार मिल रहे हैं या समाज में उनकी क्या स्थिति है?यह भी देखना होगा।जब से महिलाओं के साथ इधर बलात्कार आदि की घटनाएँ बहुत ज्यादा बढ़ीं हैं तब से यह मुद्दा भी उठने लग गया है कि परिवारों में ही बेटों की सोच को बदलने के उपाय होने चाहिए।लड़कों को ऐसे संस्कार बचपन से ही मिलने चाहिए जहाँ उन्हें लड़कियों का सम्मान करने की आदत हो लेकिन विडंबना यह भी है कि हमारी जड़ों में कूट-कूटकर लड़कियों का अपमान करने की सोच भर चुकी है।क्या कारण है कि भारत जैसे देश में जहाँ राम,कृष्ण जैसे चरित्र हुए हों वहां गालियाँ भी माँ-बहन,बेटी के नाम से दी जाती हैं।व्यक्तिगत रूप से मुझे तो बहुत ही चुभन होती है जब मैं इन गालियों को सुनती हूँ और बहुत से पुरुष महिलाओं के आगे बिलकुल सहज भाव से इन गालियों का प्रयोग करते हैं और अधिकतर महिलाएं भी बड़ी सहजता से इन पुरुषों के मुख से इन गालियों का प्रयोग बर्दाश्त करती हैं।हद तो तब होती है जब महिलाएं भी खुलकर इन गालियों का प्रयोग करती हैं।
लगातार आर्थिक प्रगति के बावजूद भारतीय महिलाओं को अभी भी स्वास्थ्य,शिक्षा और कार्यक्षेत्र में असमानता का सामना करना पड़ रहा है।महिलाओं और लड़कियों को लेकर हमारा समाज ऊपर से तो बदला हुआ नज़र आता है लेकिन अभी अंदरूनी रूप से बहुत कुछ बदलना बाकी है।भारत में कई परम्पराओं के चलते प्राचीन काल से ही परिवार में बेटों को अनिवार्य माना जाता रहा है लेकिन हमारे देश में ही अनेक ऐसे परिवारों के उदाहरण भी मिल जाएँगे जहाँ केवल बेटियां ही हैं और परिवार की शान बनी इन बेटियों के कारण माता-पिता का सर गर्व से ऊंचा है।भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु व उनकी पत्नी कमला नेहरु की एकमात्र संतान इंदिरा गाँधी भारत की प्रथम और एकमात्र महिला प्रधानमंत्री बनीं।विश्व में देश और परिवार का नाम रोशन करने वाली सानिया मिर्ज़ा हों या सायना नेहवाल,दोनों ही ऐसे परिवारों से हैं,जहाँ केवल दो-दो बेटियां हैं।
विडंबना यह है कि स्त्री अपनी हर भूमिका में समर्पित होती है।उससे माँ,बहन,बेटी प्रेमिका या पत्नी के रूप में हमेशा साथ चलने की अपेक्षा की जाती है।ज़्यादातर महिलाएं भी इसे अपनी प्राथमिक ज़िम्मेदारी मानती हैं।आप गौर करेंगे तो पाएँगे कि आम स्त्री ही नहीं दुनिया की शक्तिशाली महिलाओं की कहानी भी एक सी है।पेप्सिको की मुख्य कार्यकारी अधिकारी इंदिरा नुई भी एक सामान्य कामकाजी महिला की तरह ही घर-परिवार और अपने दायरों के बीच संतुलन नहीं बिठा पाने की बात दुनिया से शेयर करती हैं,तो इसके पीछे ज़िम्मेदारी का यही दवाब काम करता है।फेसबुक की चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर शेरिल शेंडबर्ग की भी यही चिंता है कि लड़कियों से दयालु,सबके हित की चिंता करने वाली या करुणामयी होने की अपेक्षा ही उनके साथ असहयोग और भेदभाव बरतने का कारण बनती है।
अंत में मैं एक ही बात कहना चाहूंगी कि रूढ़िवादिता की इन गहरी जड़ों को काटना होगा और यह तभी संभव है जब स्त्री को सम्पूर्ण इन्सान के रूप में स्वीकार किया जाए।न तो उसे देवी बनाकर पूजा ही जाए और न ही मात्र उपभोग की वस्तु समझा जाए।सृजनशील समाज तभी बन पाएगा जब पुरुष और स्त्री साथ-साथ चलेंगे।
3 Comments
पूनम घई
समस्त विश्व को ‘अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस’की शुभकामनाएं। 💐
इस बार देश में सरकार अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस को ‘Each for Equal’ के रूप में मना रही है,यानि महिला और पुरुषों के बीच असमानता नहीं होनी चाहिए।सामयिक और विचारणीय लेख।सुरक्षा का मुद्दा सर्वोपरि।शायर ज़की आज़मी के शब्दों में–
दुनिया के गुलिस्तां की निगहबान है नारी,
करुणा, दया व प्यार की पहचान है नारी।
माँ है, बहन है, बेटी है, पत्नी भी है औरत,
जिस शक्ल में है लायक-ए-सम्मान है नारी।।
कामेंद्र देवरा
महिला दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएं ।। आज हमारे राष्ट्र की प्रगति व सामाजिक स्वतंत्रता में शिक्षित महिलाओं की भूमिका उनती ही अहम् है जितना की पुरुषों की और इतिहास इस बात का प्रमाण है कि जब नारी ने आगे बढ़कर अपनी बात सही तरीके से रखी है, समाज और राष्ट्र ने उसे पूरा सम्मान दिया है और आज की नारी भी अपने भीतर की शक्ति को सही दिशा निर्देश दे रही है यही कारण है कि वर्तमान में महिलाओं की प्रस्थिति एवं उनके अधिकारों में वृद्धि स्पष्ट देखी जा सकती है।
Kiran singh
सहमत। नारी को देवी न बना बस इंसान ही रहने दो, और समान हक किताबी नहीं व्यवहारिक दिया जाये।