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अनुभूति के कवि अजय “आवारा” जी

लोग साहित्य लिखते हैं। गीत, कविता और कहानियां लिखते हैं। पर, क्या कोई दिल की बात लिखता है? क्या आपने अपने भीतर की पुकार सुनी है? शायद हम इन सब बातों से अनजान ही रह जाते हैं। हमारी खुद की पहचान चीखती रह जाती है। चलिए आज उन आवाजों को सुनने की कोशिश करते हैं। रू ब रू होते हैं, अजय “आवारा” जी की रचनाओं से। जहां आप खुद से बात करने लगेंगे। आप उन आवाजों को भी सुन पाएंगे, जिनसे शायद आपने कभी बात नहीं की होगी। आइए भीतर की दबी चित्कार सुनें, एक बार अजय “आवारा” जी को सुनते हैं पॉडकास्ट में और यहां उनकी रचनाओं को पढ़ें।
अजय जी अनुभूति के कवि हैं।उनकी अधिकतर रचनाएं वियोग और आह से ही उपजी हैं।ठीक ही कहा गया है कि कविता का जन्म ही वियोग और आह के बीच हुआ है।इस रचना को पढ़ें-

थोड़े दर्द के कतरे मै दूं,
थोड़े ग़म तू भी दे।
इन्हें बो कर इक फूल उगाते हैं,
अपने भी कुछ पल महकाते हैं।
थोड़ी सी हंसी भी उग आई है,
थोड़ा सा साथ गुनगुनाते हैं।

अतीत, तू मिटा थोड़ा सा,
कुछ यादें मैं भी भूलता हूं।
कुछ उम्मीदें कल की लिखते हैं,
थोड़ी चाहते भी तोड़ लेते हैं।
मुस्कुराहटें खिलने लगीं है अब तो,
उनकी ही इक माला बुनते हैं।

इक ख्याल तू लिख,
इक सपना मैं बुनता हूं।
कुछ ज़िंदगी के राज़ सीखते हैं,
थोड़ी बातें मोहब्बत से भी करते हैं।
गुज़र गया काफी अरसा यूं ही,
चल थोड़ा, अब हम भी जीते हैं।

आपकी रचनाओं में केवल भाव-पक्ष की ही प्रधानता हो ऐसा नहीं है, कलापक्ष भी यत्र-तत्र मुखरित हुआ है।देखें-

कोई क्या जाने बेबसी मेरी आंखों की,
आंसू ये दिखा नहीं सकतीं,
और न रो ही पाती हैं।

दायरे में बंधी यादों का क्या करूं?
भूल भी नहीं पाता इन्हें,
और साथ चल भी नहीं पाती हैं।

वो रात अभी तक उदास है,
जागना इसकी फितरत ही सही
पर सो भी तो नहीं पाती है।

शाम से भी तो पूछ उसकी कहानी,
न तो दिन ही उसका है,
न रात को अपना कह पाती है।

तू क्या जाने टूटे पत्तों का दर्द?
उड़ने की चाहत है उनकी,
और हवा समझ नहीं पाती है।

लहरों के थपेड़े भी मायूस हैं,
किनारे टूटते नहीं,
और दायरों में बंध नहीं पाती है।

बह जाना फितरत ही सही तेरी,
न तो रास्ते ही तेरे हैं,
ना तू कहीं थम ही पाती है।

क्या नाम दूं मैं तेरे इंतज़ार को?
पाती आती नहीं उसकी,
तू कुछ कह भी ना पाती है।

हर शै यूं ही अधूरी सी है,
कोई कह नहीं पाता तुझे,
और तू समझ नहीं पाती है।

“पाती आती नहीं उसकी,
तू कुछ कह भी न पाती है।”

इन पंक्तियों में यमक अलंकार का प्रयोग कितना सुंदर किया है कवि ने।
जहां आपने दार्शनिक अंदाज़ की कविताएं लिखीं,वहां भी पढ़ने-सुनने वालों के दिल को छू लिया।एक बानगी देखें-

यादों की डोरी पकड़े,
वो कुछ लम्हे,
मेरे पीछे पीछे दौड़े चले आते हैं।
बीच-बीच में,
मुझे पुकारते भी रहते हैं।
मैं बात भी करता हूं उनसे,
तो खुद से जुड़ा रहता हूं।
आसमान छू कर भी,
ज़मीन पर रहता हूं।
कभी-कभी वो मुझे,
मेरी उंगली पकड़ कर,
बचपन में भी ले जाते हैं।
मेरी जवानी की भी याद दिलाते हैं।
अक्सर हम खिलखिलाकर हंसते हैं।
उम्र के इस पड़ाव पर,
एक वो ही तो हैं,
जो मेरी बात समझते हैं।
वरना गुज़रे ज़माने की बात,
कौन सुनता है ?
यह लम्हे, मेरा वो अतीत हैं,
जो मैं आज जीता हूं।

जीवन के विषय पर अजय जी की दार्शनिक अंदाज़ की कविताओं के भाव तो शब्दातीत हैं-

जीने की आरज़ू ,की तो थी मैंने,
पर मुझे जीना रास नहीं आया।
मरने की भी ख्वाहिश हुई थी मेरी,
उसे भी तो पहरों में बंधा पाया।
जब भी कोई चाहत की मैंने तो,
बाड़ों में उसे बंद ही पाया।
उम्मीदों की बात मत पूछो तुम,
जब भी पाया कराहते हुए पाया।
सपनों से बात की जब मैंने तो,
बोझ तले उसे दबा ही पाया।

सोचा था सुकून मिलेगा तन्हाई में,
देखा तो दोनों को लड़ते हुए पाया।
एकाकी पन से बात करने निकला तो,
उसे भी उदास ही बैठा पाया।
मुस्कुराहटों से बात करने की सोची थी,
असमंजस में उसे उलझा पाया।
दूर निकल आया था ख्याल ढूंढते हुए,
अकेले ही उसे टहलता पाया।
जब देखा पलट कर जीवन को तो,
शिकायतों का एक पुलिंदा ही पाया।

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