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जन्मभूमि क्यों तरसाती है?

मेरे विचार से पूरे विश्व में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो श्री राम का नाम और चरित्र न जानता हो।ईश्वर या दैवीय रूप की अपेक्षा उनका मर्यादा पुरुष वाला रूप अधिक लोकप्रिय और लोकग्राह्य है परन्तु आज हालात ऐसे हो गये हैं कि उनके व्यक्तित्व या चरित्र से प्रेरणा लेने के स्थान पर हम उनका अनुसरण करना तो दूर बल्कि विपरीत आचरण कर रहे हैं और उसे ही ठीक समझते हैं।आजकल की परिस्थितियों में मेरा ह्रदय कई बार व्यथित होता है जब मैं यह सोचती हूँ कि प्रभु श्री राम क्या सोचते होंगे?कैसा भाग्य श्री राम का कि जिस जन्मभूमि को उन्होंने इतना महत्व दिया उसी ने उन्हें इतना तरसाया?

श्री राम के जीवन की एक घटना ही काफी है उनके जन्मभूमि के प्रति प्यार को दिखाने में।जब श्री राम ने रावण का वध कर दिया और युद्ध समाप्त होने पर राम, अनुज लक्ष्मण और सीता माता के साथ अयोध्या को प्रस्थान करने लगे तब लक्ष्मणजी ने प्रभु श्री राम के समक्ष सोने की लंका की भव्यता पर मोहित होकर कुछ दिन और लंका में प्रवास करने की इच्छा प्रकट की परन्तु श्री राम ने स्पष्ट ही मना करते हुए कहा कि-

“अपि स्वर्णमयी लंका,न मे रोचते लक्ष्मण।

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।”

अर्थात यह स्वर्णनगरी लंका ज़रा भी मेरा मन नहीं मोह सकती,मुझे तो केवल जन्म देने वाली माता और जन्मभूमि ही स्वर्ग के समान प्रिय है।

जिस को अपनी जन्मभूमि इतनी प्रिय थी कि उसके आगे और किसी चीज़ का आकर्षण था ही नहीं,ऐसे हमारे प्रभु श्री राम को बार-बार क्यों जन्मभूमि से निर्वासित होना पड़ा।त्रेता युग में पिता का वचन निभाने को और अब कलयुग में पांच शताब्दी बीतने को है जब प्रभु राम इस हाल में हैं।अपने लोगों को कष्ट देकर तो वे शायद जन्मभूमि भी हासिल न करना चाहें।इसलिए मुझे लगता है कि आपसी वैमनस्यता का त्याग करके प्रसन्नतापूर्वक हम सबको श्री राम को उनकी जन्मभूमि पर आदर के साथ विराजमान करना चाहिए।निर्वासित जीवन जीते श्री राम के दर्द को दिखाती एक कविता-

      जन्मभूमि क्यों तरसाती है? 

             जन्मभूमि क्यों तरसाती है?

             जिसके कण-कण में मैं खेला।

             जिसकी मिट्टी जैसी ख़ुशबू

             कहीं नहीं मुझको आती है।

             जन्मभूमि क्यों तरसाती है?

             पिता का वचन निभाने खातिर            

             चौदह बरस बिताये बन में

             एक-एक पल, युग-युग बीता               

             तेरे बिन था सब कुछ रीता

             धिक् कर्म,मेरे क्या ऐसे ही थे?

             जननी,जन्मभूमि दोनों मुझसे दूर हुए थे

             फिर भी दिल के धीरज खातिर

             मन में यह विश्वास जगा था

             पिता का वचन निभाया मैंने

             धरती माता का पुण्य मिलेगा।

(लेकिन प्रभु राम का भाग्य तो देखिये।वह तो त्रेता युग की बात थी लेकिन अब कलयुग में उनके दिल का दर्द सुनिए-)

             हे सीते!तेरी अग्निपरीक्षा

             तूने इसमें सब कुछ जीता

             लेकिन मैंने हारा तुझको

             रोक नहीं मैं पाया तुझको

             दूर किया तुझको अपनों से

             तभी अकेला फिरता हूँ मैं

             आज भी देख तड़पता हूँ मैं

             हर पल परिवार को तकता हूँ मैं

             फिर भी जन्मभूमि से दूर खड़ा

             प्रसन्नता और शांति की राह तकता हूँ।

             जब मेरे अपने मुझे प्यार से,

             खुश होकर वहां बैठाएँगे,

             मैं भी जन्मभूमि को पाऊंगा

             उसकी जयकार मनाऊंगा-

             मेरे सब अपने मिलकर

             फिर साथ दिए जलाएँगे-

             तब जन्मभूमि न तरसाएगी

             ऐसा शुभ दिन तब आएगा

             मेरे सर पर छत आ जाएगी।

             मेरे सर पर छत आ जाएगी।।

                  

                      

5 Comments

  • Kiran singh
    Posted November 19, 2019 at 11:52 am

    सामयिक और ह्दय स्पर्शी पोस्ट 👌👌

  • Kiran
    Posted November 19, 2019 at 5:14 pm

    दिल को छू लेने वाली पोस्ट

  • पूनम घई
    Posted November 19, 2019 at 9:30 pm

    भावप्रवण लेख।जन्मभूमि हमारी पहचान होती है।मानस में तुलसीदास जी के शब्दों में….
    जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि।
    उत्तर दिसी बह सरजू पावनि।।

    • Babita pandey
      Posted November 29, 2019 at 12:11 pm

      बहुत ही सुंदर एवं मर्मस्पर्शी.👍

      • Post Author
        Chubhan Today
        Posted November 29, 2019 at 9:19 pm

        धन्यवाद।आपलोगों के सुझाव की प्रतीक्षा रहती है।

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