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रूठती नदियां और तड़पता सागर

आप सब जानते ही हैं कि ‘देवभूमि’ उत्तराखंड से टिहरी के विधायक माननीय किशोर उपाध्याय जी ने गंगा सहित सभी पवित्र नदियों, हिमालय और समुद्र को बचाने के लिए एक मुहिम चला रखी है, उनके इस सफर में “चुभन परिवार” भी उनके साथ है और इसी श्रृंखला में आज पुनः हमने एक संवाद का आयोजन किया है।

किशोर जी उत्तराखंड की टिहरी विधानसभा सीट से तीसरी बार विधायक निर्वाचित हुए हैं। राजनीतिक शख्सियत तो आप हैं ही, लेकिन आपकी पहचान एक पर्यावरणविद की भी है। आपने जम्मू कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक बहुत कार्य किये हैं और कई आंदोलनों से भी आप जुड़े रहे हैं। अभी भी आप गंगासागर से होकर आए हैं और वहां आपने क्या संकल्प लिया, यह हम उन्हीं से सुनेंगे।

पवित्र गंगासागर धाम में किशोर उपाध्याय जी।

हमारे साथ महाराष्ट्र मुंबई से डॉ. नारदी जगदीश पारेख नंदी जी हैं।आप बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न अद्वितीय व्यक्तित्व हैं।ऐसी शारीरिक अवस्था, जिसमें कोई भी शायद इतनी हिम्मत न रख सके लेकिन नारदी जी हर परिस्थिति का सामना हंसकर करती हैं और कोई भी कार्य या विषय पर उनसे बात करो तो पूरी हिम्मत और ज़िम्मेदारी से उसे निभाने का प्रयास करती हैं। साहित्य की लगभग हर विधा में उनका लेखन है।

कर्नाटक से कमल किशोर राजपूत जी भी हमारे साथ होंगे। प्रकृति से हमें सदैव प्रेरणा मिलती है और प्रकृति हमें असीम संवेदनाएं और अनंत कल्पनाएं भी देती है, ऐसे में एक रचनाकार का हृदय कैसे व्यथित न हो और उसकी लेखनी से कैसे कुछ शब्द प्रस्फुटित न हों ?

कमल किशोर राजपूत जी की कलम से –

अनादि काल से सीमित मानव असीमित प्रकृति की खोज में है लेकिन ये अनबुझ यात्रा कभी समाप्त होगी या नहीं यह सवाल मेरी अन्तरात्मा मुझसे पूछती रहती है लगातार? मानव ने भले ही प्रकृति की खोज में अपनी बुद्धि, ज्ञान और पंच इन्द्रियों की जिज्ञासा की मदद से ब्रह्मांड की कई गुत्थियों को सुलझाया ज़रूर है लेकिन वह अन्तत: असमर्थ ही रहेगा ख़ुद और प्रकृति जगत की संरचना के रहस्यों को समझने और सुलझाने में, उसे नतमस्तक होना ही पड़ेगा।

प्रकृति का अनमोल ख़ज़ाना है पानी, जो नदियां, तालाब, झील, पोखर और विशाल समुन्दर से मानवता को जीवित रखने में मदद करता है। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि इस धरती का सत्तर से ज़्यादा प्रतिशत जल, नीर, पानी ही है और यह कितनी अजीब बात है कि पानी का भाप बनना और बारिश में पुन: पानी बनकर वापस लौट आना इस धरा पर, कभी सोंचिये कि कितनी अनबुझ अद्भुत यात्रा है सूरज और पानी के बीच की।अगर यह यात्रा नहीं होती तो पानी भी नहीं होता, यह पृथ्वी भी ऐसी नहीं होती जो हम देखते हैं, यह पशु-पक्षी जगत, वनस्पति जगत, पहाड़ जगत नहीं होते तो यह हरियाली कहाँ से आती? जीवन कहाँ से आता और यह सब न होते तो यह मानव जगत भी कैसे आता ?

नदियों के पानी की महत्ता आज का स्वार्थी मानव समझ ही कहाँ पा रहा है? अनादि काल से मानव सभ्यता नदी किनारे ही बसी है, क्यों? यह आज का मानव समझ ही नहीं पा रहा है और इसके प्रति कितना खिलवाड़ कर रहा है, सोंच ही नहीं पा रहा है,अपितु अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाली लोकोक्ति आज के मानव-जगत पर सटीक बैठती है।

हमने प्रगति जरूर की है लेकिन किस मूल्य पर…. इस पर विचार भी अत्यन्त ज़रूरी है! शहरी सभ्यता ने, विगत कई सदियों में हमारी मातृरूपी नदियों के प्रति बहुत अत्याचार किए हैं! जिसके प्रतिकूल परिणाम दिखाई दे रहे हैं। हम जितने प्रकृति से दूर जाते हैं उतने ही असभ्य हो जाते हैं, जो आज का मानव दिखाई दे रहा है।

नदियों की पावनता जितनी भी अपवित्र होगी मानवता उससे कईं गुणा दूषित ज़रूर होगी। सोंचिए शहरी सभ्यता से पूर्व में कुनबे वाली सभ्यता की, जहाँ प्रकृति और मानव एक दूसरे के परिपूरक रहते थे। आज के भौतिकवाद का दुष्परिणाम नई पीढियों में भरपूर दिखाई दे रहा है, उनकी प्रतिदिन की, पल-पल की जीवन शैली देखिये, कोई भी अंदर से सन्तुष्ट नहीं दिखाई देता है। नदियों के अनादर का असर कईं सतहों पर दिखाई दे रहा है। नदियाँ लुप्त हो रही है, जैसे हिमालय की सरस्वती, उज्जैन की शिप्रा ऐसी कईं पवित्र नदियाँ या तो गायब हो गई है या दूषित हो रही है। सोंचिये अब सागर के मीठे पानी की प्यास कौन बुझायेगा?

प्रकृति के वातावरण को, नदियों की पवित्रता को, दूषित करने का दुष्परिणाम भलिभांति नज़र आ रहा है चहु दिशाओं में! जागो इन्सानों पानी को सिर्फ H2O ही ना समझो! पानी हमारी सभ्यता की नींव है रीढ़ की हड्डी है, अगर समय के पहले इसे समझा नहीं गया, इसे संभाला नहीं गया, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें कदापि क्षमा नहीं करेगी, कभी मुआफ़ नहीं करेगी! वक़्त की नाज़ुकियत को सरकार और इन्सानों को समझना होगा। ऑक्सीजन और कार्बनडाइऑक्साइड की सही प्रतिशत का असर पानी और वनस्पति जगत पर आधारित है और पानी इसमे मुख्य है, पानी के बिना ना तो वनस्पति जगत होगा और ना ही मानव जगत या यूँ कहूँ खुद मानवता। जितना जल्दी जागेंगे उतनी ही अच्छी सभ्यता का सुर्योदय भविष्य में देख पाएंगे हम सब।

रहीम साहेब का पानी पर कितना सटीक दोहा है –

“रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥”

हार्दिक आभार आप सबका – कमल

काव्यात्मक पुकार –

“शाश्वत देश में सदियों से हम निरन्तर बहती हैं,
भारत भूमि और जन-जन की सेवा हम करती हैं..
प्रतिशोध नहीं, प्रतिकार नहीं, ये कैसा अनुबन्धन है?
सदियों से चलता आया, माँ-बच्चों का पावन बन्धन है,
अन्तर्मन वाणी कहती है, हम सबकी रक्षा में बहती हैं …
शाश्वत देश में सदियों से हम निरन्तर बहती हैं …
हमने अपना तन-मन-जीवन, मानव हित में बिताया है,
निर्मम मानव ने तो निश-दिन, जी भर के हमें सताया है,
कलुषित होकर, पीड़ा सहकर, निर्मल सबको करती हैं …
शाश्वत देश में सदियों से हम निरन्तर बहती हैं …
ममतामयी गँगा, यमुना, कावेरी बनकर जीवन संवारा है,
अवनी का आँगन गुंजित हो, महिमा को तेरी निखारा है,
प्रकृति ही माँ, प्रकृति ही प्रभु, हम सेवा से ही निखरती हैं …
शाश्वत देश में सदियों से हम निरन्तर बहती हैं …
भारत भूमि और जन-जन की सेवा हम करती हैं…”

2 thoughts on “रूठती नदियां और तड़पता सागर

  1. अतिसुन्दर संवेदनशील भावनाओं से ओतप्रोत 🪷🔱🙇🔱

  2. उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सबका सोचने वाली और जोड़ने वाली कड़ी यानी भावना जी! तीन दिशा में से तीन लोगों को जोड़कर आपने अद्भुत संकलन किया। एक उत्तराखंड के पर्यावरण विद् और विधायक किशोर उपाध्याय जी, दूसरे मिसाइल मेन कलाम जी के साथ काम करने वाले कमाल के बहुमुखी व्यक्तित्व, ऐसे कमल किशोर जी, उन दोनों हस्तियों के साथ मुझे जो सुनहरा अवसर दिया उसके लिए और पर्यावरण के बारे में इतना विचारणीय संवाद रखने के लिए आपको धन्यवाद! सचमुच आप तीनों के उच्च विचार जरूर जन जागृति लाएंगे आपके अथक प्रयास को सफलता मिले ऐसी शुभकामना।

    डॉ नारदी जगदीश पारेख नंदी

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