लिंगायत मत भारतवर्ष के प्राचीनतम सनातन हिन्दू धर्म का एक हिस्सा है। इस मत के ज्यादातर अनुयायी दक्षिण भारत में हैं। यह मत भगवान शिव की स्तुति आराधना पर आधारित है। भगवान शिव जो सत्य, सुंदर और सनातन हैं, जिनसे सृष्टि का उद्गार हुआ, जो आदि अनंत हैं। हिन्दू धर्म में त्रिदेवों का वर्णन है जिनमें सर्वप्रथम भगवान शिव का ही नाम आता है।
कन्नड़ के प्रसिद्ध साहित्यकार स्व.शतायु श्री वेंकट सुबैया जी के साथ डॉ. स्वर्ण ज्योति जी।
इस मत के उपासक “लिंगायत” कहलाते हैं। लिंगायतों को शैव संप्रदाय को मानने वाले अनुयायी कह सकते हैं। इस सम्प्रदाय की स्थापना 12वीं शताब्दी में महात्मा बसवण्णां ने की थी। लिंगायत शब्द कन्नड़ शब्द लिंगवंत से व्युत्पन्न है। ये लोग मुख्यतः महात्मा बसवण्णा की शिक्षाओं के अनुगामी हैं।
लिंगायत गुरु संत बसवना
शैव सम्प्रदाय का इतिहास और महत्वपूर्ण तथ्य-
भगवान शिव तथा उनके अवतारों को मानने वालों को शैव कहते हैं।शैव में शाक्त, नाथ, दसनामी, नाग आदि उप संप्रदाय हैं।
शैवमत का मूलरूप ॠग्वेद में रुद्र की आराधना में हैं। ) शिवलिंग उपासना का प्रारंभिक पुरातात्विक साक्ष्य हड़प्पा संस्कृति के अवशेषों से मिलता है।
वामन पुराण में शैव संप्रदाय की संख्या चार बताई गई है:
(i) पाशुपत
(ii) काल्पलिक
(iii) कालमुख
(iv) लिंगायत
लिंगायत सम्प्रदाय दक्षिण में काफी प्रचलित था।इन्हें जंगम भी कहा जाता है, इस संप्रदाय के लोग शिव लिंग की उपासना करते थे।
लिंगायतों में भी हैं कई जातियां- जैसे आचार्य, गाणगा,सुनार, कुम्हार और वीर शैव आदि आदि।
आज वर्तमान में लिंगायतों में ही कई उपजातियां हैं। इनकी संख्या 100 के आस-पास की हैं।जानकारी के मुताबिक, इनमें दलित या पिछड़ी जाति के लोग भी आते हैं, लेकिन लिंगायत समाज को कर्नाटक की अगड़ी जातियों में गिना जाता है। आज कर्नाटक की आबादी का 18 फीसदी लिंगायत हैं। पास-पड़ोस के राज्यों महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भी लिंगायतों की तादाद अधिक है।
कर्नाटक में आज भी मौजूद हैं प्राचीन संप्रदाय।
यहां शिव को ईष्ट मानने वाले शैव, विष्णु को ईष्ट मानने वाले वैष्णव, काली-दुर्गा को आराध्य मानने वाले शाक्त, सिर्फ वेदों का ही अनुसरण करने वाले वैदिक और सभी में आस्था रखने वाले गृहस्थ स्मार्थ अपनी परंपरा को जीवित बचाए हुए हैं।
देश में कश्मीर शैव संप्रदाय का गढ़ है, तो आसाम-पं. बंगाल को शाक्त संप्रदाय का प्रमुख केंद्र माना जाता है। कर्नाटक में पांचों संप्रदाय के लोग मौजूद हैं।
इन्हीं पांच संप्रदायों के कई उप संप्रदाय भी हैं. जैसे शैव के उपसंप्रदाय में शाक्त (शक्ति के शिव का केंद्र मानने वाले), नाथ, दसनामी, माहेश्वर, पाशुपत, कालदमन, कश्मीरी शैव, कापालिक और वीरशैव आते हैं। नाथ सम्प्रदाय भारत का एक हिंदू धार्मिक पन्थ है। मध्ययुग में उत्पन्न इस सम्प्रदाय में बौद्ध, शैव तथा योग की परम्पराओं का समन्वय दिखायी देता है। यह हठयोग की साधना पद्धति पर आधारित पंथ है। शिव इस सम्प्रदाय के प्रथम गुरु एवं नाथ सम्प्रदाय में सात्विक भाव से शिव की भक्ति की जाती है। वे शिव को ‘अलख’ (अलक्ष) नाम से सम्बोधित करते हैं। एक सामान्य अर्थ के अनुसार कौल अर्थात कुल का अर्थ है कुँडलिनि और अकुल का अर्थ है शिव दोनों का सामरस्य कराने वाला कौल है।
लिंगायत संप्रदाय इसी वीरशैव संप्रदाय से जुड़ा माना जाता है
वीरशैवों का संप्रदाय ‘शक्ति विशिष्टाद्वैत’ कहलाता है।’वीरशैव’ का शाब्दिक अर्थ है – ‘जो शिव का परम भक्त हो’। किंतु समय बीतने के साथ वीरशैव का तत्वज्ञान दर्शन, साधना, कर्मकांड, सामाजिक संघटन, आचार नियम आदि अन्य संप्रदायों से भिन्न होते गए। यद्यपि वीरशैव देश के अन्य भागों – महाराष्ट्र, आंध्र, तमिल क्षेत्र आदि – में भी पाए जाते हैं किंतु उनकी सबसे अधिक संख्या कर्नाटक में पाई जाती है।
शैव लोग अपने धार्मिक विश्वासों और दर्शन का उद्गम वेदों तथा 28 शैवागमों से मानते हैं। वीरशैव भी वेदों में अविश्वास नहीं प्रकट करते किंतु उनके दर्शन, कर्मकांड तथा समाज सुधार आदि में ऐसी विशिष्टताएँ विकसित हो गई हैं जिनकी व्युत्पत्ति मुख्य रूप से शैवागमों तथा ऐसे अंतर्दृष्टि योगियों से हुई मानी जाती है जो ‘वचनकार’ कहलाते हैं। 12वीं से 16 वीं शती के बीच लगभग तीन शताब्दियों में कोई 300 वचनकार हुए हैं जिनमें से 30 स्त्रियाँ रही हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध नाम महात्मा बसवेश्वर का है। जिन्होंने वीरशैव संप्रदाय की स्थापना की।
वीरशैवों ने एक तरह की आध्यात्मिक अनुशासन की परंपरा स्थापित कर ली है जिसे ‘शतस्थल शास्त्र’ कहते हैं। साधना अर्थात् आध्यात्मिक अनुशासन की समूची प्रक्रिया में भक्ति और शरण याने आत्मार्पण पर बल दिया जाता है।
वीरशैवों के भी मंदिर, तीर्थस्थान आदि वैसे ही होते हैं जैसे अन्य संप्रदायों के, अंतर केवल उन देवी देवताओं में होता है जिनकी पूजा की जाती है। जहाँ तक वीरशैवों का सबंध है, देवालयों या साधना के अन्य प्रकारों का उतना महत्व नहीं है जितना इष्ट लिंग का, जिसकी प्रतिमा शरीर पर धारण की जाती है। आध्यात्मिक गुरु प्रत्येक वीरशैव को इष्ट लिंग अर्पित कर उसके कान में पवित्र षडक्षर मंत्र ‘ओम् नम: शिवाय’ फूँक देता है। प्रत्येक वीरशैव स्नानादि कर हाथ की गदेली पर इष्ट लिंग रखकर चिंतन और ध्यान द्वारा आराधना करता है।
वह निरामिष भोजी होता है और शराब आदि मादक वस्तुओं से परहेज करता है। महात्मा बसवेश्वर ने इस संबंध में जो निर्देश जारी किए थे, उनका सारांश यह है – चोरी न करो, हत्या न करो और न झूठ बोलो, न अपनी प्रशंसा करो न दूसरों की निंदा, अपनी पत्नी के सिवा अन्यश् सब स्त्रियों को माता के समान समझो।
महात्मा बसवेश्वर का लक्ष्य ऐसा आध्यात्मिक समाज बनाना था जिसमें जाति, धर्म या स्त्री पुरुष का भेदभाव न रहे। वह कर्मकांड संबंधी आडंबर के विरोधी थे और मानसिक पवित्रता एवं भक्ति की सच्चाई पर बल देते थे। वह मात्र एक ईश्वर की उपासना के समर्थक थे और उन्होंने पूजा तथा ध्यान की पद्धति में सरलता लाने का प्रयत्न किया। जाति भेद की समाप्ति तथा स्त्रियों के उत्थान के कारण समाज में अद्भुत क्रांति उत्पन्न हो गई। ज्ञानयोग भक्तियोग तथा कर्मयोग – तीनों वचनकारों को मान्य हैं किंतु भक्ति पर सबसे अधिक जोर दिया जाता है। महात्मा बसवेश्वर के अनुयायियों में बहुत से हरिजन थे और उन्होंने अंतर्जातीय विवाह भी संपन्न कराए।
वचनकारों द्वारा रचित साहित्य को वचन साहित्य कहा जाता है। यह साहित्य कर्नाटक प्रदेश के द्वारा विश्व को एक अद्भुत देन है क्योंकि यह किसी भी अन्य साहित्य या भाषा से लिया हुआ नहीं है, यह पूर्णतः कन्नड़ भाषा का मूल साहित्य है । उपनिषद और वेदों में जो लिखा है वह वचन साहित्य में मिल जायेगा परंतु वचन साहित्य में जो लिखा है वह वेदों और उपनिषद में नहीं मिलेगा। संत बसवण्णा जी ने अपने बहुमूल्य विचारों से कन्नड भाषा को अत्यधिक समृद्ध बना दिया है ।
“कायकवे कैलासा” यह लिंगायतों का स्वर्णिम वाक्य या कह लें नारा है जिसका अर्थ है “काम ही पूजा है”।
कूडल संगम यह लिंगायतों के लिए तीर्थ यात्रा का एक महत्वपूर्ण केंद्र है , यह कर्नाटक राज्य के बागलकोट जिले में अलमट्टी बांध से 15 किलोमीटर की दूरी पर है । कृष्णा और मालाप्रभा नदियां यहां विलीन हो जाती हैं। लिंग के साथ लिंगायतवाद के संस्थापक बसण्णा की पवित्र समाधि , जिसे स्वयं भू माना जाता है यहाँ है ।
कुछ वचन-
चकोर को चाँदनी की चिंता
कमल को स्वर्णोदय की चिंता
भ्रमर को मधुपान की चिंता
मुझको तो केवल अपने
कूडल संगमदेव की स्मरण की ही चिंता।
ಚಕೋರಂಗೆ ಚಂದ್ರಮನ ಬೆಳಕಿನ ಚಿಂತೆ
ಅಂಬುಜಕೆ ಭಾನುವಿನ ಉದಯದ ಚಿಂತೆ
ಭ್ರಮರಂಗೆ ಪರಿಮಳದ ಬಂಡುಂಬ ಚಿಂತೆ
ಎನಗೆ ಎನ್ನ ಕೂಡಲಸಂಗಮದೇವನ ನೆನೆವುದೆ ಚಿಂತೆ!
ನಾದಪ್ರಿಯ ಶಿವನೆಂಬರು ನಾದಪ್ರಿಯ ಶಿವನಲ್ಲ
ವೇದಪ್ರಿಯ ಶಿವನೆಂಬರು ವೇದಪ್ರಿಯ ಶಿವನಲ್ಲ
ನಾದವ ಮಾಡಿದ ರಾವಣಂಗೆ ಅರೆಯಾಯುಷವಾಯ್ತು
ವೇದವನೋದಿದ ಬ್ರಹ್ಮನ ಶಿರಹೋಯ್ತು
ನಾದಪ್ರಿಯನೂ ಅಲ್ಲ ವೇದಪ್ರಿಯನೂ ಅಲ್ಲ
ಭಕ್ತಿಪ್ರಿಯ ನಮ್ಮ ಕೂಡಲಸಂಗಮದೇವ!
माना शिव संगीत प्रिय हैं तो जाना शिव संगीत प्रिय नहीं
माना शिव वेद प्रिय हैं तो जाना शिव वेद प्रिय भी नहीं
कि संगीत सम्राट रावण की ज़िंदगी आधी ही रही
वेद ज्ञाता ब्रहमा को शिरच्छेदन की सजा मिली
न तो संगीत प्रिय न तो वेद प्रिय
भक्ति प्रिय भक्त वत्सल है कूडल संगम देवा।
धनिकों ने मंदिर बनवाया , मैं क्या बनावाऊँ
मेरे पाँव ही खँभे हैं , मेरा देह ही मंदिर है
मेरा शीश ही स्वर्ण कलश है , सुनो कूडल संगम देवा
चलना ही जीवन है , रुकना ही मरण है।
चोरी न करो हिंसा न करो, झूठ मत बोलो क्रोध मत करो
दूसरों की निंदा और खुद की प्रशंसा न करो
यही अंतरंग की शुद्धि यही बहीरंग की भी शुद्धि
यही कूडल संगम देवा को जीतने की सिद्धि ।
2 Comments
Swarna jyothi
नमस्कार
बहुत ही अच्छा सार गर्भित विस्तृत और सरल स्पष्ट आलेख शिव भक्ति पथ लिंगायत। आप को हार्दिक बधाईयाँ 🙏🙏। दक्षिण में तो इस सम्प्रदाय के विषय में जानकारी रखते हैं, उत्तर भारत में इस संप्रदाय को इस आलेख के द्वारा और अच्छी तरह से समझा जायेगा ऐसी आशा करते हैं । शुभकामनाएं💐💐💐
प्रेम तन्मय
लिंगायत समाज का विस्तृत विवेचन स्वर्णा जी ने किया उन्हें बधाई ,,कर्नाटक के ब्राह्मणों में लिंगायत प्रमुख हैं सारगर्भित आलेख ,धन्यवाद।
प्रेम तन्मय