महिला दिवस:उपासना नहीं सम्मान दो
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द्वारा:अजय “आवारा” जी
International Women’s Day special: Curtain Raiser
आगामी ८ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (International Women’s Day) की बेला है।
इस उपलक्ष में “चुभन” महिलाओं पर कार्यक्रमों की एक श्रृंखला आयोजित कर रहा है ,जहां हमें सम्मानित व्यक्तिव को जानने का अवसर मिलेगा और अवसर मिलेगा,उनके विभिन्न दृष्टिकोण को समझने का भी। फिर चाहे वह राजनीतिक क्षेत्र हो या आर्थिक आत्मनिर्भरता, सामाजिक उपलब्धि हो या परंपराओं को तोड़ने का हौंसला।
1. भारतीय संस्कृति में नारी स्वतंत्रता-
इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि जिस देश की संस्कृति में नारी को उचित सम्मान देने की परंपरा रही है और जिस संस्कृति में नारी को देवी कह कर ही पुकारे जाने की परंपरा रही है, उस देश में हम “महिला दिवस”(Women’s Day) मनाते हैं। क्या हम यह भूल गए, कि नारी का सम्मान हमारी परंपरा रही है, हमारी रीत है, हमारी सभ्यता का महत्वपूर्ण हिस्सा है। ऐसी परंपरा के बीच, क्या हम इसे एक दिन के विचार में समेट देंगे? भारतीय संस्कृति में नारी को जो सम्मान दिया गया है, कदाचित वह विश्व की किसी और संस्कृति में नहीं दिया गया। निसंदेह अन्य संस्कृतियों में नारी को समानता मिली होगी, परंतु भारतीय संस्कृति में नारी वंदनीय है।हम परंपराओं की दुहाई देते हैं कि भारतीय नारी परंपराओं की बेड़ियों में नहीं जकड़ी हुई है। यहां ध्यान देने योग्य बात है कि हम परंपराओं की बात तो करते हैं, परंतु हमारी संस्कृति को शायद एक तरफ रख बैठे हैं। परंपराएं हमारी संस्कृति नहीं हैं, यह तो परिस्थितियों वश हमारे समाज में आईं कुरीतियां मात्र हैं।क्या हम वापस अपनी संस्कृति की तरफ मुड़ पाएंगे? क्या स्वतंत्रता पाकर नारी संपूर्ण हो पाएगी? क्या नारी को समाज में उसका वही सम्मानित स्थान दिलाना हमारी संस्कृति का निर्वाहन नहीं होगा? आइए कुछ ऐसा ही करें।
2. परंपरा: मानसिकता या संस्कार-
अगर हम अपनी संस्कृति का सूक्ष्म अध्ययन करें तो पाएंगे कि नारी का सम्मान हमारी परंपरा रही है न कि यह कुरीतियां, जो जाने-अनजाने, परिस्थिति वश हमारे समाज का कलंक बन गई हैं। आज की सामाजिक व्यवस्था न तो हमारी संस्कृति रही है और न ही परंपरा वरन यह तो कुरीतियां हैं। आवश्यकता है, अब हमें अपने समाज एवं मानसिकता की शल्य चिकित्सा कर इस गांठ को निकाल फेंकना होगा। जिससे हम अपनी गौरवपूर्ण संस्कृति को पुनः स्थापित कर सकें।क्या हम कोशिश करेंगे अपनी परंपराओं की सच्चाई जानने की? क्या हम अपनी संस्कृति के मूल को पहचान पाएंगे? क्या नारी सम्मान की लड़ाई सिर्फ अधिकारों तक सीमित होकर रह जाएगी?हम नारी को वही सम्मान क्यों नहीं वापस दे सकते? क्या हम अपनी परंपरा एवं संस्कृति की केचुली उतारकर, इसे पुनः मूल रूप में स्थापित कर पाएंगे? आइए फिर से मंथन करें।
3. आधुनिक नारी की परिभाषा-
यह विषय बड़ा असमंजस भरा विषय है। आधुनिक नारी… क्या आधुनिक नारी की परिभाषा नौकरी, व्यवसाय एवं अधिकारों की सहूलियत तक ही सीमित है? मुझे लगता है हम आधुनिकता का सही विश्लेषण नहीं कर पा रहे हैं। नारी की आधुनिकता तभी साबित हो पाएगी, जब वह स्वयं अपना विश्लेषण कर पाएगी। वास्तविक रूप में वह तभी आधुनिक कहलाएगी, जब वह अधिकार और अभिमान के चक्रव्यूह से निकलकर समाज में सम्मानित जीवन का अनुभव कर पाएगी। मात्र चार उदाहरण नारी की आधुनिकता को स्थापित नहीं करते।आधुनिकता, सम्मान एवं साथ चलते कदमों के साथ प्रमाणित होती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम आधुनिक की होड़ में झुके एक पलड़े का एक बाट उठा कर दूसरे पलड़े में रख रहे हैं। क्या आधुनिकता को सिर्फ अधिकारों तक ही सीमित कर दिया जाएगा? क्या हम अपनी संस्कृति में वर्णित उस सम्मान भाव को स्थापित कर पाएंगे,जहां नारी के विमर्श के बिना घर का हर फैसला अधूरा माना जाता था। हमें सामाजिक तुला को संतुलित करना है, न की बाट बदलने की रीत का निर्वाह करना है। आइए आधुनिकता को सही मायनों में परिभाषित करें, न कि इसे अहं से जोड़ें।
4. पुरुष: सहयोगी या विरोधी?-
नारी के सम्मान में भारतीयता से बढ़कर संस्कृति हो ही नहीं सकती। हमारी परिभाषा में नारी के बिना पुरुष को संपूर्ण माना ही नहीं गया है।अर्धनारीश्वर का रूप, इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। सच तो यह है कि पुरुष का अस्तित्व ही नारी के आधार पर टिका है। पुरुष नारी का रक्षक मात्र नहीं संरक्षक है। पुरुष नारी का पालक नहीं, बल्कि उसकी राह का पथिक है। पुरुष के बिना नारी पूर्ण हो ही नहीं सकती।नारी अगर प्रेम का प्रतीक है तो पुरुष उसके अहं का प्रतिबिंब।नारी पुरुष का सुकून है, तो पुरुष नारी की आत्मियता की पूर्ति। वास्तव में, पुरुष को नारी का सहयोगी कहना नारी के महान चरित्र का अपमान होगा। वस्तुतः नारी ही पुरुष की प्रेरणा है। उसे विरोधी के रूप में देखना, नारी के समर्पण का अपमान होगा। विरोध, आज सामाजिक सोच का है न कि पुरुष की परिभाषा का।जब भी, हम समाज के वैचारिक प्रदूषण की बात करते हैं तो इसमें महिला वर्ग भी सम्मिलित होता दिखाई देता है,अकेला पुरुष नहीं। आखिर, पुरुष नारी से स्पर्धा क्यों करें ? वह तो स्वयं ही पुरुष के व्यक्तित्व की निर्माता है। मां बनकर नारी ही तो पुरुष के व्यक्तित्व को स्थापित करती है। क्या हम सामाजिक प्रदूषण से नारी को मुक्ति दिला पाएंगे? क्या हम नारी को उसकी अस्मिता की याद दिला पाएंगे?
5. संस्कार एवं आधुनिकता-
यह एक बड़ा ही जटिल विषय है कि हम संस्कारों को सहेजें या आधुनिकता को अपनाएं।इस पर मंथन करें तो पाएंगे कि तथाकथित आधुनिकता ने स्वयं के अर्थ को ही खो दिया है। आधुनिकता, विषय वस्तु को बेहतर करने की प्रक्रिया का नाम है, न कि चले आ रहे सिद्धांत को तज देना। अगर आधुनिकता की प्रचलित परिभाषा के मूल में जाएं तो पाएंगे,कि इससे ज्यादा, संचित, सम्मानित एवं विकसित विचारधारा हमारी संस्कृति ही है। जाने क्यों, हम संस्कारों को पिछड़ेपन के आईने से देखने लगे हैं और अपनी डोर काटकर, पगलाए घोड़े की तरह,आधुनिकता की होड़ में दौड़ने लगे हैं। वास्तव में आधुनिकता, पाश्चात्य की होड़ नहीं, पाश्चात्य का अन्धानुसरण नहीं, बल्कि हमारे संस्कारों में विचारधारा का छौंक, आधुनिकता की सटीक परिभाषा है। इसलिए आवश्यक है, कि संस्कारों के व्याकरण में नई सोच एवं नीतियों का अलंकरण करें। संस्कार एक दुल्हन है एवं आधुनिकता इसका अलंकरण,न कि अन्धानुसरण।क्या हम अपने संस्कारों की महत्ता को यूं ही भूल जाएंगे? क्या हम आधुनिकता को प्रमाणित करने के फेर में स्वयं की पहचान को ही खो देंगे? यदि ऐसा हुआ, तो हमारी पहचान क्या रह जाएगी? नारी संस्कारों की प्रतिमूर्ति है, आइए इसे आधुनिकता से संवारें।
6. अधिकार एवं कर्तव्य-
अपने आप में, यह एक जटिल विश्लेषण है, कि अधिकार एवं कर्तव्यों का संतुलन कैसे किया जाए? यह अटल सत्य है, कि हमें अपने प्राप्ति की एक कीमत चुकानी होती है। क्या हम अपने अधिकारों की कीमत कर्तव्यों को तिलांजलि देकर चुकाएंगे? यदि अधिकार गति है, तो कर्तव्य उसका संतुलन। आज तक नारी के अधिकारों का जिस तरह प्रचार किया गया है,वास्तव में वह हमारी स्वस्थ सोच की पहली आवश्यकता है। अगर भारतीय समाज की परिभाषा में नारी को अधिकार स्वाभाविक रूप से ही प्राप्त हैं, तो हम इसे कर्तव्यों के तराजू में तौल कर नारी के मर्यादा पर प्रश्नचिन्ह क्यों लगा रहे हैं? क्यों न हम नारी के हिस्से का सम्मान उसे दे दें, तो शायद अधिकार और कर्तव्य की स्पर्धा ही समाप्त हो जाए। आवश्यकता शब्दों के पीछे भाग कर क्रांति की आंधी लाने की नहीं है। आवश्यकता है हमारे समाज के आत्म विश्लेषण की। क्रांति बदलाव तो लाती है, परंतु परिणाम में सिर्फ असंतुलन ही आता है। आइए इस महिला दिवस पर हम यह कोशिश करें, कि नारी को उसके अधिकारों की जंजीर से ना खींचे।अपितु हमारी वर्तमान सामाजिक व्यवस्था पर दृष्टिपात करें।जितना व्यवस्थित हमारा समाज होगा,उतना ही व्यवस्थित नारी का जीवन होगा और जितना व्यवस्थित उसका जीवन होगा,उतनी ऊंचाईंयां आज की नारी छू पाएगी। इसके लिए विचारों की दो धाराओं में टकराव की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है, तो स्वयं की मर चुकी, तर्कसंगत सोच को पुनर्जीवित करने की। हमारी सामाजिक व्यवस्था में सब कुछ उपलब्ध है पर क्या हम इसे पुनः स्थापित कर पाएंगे? या अधिकार एवं कर्तव्य का टकराव यूं ही चलता रहेगा। क्या हम इनमें सामंजस्य बिठा पाएंगे ?
आइए, आज की नारी को और बेहतर जानें।आने वाले ‘महिला दिवस’ (Women’s Day) पर विशेष कार्यक्रमों में उन व्यक्तित्वों से मिलें,जिन्होंने समाज के लिए दिशा सूचक स्थापित किया है।
पढ़िए “चुभन” पर 2 मार्च, 4 मार्च, 6 मार्च और 8 मार्च को।
“चुभन” यह स्पष्ट कर देना चाहता है कि चर्चा एवं साक्षात्कार में व्यक्त विचार, विद्वानों एवं विशेषज्ञों के निजी विचार हैं,उन्हें किसी भी प्रकार से “चुभन” का विश्लेषण न समझा जाए।