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राष्ट्रवाद की आवाज़

                – अजय “आवारा”

आज हमारी स्वतंत्रता का 75वां राष्ट्रीय पर्व है। 15 अगस्त, हमारे लिए तारीख मात्र नहीं, अपितु एक भावनात्मक जुड़ाव भी है। यह वह दिन है, जिस दिन हमको अपने भारतीय होने पर गर्व होता है। पर क्या, 15 अगस्त पर ही भारतीय होने का गर्व होना होना चाहिए? क्यों नहीं हमें हर पल गौरवान्वित होना चाहिए ? यह एक सवाल है, कि क्या, राष्ट्रीयता की भावना मात्र एक दिन के लिए बनी है ? इस वर्ष की विशेषता यह है कि यह हमारी 75 वीं वर्षगांठ है। आईए इस वर्षगांठ पर, देश भक्ति के रस को उस ऊंचाई पर ले जाएं जहां से हम कभी लौट कर ना पाएं। देशभक्ति एवं 15 अगस्त की राष्ट्रीयता की भावना हमारे अंदर इस तरह समा जाए कि हम अपने हिंदुस्तानी होने के एहसास को हर पल हर घड़ी जिएं। जब हम बात राष्ट्रीयता एवं देशभक्ति की करते हैं, तो वीर रस से बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है ? आज इस पर्व पर वीर रस से रूबरू हो कर हम अपनी राष्ट्रीयता की भावना को इस तरह जागृत कर लें कि वह हमारे अंतर में बस जाए। आइए, कोशिश करते हैं, वीर रस में डूबने की।आज कोशिश करते हैं वीर रस को अपने लहू में संचित करने की।
जब हम वीर रस की बात करते हैं तो एक नाम हमारे दिमाग में आना स्वाभाविक है, ज्ञानेंद्र ज्ञान जी। ज्ञान जी वह नाम है जिन्होंने अहिंदी भाषी क्षेत्र में अपने आप को इस तरह स्थापित कर दिया है, मानो वे यहीं के खिले हुए पुष्प हों। अगर मैं गलत ना कहूं तो दक्षिण भारत के गिने-चुने वीर रस के कवियों में यह नाम है। ज्ञान जी को सुनने के बाद ऐसा लगता है, मानों राष्ट्रभक्ति दौड़ी चली आ रही है, और तत्काल हमारा आलिंगन कर लेगी। उनकी रचना हमें प्रेरित करती हैं कि भारतीय होने पर गर्व करें। आधुनिक राष्ट्रवाद पर‌ इनकी कलम पानी की तरह चलती है। मानो हमारे लहू से राष्ट्रवाद लिखा जा रहा हो। आधुनिक राष्ट्रवाद इनकी कलम से पूर्ण होता है। जब हम इन्हें सुनते हैं तो लगता है कि राष्ट्रवाद अपने आधुनिक रूप में अपने चरम पर पहुंच गया है और हमें ललकार रहा है, पुकार रहा है, कि आओ तुम भी मुझमें आत्म सात हो जाओ। आओ, हम अपने भारतीय होने पर गर्व करें, भारतीयता पर गर्व करें ।

राष्ट्रवाद की बात होती है, तो हम “चेतन” नितिन खरे जी को कैसे भूल सकते हैं ? इनकी वाणी में वह ओज है, वह जोश है, जो हर भारतीय को राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत कर देता है। जब खरे जी मंच से बोलते हैं तो लगता है राष्ट्रीयता का एक सैलाब आ जाता है, और हम सब उसी में बह जाते हैं। जिस तरह पानी में डूबे हुए मनुष्य को पानी ही पानी नजर आता है, उसी तरह खरे जी को सुनकर राष्ट्रवाद की वह लहर आती है कि हमें राष्ट्रवाद के अलावा कुछ सूझता ही नहीं। सही बात है, अगर हम राष्ट्रवाद से परे रहेंगे तो राष्ट्रवाद पर चिंतन कैसे करेंगे, मनन कैसे करेंगे। हम राष्ट्रवाद को अपने में आत्मसात कर पाएंगे, तभी तो हम अपने कर्तव्यों का निर्वाह ईमानदारी से कर पाएंगे।इनका काव्य हमें इस ओर प्रेरित करता है, कि मानों राष्ट्रवाद अपने इतिहास की पुनरावृति कर रहा है। जब हम उन्हें सुनते हैं तो लगता है कि हमारा वीर इतिहास आज हमारे सामने आकर खड़ा हो गया है।

इस कड़ी में जो अगला नाम है, वह है प्रचंड जी का। प्रचंड जी वह नाम है, जिन्होंने हिंदुस्तानी संस्कृति को विदेशी मिट्टी पर स्थापित किया है। विदेशों में जो भारतीय आज भारतीय होने पर गर्व करते हैं, उनमें प्रचंड जी का बहुत बड़ा योगदान है। इनके कारण ही विदेशी मिट्टी भी भारतीय संस्कृति से जुड़ी हुई है। इतना ही नहीं उन्होंने भारत में भी राष्ट्रवाद एवं भारतीय संस्कृति को एक मणि में ही पिरो दिया है। इनके काव्य की आत्मा अगर संस्कृति है, तो उसका तन राष्ट्रवाद। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि संस्कृति एवं राष्ट्रवाद की भावना मिलकर ही राष्ट्रीयता बनाती है। यह सही भी है, अगर हम अपनी संस्कृति को नहीं समझेंगे, तो राष्ट्रवाद की बात मिथ्या से अधिक कुछ नहीं।

तो दौड़ने दीजिए एक लहर आपके लहू में, आपके मस्तिष्क में। हमारे भारतीय होने का गुरुर हमारे सर इस तरह चढ़ कर बोले कि एक दिन के लिए नहीं, दो दिन के लिए नहीं, सिर्फ राष्ट्रीय पर्व के लिए नहीं, पूरे वर्ष भर के लिए हर दिन के लिए यह आह्वान गूंजता रहे। आइए, प्रण लें कि हम राष्ट्रीयता का निर्वाह इमानदारी से करेंगे, हमारे कर्तव्य का निर्वाह ईमानदारी से करेंगे।
जय हिंद।

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