लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पत्रकारिता के पिलर अर्णव गोस्वामी को आज जिस तरह माननीय सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम जमानत मिली और तुरंत रिहा करने का आदेश दिया गया उसने आज सोचने पर मजबूर कर दिया है कि हमारी व्यवस्था कहाँ जा रही है?आज लोकतंत्र की विजय हुई है।सोचने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट को यह शब्द क्यों कहने पड़े कि हस्तक्षेप न किया होता तो विनाश का रास्ता पक्का था।थोड़ा सोचिए कि क्या अर्णव आतंकवादी थे जो 30-40 पुलिसवाले उनके घर हथियार लेकर गिरफ्तार करने पहुंचे।जो हुआ वह मौलिक अधिकार, निजता का अधिकार और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर एकदम प्रहार है।
माननीय जस्टिस चंद्रचूड़ जी को कहना पड़ा कि कानून की धज्जियां उड़ीं। हमें आज सोचने की ज़रूरत नहीं कि जब मीडिया से जुड़े इतने खास और ताकतवर लोगों के साथ ऐसा हो सकता है तो फिर हम सब तो आम नागरिक हैं और हमारी अभिव्यक्ति की आज़ादी क्या खतरे में नहीं है?लोकतंत्र में मीडिया का अलग ही स्थान है और ऐसे में उसकी आवाज़ को इस निरंकुश तरीके से दबाना कैसे बर्दाश्त हो सकता है?आज उन लोगों को तो ज़रूर सोचना होगा जो उसकी गिरफ्तारी से बहुत खुश थे।
ठीक है हर व्यक्ति का style हमें नहीं पसंद आ सकता।इसके बारे में माननीय सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा कि जिसको अर्णव का कार्यक्रम न पसंद हो वह चैनल बदल लें।वास्तव में विचारधारा अलग है तो चैनल न देखा जाए लेकिन किसी की अभिव्यक्ति की आज़ादी,प्रश्न पूछने की आज़ादी को इस निर्मम तरीके से कुचलना तो लोकतंत्र के लिए धक्का था जिसे माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से बदल दिया।
मैं पूछना चाहूंगी कि क्या हम सभी किसी बात पर एकमत तो नहीं होते न।हम सभी की अपनी अपनी शैली होती है।Style is man himself.हिंदी साहित्य के लोग राजेन्द्र यादव जी के नाम से तो परिचित ही होंगे।हिंदी साहित्य की मशहूर पत्रिका ‘हंस’ के संपादक, हिंदी में नई कहानी आंदोलन के प्रवर्तकों में से एक,कहानीकार, उपन्यासकार राजेन्द्र यादव जी का जीवन विवादों से भरा रहा।उनकी शैली भी इतनी विवादास्पद रही कि बहुत से लोगों को आपत्ति भी रही।स्त्री विमर्श के नाम पर या दलित विमर्श के नाम पर उन्होंने जिन गालियों का प्रयोग किया उनसे लोगों को उन्हें साहित्यकार मानने पर भी ऐतराज़ हुआ लेकिन यह हमारा देश ऐसा है यहां किसी की भी अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कुठाराघात नहीं किया जाता और साहित्य मर्मज्ञों ने राजेन्द्र यादव जी को भी भरपूर प्यार दिया।
इसी प्रकार चित्रकार एम.एफ.हुसैन ने हिन्दू देवी देवताओं के नग्न और अश्लील चित्र जब बनाए तो उनको तो नहीं जेल हुई और यही कहा गया कि यह एक कलाकार की अभिव्यक्ति की आज़ादी है।
मुंशी प्रेमचंद को कलम का सिपाही क्यों कहा गया?क्योंकि उन्होंने अपनी कलम से सामाजिक व्यवस्था को सुधारने का कार्य किया,यथार्थ दिखाने की कोशिश की।आप हम क्या कलम के सिपाही नहीं बन सकते?एक दो उदाहरण देना चाहूंगी कि कलम में कितनी शक्ति है?रीतिकाल के प्रवर्तक कवि बिहारी का नाम तो सब जानते हैं।उनकी ‘बिहारी सतसई’ को गागर में सागर कहा जाता है।दो पंक्तियों के एक दोहे में कितनी शक्ति थी इसे देखने के लिए एक बात उनके बारे में बहुत प्रसिद्ध है कि वे जिस राजा के दरबारी कवि थे उसने अपनी रानी से विवाह के पश्चात उसके मोहपाश में बंधकर राजकाज पर ध्यान देना ही बंद कर दिया जिससे प्रजा बहुत दुखी हो गयी।ऐसे में इस कवि ने दो पंक्तियों के अपने एक दोहे को लिखकर राजा के पास भेजा और यह इतिहास में लिखी बात है कि उन पंक्तियों से राजा को ऐसा अपनी जिम्मेदारियों का एहसास हुआ कि उसने राजकाज के कामों में पूरी तरह से ध्यान देना शुरू कर दिया।यह बात साहित्य जगत में बहुत प्रसिद्ध है इसीलिए कई साहित्य मर्मज्ञ कहते भी हैं कि
“सतसैया के दोहरे,ज्यों नाविक के तीर,
देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर।”
वह दोहा जो बिहारी जी ने राजा के पास भेजा था उसे पढ़ें-
“नहि पराग, नहिं मधुर मधु,नहिं विकास यहि काल।
अली कली ही सो विन्ध्यो आगे कौन हवाल।”
इसी तरह मलिक मोहम्मद जायसी का नाम भी अनजाना नहीं है।उनकी लेखनी की ताकत देखिए।वे शेरशाह सूरी के समकालीन थे।जायसी जी का वाह्य रूप काफी कुरूप था।एक बार अचानक वे शेरशाह सूरी के दरबार मे पहुंच गए।उन्हें देखकर दरबार मे उपस्थित सभी लोग हँस पड़े।इस पर जायसी बोले-
“मोंहि पे हँसि कि कुम्हरहि”
अर्थात तुमलोग मुझपर हँस रहे हो या मुझे बनाने वाले उस कुम्हार(ईश्वर) पर।सारा दरबार लज्जित और निःशब्द हो गया।शेरशाह सूरी ने स्वयं सिंहासन से उतरकर जायसी से क्षमा मांगी।
सोचिए कलम की,लेखनी की यह ताकत है।इतना थका-हारा, मृतप्राय लेखन किस काम का?इससे किसी भी रचनाकार को कैसे संतुष्टि मिलती है, मेरी समझ से बाहर है।हम सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम की बातें करने में ही लगे रहते हैं।अर्णव गोस्वामी भी साफ बोलते हैं, निष्पक्ष बोलते हैं लेकिन उसमें भी लोगों को यह लगता है कि वे हिन्दू मुसलमान की लड़ाई करवा रहे।अरे सोच नहीं है क्या हमारे पास?पालघर महाराष्ट्र में साधुओं की जिस तरह निर्मम हत्या हुई।उसका प्रश्न अर्णव ने उठाया तो क्या वह हिन्दू मुस्लिम था?उद्धव ठाकरे और उनकी पुलिस के विरुद्ध आवाज उठाना क्या हिंदू मुस्लिम है?
इस देश के रोम रोम में बसे प्रभु राम ने 500 वर्षों से अधिक का समय फटे टैंट में काटा।मुझे नहीं पता कि आपमें से कितने लोगों ने रामजन्मभूमि के दर्शन किये थे।लेकिन मेरे घर से सिर्फ 100 किलोमीटर पर यह भूमि है और हम जब भी वहां गए हैं लोगों को प्रभु राम की दशा देखकर रोते हुए पाया है।फिर भी यह हमारा देश है जहां इतनी धार्मिक सहिष्णुता है परंतु आरोप हम पर ही कट्टरता के लगाए जाते हैं।हमारा धर्म हिंदुस्तानी है और हमारा पंथ हिन्दू मुस्लिम, सिख ईसाई है यह बात क्यों नही समझ आती?
आज अभी रात 8:30 पर जब अर्णव गोस्वामी जेल से बाहर आये,उस समय का सीन अपने टेलीविजन पर अवश्य देखें।सच्चाई,निर्भीकता और निडरता की क्या ताकत होती है?यह आप स्वयं समझ जाएंगे।आज भारत ही नहीं पूरे विश्व मे अर्णव के नाम के डंके बज रहे हैं।यह सब कोई आसान नहीं।
मुझे लगता है अपने कार्य मे हर इंसान को सच्चाई तो रखनी ही चाहिए और जो कुछ अपने आस पास देखे उसे ईमानदारी से कहने की ताकत तो होनी ही चाहिए वरना ऐसी अभिव्यक्ति को मैं तो शून्य मानती हूं।इस सृजन का क्या लाभ?कोई भी विधा हो ऐसे मौन लोग जिन्हें आसपास की घटनाओं का आभास ही न हो पाए,उनके साहित्य लेखन का क्या प्रयोजन है मैं तो नहीं समझ पाती।
#अर्णव
तुम खुद से हिम्मत नही हारना ।
कभी खुद का भरोसा मत हारना ।
तुम झूठ का मार्ग छोड़
सच्चाई के रास्ते पर चलते रहना ।
मुसीबत बहुत आते हैं जीवन में
बस डट कर सामना करना ।
तुम ही देश के भविष्य हो
यह बात हमेशा याद रखना ।
जब एक हैदराबादी देश को खुलेआम ललकारता है तो उसे कोई दोष नहीं तब अभिव्यक्ति की आजादी सही और जब एक शेर आम जनता की आवाज बन कर ललकारता है तो सारे गीदड़ उसके पीछे पड़ जाते हैं। सही समय पर सही लिखा है आपने। आगे भी ऐसे ही कलम की धार रखिए।
सहमत