“संस्कृतं नाम दैवी वाग् अन्वाख्याता महर्षिभिः”। महर्षियों ने संस्कृत को ‘देववाणी’ कहा है।ऐसी हमारी ‘देववाणी’ की आज क्या दशा है, यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से मन में उठता है।
“भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिस्तथा” । भारत की प्रतिष्ठा दो के कारण है- एक संस्कृत तथा दूसरी संस्कृति।
इन्हीं दोनों का आज क्या हाल हो गया है?संस्कृत भाषी लोग कितने रह गए हैं और हमारी संस्कृति कहाँ जा रही है, यह दोनों प्रश्न विचारणीय हैं।
नई शिक्षा नीति में कुछ परिवर्तन किए गए हैं और संस्कृत की दशा को सुधारने की दिशा में बहुत से प्रयास किये जा रहे हैं।गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार के कुलपति प्रोफेसर रूपकिशोर शास्त्री जी ने कहा है कि नई शिक्षा नीति के स्वरूप को देखकर लगता है कि फिर से संस्कृत के पुराने दिन लौट आएंगे।शिक्षा नीति 2020 में इस भाषा को विशेष महत्व दिया गया है।सरकार के साथ ही साथ उन लोगों को भी संस्कृत के संरक्षण और प्रचार-प्रसार में आगे आना चाहिए,जिनकी आजीविका संस्कृत भाषा से है।
2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार संस्कृत बोलने वालों की संख्या लगभग 14 हज़ार थी,जबकि 1991 में यही संख्या लगभग 73 हज़ार थी।प्रोफेसर शास्त्री ने इस बात के लिए आगाह किया कि किसी भाषा में बोलने वालों की संख्या यदि 10 हज़ार से कम हो जाती है तो वह भाषा संवैधानिक लाभ से वंचित हो जाती है।इसलिए संस्कृत संरक्षण के सरकारी प्रयासों के साथ ही हम सभी को प्रयास करने होंगे।यह भी एक कटु सत्य है कि महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त भी मंदिरों, मठों और तीर्थस्थलों पर भी संस्कृत बोली जाती है, परंतु उसके आंकड़े प्रकाश में नहीं आ पाते।यह प्रसन्नता की बात है कि भारत सरकार की नई शिक्षा नीति में संस्कृत को विशेष महत्व दिया गया है।
भारत मे जितनी भी भाषाएं हैं, सभी में संस्कृत का अंश है।हम संस्कृत के शब्दों का प्रयोग करते हैं परंतु हमें पता ही नहीं होता कि वह शब्द संस्कृत के हैं।इतनी समृध्द भाषा है हमारी संस्कृत।
इन्हीं विषयों पर विस्तार से जानने के लिए हमारे मन में बहुत सारे प्रश्न खड़े हो जाते हैं, इन सबके बारे में हमने अपने पॉडकास्ट में आज एक ऐसी विदुषी,बहुमुखी प्रतिभा की धनी और संस्कृत की प्रकांड पंडित डॉ. नवलता जी को आमंत्रित किया जो ‘विक्रमाजीत सिंह सनातन धर्म कॉलेज’ कानपुर में प्रवक्ता और विभागाध्यक्ष रहीं तथा 2017 में सेवानिवृत्त हुई हैं।संप्रति वे ‘उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान’ की कार्यकारिणी की मानित सदस्या हैं।उनके द्वारा संस्कृत के संरक्षण, संवर्धन के लिए किए गए कार्यों का जब आंकलन करो तो सर गर्व से ऊंचा हो जाता है।ऐसी शख्सियत आज हमारे कार्यक्रम में उपस्थित हैं ,यह हमारे लिए गर्व की बात है।
उनके द्वारा किये गए कुछ कार्यों का उल्लेख मैं अवश्य करना चाहूंगी।
आपने मानव संसाधन विकास मंत्रालय अंतर्गत महर्षि सांदीपनि राष्ट्रीय वेदविद्या प्रतिष्ठानं, उज्जैन द्वारा प्रायोजित 100 वैदिक कक्षाओं का आयोजन/संयोजन किया।
अमेरिकन बायोग्राफिकल इंस्टिट्यूट के कार्यरत महिला विवरणकोश के निदेशक मंडल की मनोनीत सदस्या रहीं।
लगभग 40 वर्षों से लखनऊ आकाशवाणी से संस्कृत रचनाओं का प्रसारण ।लखनऊ दूरदर्शन से समय समय पर वार्ताओं का प्रसारण।दूरदर्शन द्वारा प्रसारित ‘मंथरा चरितं’ तथा ‘मध्यमव्यायोग’ नाटकों मे मुख्य भूमिका अभिनीत की।
अपनी संस्कृत/हिंदी सेवाओं के लिए आपको अनेक पुरस्कार भी मिल चुके हैं।
आपने उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली तथा उत्कल में आयोजित संस्कृत कविसम्मेलनों में बहुत से काव्यपाठ किये हैं।केंद्रीय प्रसार भारती द्वारा 2004 में आयोजित राष्ट्रीय सर्वभाषा कविसंवाय में संस्कृत प्रतिनिधि के रूप में चयनित तथा बैंगलोर में आयोजित उक्त कार्यक्रम में चयनित संस्कृत रचना का पाठ भी आपने किया।
उनकी कुछ कविताओं और गीतों को न दूँ, ऐसा हो नही सकता और वैसे उनसे अपने पॉडकास्ट में हम काव्यपाठ सुनेंगे।
“विजयतां सततं सुरभारती”
क्षरवती पुनरक्षररूपिणी
स्फुटितनादविवर्तविभासनी।
सकलसृष्टिरहस्यविकाशनी
विजयतां सततं सुरभारती।।1।।
दधदशेषपदाक्षरवैभवं
वितनुते सकलार्थवितानकम्।
सहजशक्तिरियं समवायिनी
विजयतां सततं सुरभारती।।2।।
विविधवैदिकलौकिकवाग्रसा
सकलशास्त्रविलोडितमानसा।
नवपुरातनसङ्गमकारिणी
विजयतां सततं सुरभारती।।3।।
प्रतिपदं बहुवृत्तिसमन्विता
प्रकृतियोगजसन्धिसमासिका।
पदविधिं दधती पदसिद्धये
विजयतां सततं सुरभारती।।4।।
रसमयी गुणरीतिविभाविता
क्वणितकाव्यमयीति मरालिका
सुकविकण्ठविभूषितरागिणी
विजयतां सततं सुरभारती।।5।।
श्रुतिमयी च षडङ्गविभूषिता
स्तुतिसहस्रयुता च कलान्विता।
चरकसुश्रुतभास्करसेविता
विजयतां सततं सुरभारती।।6।।
स्वविभया विविधार्थविभाविका
प्रमुदिता ह्युदिता नवकौमुदी।
सुमधुरा ललिता सुखदा शुभा
विजयतां सततं सुरभारती।।7।।
सरलभावनिबोधसमुज्ज्वला
मधुररागसमाहृतचेतसा।
नवनवार्थमनोहरसिद्धिदा
विजयतां सततं सुरभारती।।8।।
शिवमयी पुरुषार्थसमन्विता
सहजसत्यधरा बुधसुन्दरी।
स्मृतिपुराणनिदर्शितशासना
विजयतां सततं सुरभारती।।9।।
सकललोकहिताय विकल्पतां
निखिलविश्वमिहैकनिबन्धनीम्।
जगति सत्कृतभारतसंस्कृतिर्
विजयतां सततं सुरभारती।।10।।
“राष्ट्रं”
न सीमा धराया नदा नैव शैलाः
न सिन्धुर्न चाम्भो न रेणुर्न सम्पत्।
हिरण्यं महार्घं न चारण्यमाला
न जातिर्न वेशो न देशश्च राष्ट्रम्।।1।।
न राजा न चामात्यकोषौ न दुर्गो
न सेनाश्चरा नैव भूमिर्विशाला।
न वाणिज्यमुद्योगकल्पा न कृष्टिः
न चान्नं न यज्ञा ऋतुर्वापि राष्ट्रम्।।2।।
सदा वेदवाक्सङ्गताः ब्राह्मणाः वै
तथा क्षत्रिया लोकरक्षाप्रवृत्ताः।
प्रवृद्धा विशश्चैव शूद्रा बलिष्ठाः
चतुर्वर्णनिष्ठं भवत्येकराष्ट्रम्।।3।।
यथासाहसं यत्र दण्ड्या भुजङ्गाः
प्रशस्यास्तथा साधवः सत्क्रियन्ते।
प्रजानां हितं कामयन्यत्र राजा
प्रजागर्ति नक्तन्दिवा तत्सुराष्ट्रम्।।4।।
प्रजास्त्यागभावेन भोगेऽनुरक्ताः
स्वयं राष्ट्रचिन्तापराः कर्मशीलाः।
स्वधर्मस्थिता भावयन्त्यन्यमन्ये
सदाभ्युन्नतिं याति तद्वै सुराष्ट्रम्।।5।।
नवीनानुसन्धानविज्ञानकल्पैर्
धिया येऽभिरक्षन्ति मेधाभिमानम्।
प्रबुद्धैर्नरैः नीतिमद्भिर्विधिज्ञैः
यदाप्नोति लोके यशस्तत्सुराष्ट्रम्।।6।।
प्रकृत्या सुरम्यं धिया धीयमानं
यशो देवताभिः सदा गीयमानं।
महिम्ना गुरुत्वाज्जगद्वन्दनीयं
पुना भारतं भासतामेकराष्ट्रम्।।7।।
नानाधातुप्रभावादमलरुचिवतः शैलराजात्प्रसूताः
नानावीजप्रसूत्यै विमलजलवहा यत्र नद्यो वहन्ति।
लोकैः संरक्षितैव प्रचुरधनयशः कृष्टिभिः प्रार्थयन्ती।
सस्यश्यामा धरित्री गुणगणभरिता यस्य वै तत्सुराष्ट्रम्।।8।।
सर्वामर्थव्यवस्थामधिगतविपदं चोद्धरन्नीतिकल्पैः
भूयो धर्मप्रवृत्तिं सरलसुभगभावामामनन्मोक्षमार्गे।
विश्वस्मिन्भूतलेऽस्मिन्प्रगतिपथगतं भौतिकेऽप्यात्मरीत्या
स्मारं स्मारं महत्त्वं सुपथकृतपदं भातु भूयः स्वराष्ट्रम्।।9।।
विश्वेषां मङ्गलाय प्रहितविधिमयी गुञ्जतां वेदवाणी
शास्त्रज्ञानप्रतिष्ठामभिलषितसुखः कुर्वतां सर्वलोकः।
गैर्वाणी लोकभाषा भवतु भुवि पुनः सत्यसन्देशदात्री,
यज्ञद्रव्यैः पवित्रं धृतजलपवनं भातु लोके स्वराष्ट्रम्।।10।।
संस्कृत के लिए कितना सटीक लिखा है-
“संस्कृते पदलालित्यं संस्कृते चार्थगौरवम्।
संस्कृते सकलं ज्ञानं संस्कृते किं न विद्यते।।”
संस्कृत में पदलालित्य है, अर्थ का गौरव है, संस्कृत में सम्पूर्ण ज्ञान है, संस्कृत में क्या नहीं है अर्थात् सब कुछ है।
डॉ.नवलता जी ने संस्कृत और हिंदी में पुस्तकें लिखीं।आपने 17 पुस्तकें लिखीं,जिसमें से 14 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और 3 प्रकाशनाधीन हैं।आपकी 8 पुस्तकें संस्कृत में है,उसके अलावा 9 हिंदी की पुस्तकें आपने लिखीं,जिनमें निबंध- संग्रह और कविता-संग्रह हैं।आपकी सबसे बड़ी विशेषता मुझे यह लगती है कि उनके लेखन में मौलिकता है।
उनके लगभग 90 लेख ,निबंध और शोधपत्र- विभिन्न संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं,संपादित ग्रंथो और शोध स्मारिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।
आपकी 3 ग्रंथ समीक्षाएँ भी प्रकाशित हो चुकी हैं।आपने विभिन्न पत्रिकाओं के संपादन में भी अपना योगदान दिया।
आप 11 शोध छात्रों को अपने निर्देशन में पी एच.डी. करवा चुकी हैं।
संस्कृत/हिंदी सेवा के लिए उन्हें कई पुरस्कार एवं सम्मानों से भी सम्मानित किया जा चुका है।दिल्ली संस्कृत अकादमी,अखिल भारतीय संस्कृत सम्मेलन दिल्ली,उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊ, उत्तराखंड संस्कृत अकादमी, भारतीय विचारक समिति, कानपुर,आदि विभिन्न संस्थाओं से उन्हें समय समय पर सम्मानित किया जा चुका है।
ऐसी विदुषी,अपने कार्यों में तन्मयता से लीन,हिंदी और संस्कृत भाषा के उन्नयन के लिए पूरे मनोयोग से लगी हुई हमारी डॉ. नवलता जी के लिए जितना भी लिखा जाए कम ही होगा।
यह तो थोड़ा-बहुत मैंने आपके विषय में अपने पाठकों को जानकारी दी है।उनके साथ मेरी बातचीत जिसे मैं साक्षात्कार नहीं कहूंगी क्योंकि आप जितनी गुणी हैं उतनी ही स्वभावतः सहज और सरल भी हैं इसलिए मुझे ऐसा लगा ही नहीं कि मैं किसी ऐसी महिला से बात कर रही हूं जो अपने विषय के साथ ही साथ और बातों में भी बहुत ही विद्वता रखती हैं बल्कि अपनी सादगी से उन्होंने पूरे साक्षात्कार को हल्का फुल्का माहौल दे दिया तो मेरे पॉडकास्ट में उनकी बातें अवश्य सुनें।
डा. नव लता जी को सुनना ही सम्मान की बात है। और इसके लिए भावना जी बधाई की पात्र हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि देश भाषा एवं समस्त भारतीय भाषाओं की जननी होने के बावजूद संस्कृत मृतप्राय है। आपका विचार सही है, कि दक्षिण भारत में संस्कृत उत्तर भारत की तुलना में अधिक सम्मानित हैं। दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य के शिवमोगा जिले में एक गांव हैं, जहां अब भी आम जन की बोलचाल की भाषा संस्कृत ही है। लेकिन एक गांव तक ही सीमित हो जाने से हमारा कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता। हमें गर्व है कि डॉ. नव लता जी जैसी विभूति हमारे बीच हैं, अगर हम सब प्रयास करें तो हम जन जन में संस्कृत के प्रति सह समयमान तो कर हुं सकते हैं कि, संस्कृत उनकी भाषा की जननी है। तब शायद संस्कृत जीवंत हो उठे।
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