” दिया क्यों जीवन का वरदान?
इसमें है स्मृतियों का कंपन,सुप्त व्यथाओं का उन्मीलन,
स्वप्नलोक की परियां इसमें,भूल गईं मुस्कान!
दिया क्यों जीवन का वरदान?
इसमें है झंझा का शैशव,अनुरंजित कलियों का वैभव,
मलय पवन इसमें भर जाता, मृदु लहरों के गान!
दिया क्यों जीवन का वरदान?”
इन पंक्तियों की रचयिता आधुनिक हिंदी साहित्य की सबसे प्रतिभावान एवं सशक्त कवयित्रियों में से एक महादेवी वर्मा जी का देहावसान 11 सितंबर 1987 के दिन ही हुआ था।वे हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक मानी जाती हैं।कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने उन्हें ‘हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती ‘ भी कहा था।
वे उन रचनाकारों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार और रुदन को देखा और उस अंधकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की।न केवल उनका काव्य बल्कि उनके समाज सुधार के कार्य और महिलाओं के
प्रति चेतना भावना भी इस दृष्टि से प्रभावित रहे।
महादेवी जी को एक कोमल नारी हृदय प्राप्त है,जो केवल कवि होने के कारण ही सहृदय एवं सरस नहीं है अपितु सात्विक गुणों से भी परिपूर्ण है, क्योंकि उनके गीतों में जिस निश्छल प्रेम-वेदना का निरूपण हुआ है, उसमें न कहीं कटुता है, न कहीं द्वेष है,न कहीं घृणा है और न कहीं प्रतिकार की भावना है।यह वेदना तो अपनी सहज विवृत्ति में विश्व-वेदना सी बन गयी है।
महादेवी वर्मा जी ने न केवल कविता, अपितु रेखाचित्र, संस्मरण, निबंध, कहानी आदि हर विधा में लिखने का सफल प्रयास किया।
ऐसी आधुनिक युग की मीरा को हमारा सादर नमन।
आज मैंने अपने पॉडकास्ट में जिनको आमंत्रित किया वे एक ऐसी रचनाकार हैं, जिन्होंने न केवल कविता अपितु कहानी,लेख उपन्यास कई विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई।ऐसी बहुमुखी प्रतिभा की धनी रंजना जायसवाल जी से मैंने अपने पॉडकास्ट में बातचीत की और उनकी कविताओं को सुना।
आपका जन्म पूर्वी उत्तर-प्रदेश के पडरौना जिले में हुआ।आरम्भिक शिक्षा पड़रौना में ही हुई और उच्च-शिक्षा गोरखपुर विश्वविद्यालय से “’प्रेमचन्द का साहित्य और नारी-जागरण”’ विषय पर पी-एच.डी ।
आपकी प्रकाशित कृतियाँ- कविता-संग्रह -मछलियाँ देखती हैं सपने [2002],दुःख-पतंग [2007],जिंदगी के कागज पर [2009],माया नहीं मनुष्य [2009],जब मैं स्त्री हूँ [2009] सिर्फ कागज पर नहीं[2012]क्रांति है प्रेम [2015]स्त्री है प्रकृति(2018)
कहानी-संग्रह –तुम्हें कुछ कहना है भर्तृहरि [2010],औरत के लिए [2013]कैसे लिखूँ उजली कहानी(2018)अति सूधो स्नेह को मारग है(2018)
लेख-संग्रह –स्त्री और सेंसेक्स [2011]तुम करो पुण्य हम करें तो पाप(2018)
उपन्यास -..और मेघ बरसते रहे ..[2013],त्रिखंडिता [2017]
सम्मान –अ .भा .अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरस्कार[मध्य-प्रदेश], भारतीय दलित –साहित्य अकादमी पुरस्कार [गोंडा ],स्पेनिन साहित्य गौरव सम्मान [रांची ,झारखंड]|विजय देव नारायण साही कविता सम्मान [लखनऊ,हिंदी संस्थान ]भिखारी ठाकुर सम्मान [सीवान,बिहार ]
आपने स्वयं भी जीवन में बहुत से संघर्षों का सामना किया-
“दुर्गम यात्राओं का
कष्ट-सुख
जानती है
नदी
नहीं जानता
समुद्र…।”
उन्होंने हर उम्र की महिलाओं के विषय में उनके दुःख, अवसाद और त्रासदी को अपने शब्द दिए।
‘लड़कियां’ शीर्षक कविता में उन्होंने युवा लड़कियों का चित्रण किया-
“लड़कियाँ”
माँ कहती थी
चंचलता अभिशाप है लड़कियों के लिए
लोकोक्ति में भी
लड़की के हंसने को फंसने से जोड़ा जाता है।
फिर भी कहाँ थिर रह पाती हैं लड़कियाँ?
नाचती रहती है उनके पैरों के नीचे की जमीन,
वे वन्य लताओं की तरह
कोई अनुशासन नहीं मानतीं
कुछ लड़कियाँ जरूर अपवाद होती हैं
कुछ को संभ्रांत सोच बचपन में ही
तराश देती है
वे ऑटोफिशियल लड़कियाँ बन जाती हैं
जबकि ज्यादातर लड़कियाँ होती हैं
प्रकृति जैसी
हर जगह को खुशबू से महका देती हैं
वातावरण को
संगीतमय बना देती है
यूँ कहें कि जंगल में भी महामंगल
रचा देती हैं
उनके जागने से सूरज में ताप आता है
सोने से बढता है अन्धकार
यौवन के आगमन से
रूप-रस-गंध से लबालब भर जाती हैं लड़कियाँ
काला,स्याम,गेहूंआ या गोरा कैसा भी
उनका रंग
छोटा-मंझोला,लंबा कैसा भी हो कद
जैसी भी हो देह-मुँह की आकृति
आकर्षण को भी आकर्षित करने लगती हैं लड़कियाँ
घर..बाजार शादी-त्यौहार
हर अवसर पर अलग ही दिपदिपाती हैं लड़कियाँ
अपने सादे चेहरे और कपड़ों से भी
मात दे देती हैं
रंगी-पुती जेवर-कपड़ों से सजी औरतों को
उनके आते ही बनने लगता है बिगड़ा काम
दुकानदारों के चेहरे खिल उठते हैं
चीजों के गिरने लगते हैं दाम
कोई लाख कहे
सच यही है कि बड़े-बूढ़े हो
या बच्चे जवान
सबको अच्छी लगती हैं लडकियाँ
वे ना हों चली जाए रौनक दुनिया की
फिर क्यों कहती है माँ
लड़कियों के जन्म से धंसती है धरती
मैंने तो देखा है
धरती को उनके साथ खुशी से उछलते हुए |
इसी प्रकार अपनी “देवी” शीर्षक कविता में रंजना जी ने अस्सी पार करती वृद्ध महिला के दुख का बड़ा मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है-
“देवी”
एक दिन घर से खबर आई
कि ताई पर आने लगी हैं कोई देवी
यह आश्चर्य भी था अविश्वसनीय भी
पर भाई-भाभियाँ बहन-बहनोई
पास-पड़ोस सारे रिश्तेदार
सभी कह रहे थे एक स्वर में
कि सच ही ताई पर आने लगी हैं कोई देवी
देवी के सवार होने पर ताई बक-झक करती हैं
हाथ-पैर पटकती हैं
अपने ऊपर किए जा रहे बेटे-बहुओं की
ज़्यादतियों का बखान करती हैं
धमकाती हैं कि आगे हुआ अन्याय तो हो जाएगा सर्वनाश
बेटे बहू ही नहीं मौजूद सभी नवाते हैं उनके चरणों में सिर
जाते -जाते बेटों को देती हैं खुश रहने का आशीर्वाद
कहने लगे हैं उनके बेटे -जब से आने लगी हैं
ताई पर देवी हो रहा है उनका कल्याण
अब बेटे –बहू रखने लगे हैं ताई का ध्यान
डरने लगे हैं कि किसी बात पर ताई हो न जाए नाराज
मैं इस बात से खुश हूँ
क्योंकि देख चुकी थी पिछली बार
ताई का बात-बात पर अपमान
हालांकि गले नहीं उतर रही मेरे देवी वाली बात
ताई भीं नहीं करती मुझसे इस बारे में बात
जानती हैं वे मेरा स्वभाव
घर में सभी का है पूजा-पाठ में विश्वास
जबकि मुझे घोर अविश्वास
फिर भी मैं देवी के विषय में चुप हूँ
नहीं चाहती टूटे किसी का भी ये तिलिस्मी विश्वास
जिसने बना दिया है ताई को थोड़ा खास
ये वही ताई हैं जिनसे पढ़ा था मैने प्रगति का पाठ
जो उड़ाया करती थीं ओझा-सोखा ,भूत-प्रेत
देवी –देवता का उपहास
आज उन्हीं ताई पर आने लगी हैं देवी
होते ही उम्र के अस्सी पार
क्या पाने को सबका ध्यान बस यही बचा है
उनके पास हथियार !
सुना था भय से जन्म हुआ था धर्म का
क्या आज भी है भय ही धर्म का आधार ?
अपनी रचनाओं और स्त्री-विमर्श पर आपने अपने विचारों को हमारे पाठकों और श्रोताओं के लिए रखा।उन्होंने अपने संघर्षों के खुलकर वर्णन किया और बताया कि संघर्षों के परिणामस्वरूप स्थितियां कितनी बदली हैं।
रंजना जायसवाल जी की कविता अंतर को झकझोरती हैं ,सच कहा भावना ..जी करता है बस उनकी कविता और उनके सुनते जाय ।बहुत बहुत धन्यवाद भावना आपको ऐसी प्रतिभावान लेखिका से रूबरू कराने के लिये ।
Very nice
🙏🙏