आज का युग जड़-विज्ञान का युग है।विज्ञान ने भांति-भांति के यंत्रों का आविष्कार किया है।जड़ीय सुख के लोभ में मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनका उपयोग कर रहा है।इससे समाज में अभूतपूर्व परिवर्तन हो गया है।जीवन यंत्रवत हो गया है।जितना जीवन यंत्रवत हो गया है और जड़ीय सुख बढ़ गया है,उतनी ही जड़ीय सुख की लिप्सा और बढ़ गई है।
आवागमन और संचार के नवीनतम साधनों ने दूरी को कम कर दिया है।मनुष्य मनुष्य के इतना निकट हो गया है कि वह एक दूसरे से सट कर चल रहा है परन्तु मनुष्य क्योंकि मनुष्य नहीं रहा है यंत्र हो गया है,इसलिए वह शरीर से ही एक-दूसरे के निकट दिखता है,आत्मा से मन से वह दूर हो चुका है।इस बात को हम सभी कभी न कभी इस तरह से महसूस करते ही हैं कि फ़ोन और इन्टरनेट के इस युग में हम अपने सभी सगे-सम्बन्धियों और दोस्तों से शायद अपने दिन भर के समय का काफी हिस्सा बात-चीत या सोशल मीडिया के द्वारा संदेशे देने-लेने में गुजारते हैं लेकिन एक दूसरे के दिल में कितना झांक पाते हैं या शायद झांकना ही नही चाहते हैं तो फिर ऐसे संबंधों या ऐसी निकटता का क्या लाभ?लेकिन यही तो वह कारण है जिसने हमारे जीवन को यंत्रवत बना दिया है।हम एक दूसरे के गले में हाथ डाल कर चलना भूल गये हैं और एक दूसरे को ठोकर मारकर चलना सीख गये हैं।इस ठेला-ठेली में एक दूसरे से विवाद की संभावनाएं बढ़ गई हैं और यह बात केवल परिवारों और समाज में ही न होकर विश्व स्तर पर हो रही हैं।युद्ध की संभावनाएं बढ़ गई हैं।आणविक अस्त्रों की होड़ इतनी बढ़ गई है कि युद्ध की संभावना मनुष्य के सम्पूर्ण विनाश की संभावना बन गई है।मनुष्य के विनाश की तो संभावना ही है परन्तु मनुष्यत्व का विनाश हो चुका है।मनुष्य पशु हो गया है और पशुत्व के लक्षण उसमें दिखने लगे हैं।विज्ञान ने उसकी पाशविक प्रवृत्तियों की क्षमता को असीम बनाकर उनका विनाशकारी तांडव आरंभ कर दिया है।राजनीति में भी डारविन के शक्ति के सिद्धांत का बोलबाला हो रहा है।राष्ट्र ‘अस्तित्व के लिए युद्ध’ और ‘शक्तिशाली के ही अस्तित्व की रक्षा’ के सिद्धांत पर चल रहे हैं।हर तरफ घृणा और भय का आतंक छाया है और संस्कृति तो जैसे मर चुकी है,उसका कंकाल मात्र खड़ा है।संस्कृति के सभी अंग-नृत्य,गीत,काव्य,कला और साहित्य आदि क्षणिक आमोद-प्रमोद की सामग्री बनकर रह गये हैं।कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो जैसे उनका कोई उद्देश्य नही रहा है।सब कुछ मरा-मरा सा,शून्य सा लग रहा है।
इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हम सब चुनाव में अनुभव कर रहे हैं।एक दूसरे को ऐसे वाणी से घायल किया जा रहा है कि जैसे मानों कोई जन्म-जन्मान्तर के दुश्मन एक दूसरे से लड़ रहे हों।कुछ वर्षों पहले के चुनाव पर ध्यान दे कर देखिये ऐसा तो कभी नही होता था।कोई भी राजनीतिक पार्टी का नेता हो एक-दूसरे का उचित सम्मान करता था।देश हित भी कोई मायने रखता था लेकिन इधर 15-20 वर्षों में धीरे धीरे हुआ यह है कि आज राजनीति बिलकुल गर्त में जा चुकी है।किसी के अपमान में शब्दों की मर्यादा का इतना अधिक उल्लंघन किया जा रहा है कि उसने अपनी हदें पार कर ली हैं।न धर्म को छोड़ा जा रहा है न भगवान को और महिलाओं के लिए अपशब्द और जिस तरह की निम्न स्तरीय भाषा का प्रयोग इस बार के चुनाव में हो रहा है ऐसा तो मैंने अपने जीवन में कभी नही देखा और हद तो यह हो जाती है कि लगभग हर दल में एक न एक बड़ी महिला नेता है लेकिन जब उन्ही की पार्टी का कोई नेता विपक्षी पार्टी की किसी महिला नेता के लिए ऐसी घृणित और गन्दी भाषा का प्रयोग करता है तो अपनी पार्टी के उस पुरुष नेता को डांटने या ऐसा न करने का आदेश देने की जगह ऐसी महिला नेता चुप्पी साध कर अपनी मूक सहमति ही देती हैं।मुझे तो समझ ही नही आता कि यह किस मानसिकता के लोग हैं जो अपने अन्दर इतना ज़हर पाल कर बैठे हैं और उसे जब उगलते हैं तो सब तरफ विष ही विष नज़र आता है।जाति-धर्म को लेकर भी इतना विषवमन हो रहा है कि हमारे देश के राष्ट्रपति जी जो इस देश के हर नागरिक के लिए सम्माननीय हैं,उन्हें भी नही छोड़ा जा रहा है।यह हम किस दिशा में जा रहे हैं?चुनाव में जीत हासिल कर कुर्सी और पद प्राप्त कर लेने की ऐसी होड़ लगी है कि एक दूसरे को हराने के लिए कुछ भी किया जा रहा है।लगभग हर नेता यह कहता है कि उसे पैसे या किसी पद का कोई लालच नही है तो फिर मुझे एक बात नही समझ आती कि जब कोई लालच भी नही है और यह सब नेता निःस्वार्थ भाव से समाज की सेवा ही करना चाहते हैं तो फिर कुर्सी पाने की इतनी आपाधापी क्यों?सेवा ही करनी है तो जनता को चुनने दीजिये जैसा निर्णय होगा स्वीकार करियेगा।उफ़ शर्म आती है ऐसे दोहरे चरित्र और दोहरी बात करने वाले लोगों पर।
राजनीति ही नही लगभग हर क्षेत्र में आपको ऐसे ही लोग मिलेंगे जिन्हें जड़ीय सुख की लिप्सा ने पशु ही बना दिया है।मेरे दिल को एक बात की बहुत चुभन होती है कि बचपन से हम अपने बड़ों से सुनते आए थे कि डॉक्टर भगवान होता है और गुरु तो ईश्वर से भी बढ़ कर होता है लेकिन आज मैं देखती हूँ कि चिकित्सा और शिक्षा के क्षेत्र में जितनी गिरावट आई है उतनी शायद ही कहीं आई हो।डॉक्टर अधिक से अधिक फीस लेकर मरीजों का दोहन करने में संकोच नही करते।मेरा और मेरे कई जानने वालों का व्यक्तिगत अनुभव है कि बड़े सरकारी अस्पतालों के तथाकथित बड़े-बड़े डॉक्टर जिनके प्राइवेट प्रैक्टिस करने पर भी रोक है वे अस्पताल में मरीज को जल्दी से बिना कुछ देखे सुने टालते हैं ताकि मरीज उनके घर उन्हें दिखाने आए और फिर उससे मोटी फीस वसूलते हैं।अब मैं किसी का भी नाम देकर कोई विवाद नही खड़ा करना चाहती लेकिन एक सरकारी अस्पताल के डॉक्टर जिनका बड़ा नाम है और लगभग महीने में एकाध बार समाचारपत्रों में उनका नाम आ जाता है कि उन्हें किसी बड़े अवार्ड से नवाजा जा रहा है और इसके साथ ही उनके बारे में दिया जाता है कि वे समाजसेवी हैं लेकिन मैं खुद उनकी सच्चाई देख चुकी हूँ कि वे घर पर छुप कर प्रैक्टिस करते हैं और जो लोग उनकी मोटी फीस की रकम दे सकने में सक्षम हैं उनकी बात तो जाने दें लेकिन जो लोग बिलकुल गरीब और इस हाल में भी नही होते कि इतने पैसे खर्च सकें लेकिन बेचारे मरीज और उसके घर वाले कैसे भी करके अपनी जान बचाने को पता नही कैसे पैसों का इंतजाम करते होंगे उनसे भी यह डॉक्टर साहब लपक कर पूरी फीस की रकम लेते हैं।उन्हें ऐसा करते देखकर मैं तो बिलकुल अवाक रह गई कि यह वही डॉक्टर है जिसे बहुत बड़े समाजसेवी के तमगे से नवाजा जाता है और जो बड़ी बड़ी बातें बोलकर अपना नाम बनाता है।
ऐसा ही हाल शिक्षा के क्षेत्र में भी है।सरकार से वेतन पाने के बावजूद शिक्षक प्राइवेट ट्यूशन करते हैं और लाखों कमाते हैं।कहाँ गई वह परंपरा जहां विद्या दान किया जाता था?आज तो शिक्षक स्वयं ही भिखारी बना हुआ है।न तो विद्यार्थियों में पढ़ने का जज़्बा बचा है और न ही शिक्षक पढ़ाना चाहते हैं और इन सब में विद्यार्थियों का उतना दोष भी नही है जब शिक्षक ही नही पढ़ाना चाहेंगे तो बच्चे क्या करेंगे?हर तरफ सिर्फ भौतिकतावादी दृष्टिकोण ही दिखाई पड़ता है।पहले गुरु शिष्यों को इसलिए विद्या देते थे कि उन बच्चों का कल्याण हो लेकिन आज शिक्षक इसलिए बच्चों को विद्या देते हैं कि उससे उनका यानि गुरुओं का कल्याण हो।बस सारी समस्याओं की जड़ में सिर्फ एक यही वजह है जिसने शिक्षा जैसे इतने पवित्र क्षेत्र को भी बिलकुल गिरा दिया है।
आज हम जिस दिशा पर चल पड़े हैं उसमें परिणाम सोचकर भय होता है।स्थितियां विनाशकारी हैं।कहने को तो हम अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं परन्तु इस लड़ाई में आज हमारा अस्तित्व ही मिट जाने को है।यदि इस लड़ाई में किसी एक पक्ष का अस्तित्व सुरक्षित हो भी जाता है तो उसका कोई अर्थ नही है।क्योंकि सिर्फ अपना अस्तित्व बचाने की कामना न करके हमें सुख-शांतिमय आनंदयुक्त अस्तित्व की कामना करनी चाहिए।सुख-शांति केवल भाषण देने से न होगी,केवल सभा-समितियां करने से न होगी बल्कि अपने भीतर झांक कर देखने से होगी।ठीक है आज विज्ञान का युग है और इनके बिना हमारा काम चलना भी असंभव है लेकिन इसका प्रयोग करते हुए हम स्वयं को क्यों मशीन बनाने पर तुले हुए हैं?अपने अन्दर के मानव को हमने ख़त्म स्वयं ही किया है फिर हम सारा दिन रोते हैं कि कोई हमारा सच्चा मित्र नहीं, या हमारी तो किस्मत ही ऐसी है कि हमें कोई यश नही लेकिन क्या हमने कभी दोस्ती या रिश्ते दिल से निभाए?हम भी तो अपना ही स्वार्थ सिद्ध करते हैं और बदले में बड़ी-बड़ी अपेक्षाएं रखते हैं।
आज हम जैसा यंत्रवत नीरस जीवन व्यतीत कर रहे हैं उसने वास्तव में इन्सान को इन्सान कम मशीन ज़्यादा बना दिया है।आज इस पूरे लेख को लिखने के दौरान मुझे बहुत पहले पढ़ी हुई जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के प्ले ‘Arms and the man’ की कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं।हालाँकि यह प्ले सन 1894 से 1898 के बीच लिखा गया और जैसी हम कल्पना ही कर सकते हैं क्योंकि उस समय हममे से कोई भी नही रहा होगा कि वह समय इतना जड़-विज्ञान का युग तो नही था।मनुष्य इतना मशीन तो नही ही बना था फिर भी लेखक ने अपने प्ले में नायक के लिए जिस तरह के शब्दों का प्रयोग किया उससे एक बात तो स्पष्ट होती है कि अगर आज जॉर्ज बर्नार्ड शॉ होते तो मनुष्य का हाल देखकर अब वे कहाँ से शब्दों का चयन करते?इस प्ले का एक मुख्य पात्र ब्लंटशली(Bluntschli) बहुत पेशेवर या व्यवसायी मनुष्य है और उसके इसी व्यावहारिक रवैये को देखकर इस प्ले का एक अन्य मुख्य पात्र सर्जियस(Sergius)कहता है कि,
“you are not a man : you are a machine.”
प्ले की अंतिम पंक्ति ही इसी भाव को दर्शाती है।ब्लंटशली के इसी व्यावहारिक रवैये के कारण सर्जियस उसके लिए कहता है,
“What a man ! Is he a man !”
और इसी पंक्ति के साथ प्ले का अंत हो जाता है।वास्तव में यह पंक्तियां सोचने पर मजबूर करती हैं कि इतने वर्षों पूर्व जब हालात आज जैसे तो कत्तई नही थे तो भी लेखक ने ऐसी बात महसूस की और अपनी कृति में इन बातों की चर्चा की तो फिर आज हम कहाँ हैं?यह तो हम पर भी निर्भर करता है कि स्वयं को मशीन बनने से रोकें इतना भी व्यावहारिक न बनें थोड़ा-सा अपने अन्दर के मानव को जागृत करें और उसे जिंदा रखें।
सुंदर विश्लेषण
सुन्दर भावाभिव्यक्ति।संवेदनशीलता मनुष्य को ‘मनुष्य’ बनाती है तथा साहित्य का अध्ययन मनुष्य को संवेदनशील बनाता है।