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येचुरी जैसों के चुभते बोल

हम भारत देश के लोग नैतिकता की,चरित्र की या अपने धार्मिक प्रेम की जितनी भी बातें कर लें लेकिन आज हम जिस स्तर पर पहुंचे हुए हैं उसमें स्वयं को उस देश का नागरिक कहने में भी शर्म आती है जिस देश के धर्म और संस्कृति से आधा जगत प्रभावित है।चीन और जापान,तिब्बत और नेपाल,बर्मा और लंका सब भारत को अपना आध्यात्मिक घर मानते हैं।भारत की अपनी सभ्यता अल्पायु वाली नही है।इसके ऐतिहासिक वृत्तांत चार सहस्त्राब्दियों से भी अधिक प्राचीन हैं।उस समय भी वह सभ्यता की उस अवस्था पर पहुँच चुका था, जिसकी धारा समय-समय पर मंद और अवरुद्ध होते हुए भी आज तक प्रवाहित होती चली जा रही है।यद्यपि इतिहास के प्रारंभ से विभिन्न जातियों और संस्कृतियों के लोग भारत में आते रहे हैं परन्तु हिन्दू धर्म अपनी प्रधानता बनाए रखने में समर्थ रहा है।यहाँ तक कि ऐसे दूसरे धर्म भी जिन्हें राजशक्ति का सहारा था वे भी दबाव डालकर बहुत संख्या में भारतीयों को अपने मत में दीक्षित नही कर सके।कह सकते हैं कि हिन्दू धर्म में कुछ ऐसी प्राण शक्ति है जो किसी भी धर्म में नही है।हिन्दू धर्म की परख-पड़ताल करना उसी तरह अनावश्यक है जिस तरह लहलहाते वृक्ष को फाड़कर यह देखना कि उसके भीतर रस संचार होता है या नहीं।परन्तु मात्र तीन दिन पहले सीपीआई(एम)नेता सीताराम येचुरी ने हिन्दुओं को लेकर जो विवादास्पद बयान दिया है उसे मुझे यहाँ लिखने की कोई आवश्यकता नही है क्योंकि इस देश के हर जागरूक नागरिक को ऐसे बयानों की जानकारी होनी ही चाहिए।

                      दुर्भाग्य है कि इन जैसे लोगों को हिन्दू धर्म अर्थहीन कोरा नाम ही जान पड़ता है।पर क्या यह मत-मतान्तरों का भंडार है,कर्म-कांडों का मिश्रण है अथवा महज मानचित्र है या भौगोलिक अभिव्यक्ति मात्र है?यदि इसका कोई विषय है तो वह युग-युग में,समाज-समाज में बदलता रहा है।वैदिक काल में अगर यह कुछ था तो ब्राह्मण काल में कुछ दूसरा हो गया और बौद्ध काल में कुछ तीसरा ही।शैवों के लिए इसका अर्थ कुछ और है तो वैष्णवों के लिए कुछ दूसरा और शाक्तों के लिए कुछ तीसरा।हिन्दू धर्म जिन जातियों के संपर्क में आया उनके रीति-रिवाज़ों और विचारों को धीरे-धीरे उसने जितनी सरलता से अपने में मिला लिया था उतनी अधिक कठिनाई आज हमें उसके विभिन्न रूपों को एक में संगठित करने वाली सामान्य प्रवृत्ति के खोजने में पड़ रही है।यदि यह मत-मतान्तरों का भंडार ही होता तो समय के साथ इसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता लेकिन मुझे लिखने की आवश्यकता ही नही होनी चाहिए क्योंकि यह तो सर्व विदित है कि हिन्दू धर्म और संस्कृति का अस्तित्व समाप्त कर पाना असंभव है क्योंकि यह तो सृष्टि के अंत के साथ भी अंतहीन है।इसी तरह जो लोग इसे मात्र कर्म-कांडों का मिश्रण ही समझते हैं वे भी अज्ञानी ही हैं।कभी-कभी हास्यास्पद भी लगता है और दिल में एक चुभन भी होती है जब मैं देखती हूँ कि राजनीति के शिखर पर पंहुचे हुए कुछ लोग सिर्फ जनेऊ पहन कर या अलग-अलग मंदिरों में जाकर या हवन पूजा करके स्वयं को हिन्दू धर्म का अनुयाई साबित करने की चेष्टा करते है ताकि उन्हें चुनाव में जीत हासिल हो सके परन्तु यह मात्र दिखावा है।हिन्दू धर्म की वास्तविकता से ऐसे लोग परिचित ही नही हैं क्योंकि यदि वे परिचित होते तो उन्हें इन दिखावों की आवश्यकता ही न पड़ती और जिस तरह से भाषा की मर्यादा का उल्लंघन यह लोग करते है वह भी हिन्दू धर्म में है ही नही।

                        सबसे पहले मैं सीताराम जी के इस प्रश्न का जवाब देना चाहूंगी जो उन्होंने यह कहा कि रामायण और महाभारत काल लड़ाई और हिंसा से भरा हुआ है और प्रचारक के तौर पर हिन्दू उसे सिर्फ महाकाव्य के तौर पर बताते हैं।तो सीताराम जी आपके प्रश्न का न जाने हमारे कितने दिग्गज रामायण और महाभारत की कथाओ का गान करने वाले विदज्जन हैं जो ऐसा मुंहतोड़ जवाब दें कि आप कुछ सोचने की भी शक्ति शायद खो दो लेकिन मैं सोचती हूँ कि ऐसे लोग अब जिनके लिए मैं किसी विशेषण का प्रयोग नही करना चाहती,उनको जवाब देने के लिए तो मुझ जैसी अत्यल्प ज्ञानी ही काफी है।ज्ञानी जनों को इन जैसों के लिए समय व्यर्थ करने की आवश्यकता नही है।सीताराम जी आपका इशारा इस ओर है कि रामायण और महाभारत काल में जो युद्ध हुए तो वह भी धर्म युद्ध थे तो फिर इस काल में मुस्लिम लोग अगर जेहाद या धर्म युद्ध लड़ते हैं तो इसमें क्या गलत है?आप जैसे लोगों को शायद लगता है कि राम और कृष्ण युद्ध कर सकते थे तो आप लोगों के मुस्लिम भाई क्यों नहीं?तो साहब आप एक बार विचार करिए कि रामायण काल में जो भी युद्ध हुए या प्रभु श्री राम ने जिनका नाश किया वे सब आसुरी प्रवृत्तियों वाले लोग थे उन्होंने न जाने कितने निरीह लोगों को त्रस्त किया हुआ था।लेकिन ऐसा करने में राम जी या उनके साथ जो भी लोग थे उन्होंने किसी असहाय,दुर्बल,बालक,वृद्ध या नारी को कभी भी तंग नही किया उल्टा उनकी रक्षा की।श्री राम ने कभी जाति या धर्म को नही देखा बल्कि शबरी के जूठे बेर खाए और केवट के पाँव तक धोए।निरीह पशु-पक्षी तक से उन्होंने रिश्ता जोड़ा और गिद्ध,वानर तथा रीछ तक को सम्मान दिया और उनकी रक्षा की।रावण का नाश करके एक प्रकार से उन्होंने धर्म-संस्कार और न जाने कितने लोगों की रक्षा ही की।सीताराम जी जैसे लोगों से मैं पूछना चाहूंगी कि आज कुछ लोग जेहाद के नाम पर जो कुछ कर रहे हैं क्या उसमे और रामायण काल में उन्हें एक समानता ही दिखती है?यहाँ तो बल्कि उल्टा हो रहा है।दुष्टों का नाश न होकर न जाने कितने मासूम मर रहे हैं।कश्मीर में पंडितों की जो हालत की गई,उनकी महिलाओं के साथ जो कुछ हुआ उसमे उनको हिंसा नही दिखती।निर्दोष सैनिकों को जो मारा जाता है यह सब कोई युद्ध के तरीके हैं इसे तो सिर्फ आतंकवाद ही कहा जा सकता है।इसी तरह महाभारत काल से भी कोई तुलना नही की जा सकती क्योंकि वह पारिवारिक युद्ध था और वास्तव में धर्म युद्ध था।सामाजिक दशा जैसा कि हम देखते हैं उस समय बहुत ख़राब हो रही थी।जुए में द्रौपदी को हारना और चीर-हरण जैसे प्रसंग यह बताते हैं कि नारी की क्या दशा थी लेकिन कृष्ण द्वारा द्रौपदी की रक्षा एक सार्थक सन्देश देती है।श्री कृष्ण ने इसे पूरी तरह अधर्म पर धर्म की विजय बना दिया और यह सब हमें महाभारत पढ़ने से ज्ञात भी होता है।परन्तु सीताराम जी जैसे लोगों का ज्ञान अत्यल्प है या कह सकते हैं कि है ही नही क्योंकि ऐसा होता तो वे हिन्दू धर्म को हिंसक कह ही नही सकते थे।

                     सीताराम जी ने एक और बात कही कि सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद हिंसा से तंग आकर बौद्ध धर्म अपना लिया।मुझे तो उनके इस वक्तव्य को पढ़ कर शर्म ही आती है कि मेरे जैसा व्यक्ति जिसके पास कोई बहुत ज्ञान या अनुभव नही है फिर भी इतना तो मैं भी जानती हूँ कि सम्राट अशोक ने जो बौद्ध-धर्म अपनाया वह भी हिन्दू धर्म की ही एक शाखा या पंथ है।यह एक मात्र हिन्दू धर्म है जिसकी यह विशेषता रही है कि उसमें विचारशील और कर्मण्य लोग नई स्थिति के योग्य नए रूपों के अनुसन्धान में और नए आदर्शों के विकास में निरंतर लगे रहे हैं।इस विकास की प्रथम प्रेरणा उस समय आई जब वैदिक आर्य वहां के आदिम निवासियों के संपर्क में आए।इसी तरह की प्रेरणा के कारण जैन और बौद्ध धर्म जैसे सुधारवादी आंदोलनों का जन्म हुआ।तो ऐसे में यह तो हिन्दू धर्म की विशेषता कही जाएगी कि जब भी उसमे रूढ़ियों,आडम्बरों,छुआछूत या कर्मकांडों की प्रधानता हुई तभी ऐसा कोई न कोई सुधारवादी आन्दोलन चला और लोगों ने उसकी बातों को खुले दिल से स्वीकार भी किय।मुझे तो नही लगता कि संसार का कोई भी अन्य धर्म ऐसा है जो इस तरह उदार भाव रखता है लेकिन विडंबना यह कि बौद्ध धर्म को भी लोग किसी एक जाति या वर्ग विशेष से जोड़कर रख देते हैं और लगता है बुद्ध को मानने वाले कोई हिन्दू धर्म से एकदम अलग हैं।इस तरह की बातें आज कोई पहली बार नही सामने आईं हैं बल्कि कई बार ऐसा ही बहुत कुछ बोला गया है।जब भी मैं ऐसा सुनती हूँ दिल में चुभन होती है कि स्वधर्म का अपमान तो एक पाप है और इन जैसे लोग जिनके नाम से ही सीता राम जुड़ा है अपने धर्म का निजी स्वार्थों के पीछे इतना अपमान कर रहे हैं।हिन्दू इतना क्षुद्र नही है कि किसी भी धर्म का अपमान करे।हिन्दू धर्म जिसमे ऐसा नही है कि कायर बैठे हैं बल्कि शक्तिशाली लोगों की कोई कमी नही है लेकिन उन्होंने कभी भी शक्ति का नाजायज़ प्रयोग नही किया, कुछ अपवादों को छोड़कर।क्योंकि हमारा धर्म हमें यही सिखाता है कि सभी धर्मों का समान रूप से आदर करना चाहिए और शक्ति को संस्कारित रखना चाहिए वर्ना उसका कोई मोल नही होगा।

                   आज संसार जातिगत,सांस्कृतिक और धार्मिक भ्रमों का घर हो रहा है।ऐसे में कोई संदेह नही है कि धार्मिक संघर्ष सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाने में हिन्दू-धर्म मार्ग हमें कुछ न कुछ अवश्य ही सिखा सकेगा।परन्तु इसके साथ ही विडंबना यह भी है कि इसी हिन्दू धर्म पर असहिष्णु होने या साम्प्रदायिक होने के इलज़ाम लगते हैं और यह इलज़ाम भी उन्ही लोगों द्वारा अधिक लगाए जाते हैं जो स्वयं को इस धर्म का अनुयाई कहते हैं।टीस तो दिल में तब उठती है जब श्री राम का नाम ले लेने भर से साम्प्रदायिक होने का ठप्पा लग जाता है या अयोध्या जिसे हम सदियों से भगवान राम की जन्मस्थली मानते आए हैं उसे अपना कहने भर से हम असहिष्णु हो जाते हैं।किसी को बताने की आवश्यकता नही है कि जब मुगल शासकों ने भारत पर अपना आधिपत्य जमाया तो न जाने कितने हमारे मंदिर और धार्मिक स्थलों को चोट पहुंचाई और उन्हें नष्ट ही कर दिया।इस बात के तो प्रमाण भी हैं क्योंकि यह सब तो इतिहास में भी है।ठीक है इन घटनाओं को जिन आक्रमणकारियों ने अंजाम दिया था वे विदेशी थे और तब हम उनके गुलाम भी थे लेकिन अब जब हम इतने वर्षों से एक स्वतंत्र देश के नागरिक हैं और उन दुष्ट विदेशियों की गलती को सुधारना चाहते हैं तो हर धर्म के व्यक्ति को स्वयं आगे आकर आस्था का सम्मान करना चाहिए।क्योंकि किसी भी भगवान को मानने के लिए सबूतों की नही विश्वास और आस्था की ज़रूरत होती है।धर्म विश्वास पर आधारित होता है।लेकिन आगे आकर साथ देना तो दूर लोगों को राम जी के जन्म पर भी प्रश्नचिन्ह लगाने से गुरेज नही होता।जिस जगह से करोड़ों लोगों की आस्था जुड़ी हुई हो उसे कोई कैसे छोड़ सकता है?बहुत सारे लोगों को मैंने देखा है कि अयोध्या जाते हैं और जिस तरह से भगवान श्री राम को वहां रखा गया है,उसे देखकर आँखों में आंसू लिए आते हैं।यहाँ मैं सिर्फ एक प्रसंग का उल्लेख करना चाहूंगी।संत कवि कबीरदास किसी परिचय के मोहताज नही हैं।वे जाति-धर्म को कुछ नही मानते थे लेकिन फिर भी उनके हिन्दू अनुयाई उन्हें हिन्दू कहते थे और मुस्लिम अनुयाई उन्हें मुस्लिम मानते थे।यह ही उनके धर्म की विशालता थी।वे रामानंद को अपना गुरु बनाना चाहते थे।एक बार वे काशी घाट की सीढ़ियों पर लेटे हुए थे और प्रातः स्नान करने के लिए रामानंद वहां आए।धोखे से उनके पैर सीढ़ियों पर लेटे कबीरदास जी के ऊपर पड़ गए और अकस्मात् ही उनके मुंह से निकल गया ‘ बेटा राम राम कह ’ कबीर ने इसे ही अपना गुरु-मन्त्र मान लिया और स्वयं को रामानंद का शिष्य कहने लगे।यह प्रकरण मैंने इसलिए यहाँ दिया है कि हम उस देश के नागरिक हैं जहाँ की ऐसी परम्पराएं रही हैं और कबीर,नानक,रहीम,मलिक मुहम्मद जायसी और रैदास जैसे न जाने कितने व्यक्तित्व रहे हैं जिन्हें हिन्दू और मुसलमानों ने समान रूप से माना है।तो फिर उस राम से इतनी परेशानी क्यों?मुझे लगता है श्री राम से तो किसी को कोई परेशानी होने का सवाल ही नही है यह सारी परेशानी राजनीति के ठेकेदारों द्वारा खड़ी की गईं हैं जिन्हें अपनी राजनीति चलानी है परन्तु विडंबना यह है कि आम जनता इनके झांसों में आ जाती है।जनता को अब खुद ही निर्णय लेना होगा क्योंकि सवाल अब सोच बदलने का है।

                             हिन्दू-धर्म को केवल विचारों का प्रवाह और संघर्ष कह कर नही टाला जा सकता क्योंकि इसका प्रत्येक रूप और उसके विकास की प्रत्येक सीढ़ी का सम्बन्ध एक समान आधार वेदांत के साथ जुड़ा हुआ है।यद्यपि हिन्दू धार्मिक विचारों को बहुत क्रांतियों के बीच से गुजरना पड़ा है और उसने बड़ी-बड़ी सफलताएँ पाई हैं तथापि चार या पांच हज़ार वर्षों से उसके मूल सिद्धांत हमेशा एक रहे हैं।उसकी मूल विचारधारा वेदांत में निहित है।आवश्यकता है व्यापक सोच की।जितना हम उलझेंगे उतना ही फंसते जाएँगे लेकिन इस गलत मकड़जाल से निकलना होगा।रास्ते चाहे कई हों मंजिल एक ही होगी।

इस विषय पर मैं लिखने बैठूं तो मुझे लगता है कि 100 पेज भी कम पड़ जाएँगे लेकिन मुझे अपने पाठकों का भी ध्यान रखना होगा कि कहीं वे एक ही विषय को पढ़ते-पढ़ते ऊब न जाएँ।वैसे सीताराम येचुरी जैसों की बोलती बंद कराना तो मुझ जैसों को भी आता है।

         

2 thoughts on “येचुरी जैसों के चुभते बोल

  1. राष्ट्र निर्माण के लिऐ इस प्रकार के विचार अत्यन्त घातक । सार्थक लेख ,बधाई ।।

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