तेरहवीं सदी में कहानी कहने की एक कला के रूप में जिस विधा का सबसे अधिक प्रसार हुआ, वह थी ‘दास्तानगोई’।वैसे तो यह कला फारस से आई परन्तु भारत में भी इस कला के मुरीद सदियों से रहे हैं और हमारे देश में मुग़ल बादशाहों के शासनकाल में दास्तानगोई की परम्परा का आरम्भ हुआ।आज के समय के सबसे मशहूर दास्तानगो महमूद फ़ारूकी के शिष्य अंकित चड्ढा को पूरी दुनिया में मान-सम्मान मिला।अंकित चड्ढा इतने संवेदनशील कलाकार हैं कि इतनी कम उम्र में उन्होंने ऐसे-ऐसे चुभते हुए ज्वलंत मुद्दों को अपनी दास्तानों में उठाया जो देश और समाज के लिए बहुत ही उपयोगी हैं।कह सकते हैं कि इतनी पुरानी कला में नवीन प्राण फूंकने का कार्य यदि किसी ने किया है तो सिर्फ अंकित ने।नई युवा पीढ़ी को इस कला से जोड़ने में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।प्राचीन और नवीन पीढ़ी के वे ‘युवा सेतु’ हैं।
आज जब लिखने बैठी और यह सोचा कि अंकित की पुण्यतिथि है और आज के दिन 9 मई 2018 को वह हम सबको छोड़ के कहीं गुम हो गया था तो कीबोर्ड पर फटाफट चलने वाली मेरी उँगलियाँ ही थम गईं क्योंकि अन्दर से एक आवाज़ आई कि वह तो यही है हम सबके साथ।फिर मैं यह मान कर उसे श्रद्धांजलि कैसे दूँ कि वह अब इस दुनिया में नही है?क्योंकि उसकी पुस्तक पढ़ो या दास्तानें सुनो तो सजीव होकर उसका चेहरा आँखों के सामने घूमने लगता है।इसलिए मैं इस पोस्ट की शुरुआत में ही एक बात स्पष्ट कर देना चाहूंगी कि मैंने कहीं भी यह मान कर लिखा ही नही कि अंकित अब नही है और अपने पाठकों को भी मैं यही कहना चाहूंगी कि आप यह ही मान कर मेरा लेख पढ़ें कि अंकित हमारे साथ बैठ कर हमारी बातें सुन रहा है।मैंने अपनी माँ से जब कहा कि मेरे से यह मान कर लिखा नही जा रहा कि अंकित अब नही है तो उन्होंने ही मुझे कहा कि “तुमने कैसे माना भी कि वह नही है। अरे बेटा सच्चा कलाकार जिसकी आत्मा शुद्ध होती है वह न तो बूढ़ा होता है और न ही मरता है।वह अजर-अमर होता है।” किसी भी सच्चे कलाकार को मरा हुआ मानना, मतलब उस कला को ही दफ़न कर देना है जो उसने इतने वर्षों तक हमारे साथ जी है।मुझे लगता है इन्सान मरता है–न तो कला मरती है न कलाकार।अपनी इस बात की पुष्टि मैं अंकित की माँ श्रीमती प्रेमलता चड्ढा जी के शब्दों से ही करुँगी जो उन्होंने स्वयं मुझसे कहे हैं।उनके ही शब्द, “अंकित के जाने के बाद उसके किसी जानने वाले ने लिखा है कि जो इन्सान अंकित को एक-दो बार मिला था,वह ऐसा सोचता था कि अरे मैं तो अंकित को बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ और जो उसको बहुत अच्छी तरह से जानते थे,बहुत सालों से जानते थे उनको ऐसा लगता था कि अभी तो हमने अंकित को जानना शुरू किया है।उसी के लिए किसी ने लिखा कि जो काम लोग तीन सौ साल में भी नही कर सकते वह काम इसने तीस साल में करके दिखाया है।”
एक और बात मैं लिखना चाहूंगी कि अंकित की माँ से मैंने कहा कि मुझे आप अंकित की कुछ ऐसी छोटी-छोटी,मीठी-मीठी सी बातें बताओ जिन्हें मैं लिखूं और वह ऐसी हों जो अभी तक किसी तक न पहुँचीं हों यानि माँ के दिल की धड़कन ही हैं यह बातें।जब वे अंकित की बातें करती हैं तो ऐसा लगता है कि शरीर तो उनका है लेकिन इसमें जी वही महान कलाकार रहा है।जो इन्सान,जो कलाकार इतने दिलों में धड़क रहा है उसे इस दुनिया से गया जानना मतलब सबसे बड़ी गलती या माफ़ करें लोग मुझे मेरे शब्दों पर कि यह कहना या मानना सबसे बड़ी मूर्खता होगी।जब मैंने अंकित की माँ से कुछ बातें जानीं तो बताने के बाद वे मुझसे बोलीं कि “बेटा जो भी मैंने बताया,उसका सार निकाल कर खुद ही सजा लेना।” उनकी यह बात सुन कर मेरा दिल भर आया।मैंने कहा “वह इतना बड़ा आर्टिस्ट और आप इतनी महान माँ हो कि मुझे लिखते हुए कुछ सजाने की ज़रूरत ही नही होगी।” वास्तव में जो भी मैं लिख रही हूँ वह दिल से निकला एक-एक शब्द है मुझे कहीं भी शब्दों को संजोने की ज़रूरत ही नही हुई।कुछ व्यक्तित्व सजे-संवरे ही पैदा होते हैं।
अंकित की माँ ने एक और बात कही। उन्ही के शब्द,“ अंकित के जाने के बाद कई लोग मुझसे मिलने के लिए आए और कईयों ने बताया कि उसमें ऐसी शक्ति थी कि हम अगर बीमार भी होते थे तो उससे बात करने के बाद हम अपने आपको काफी ठीक महसूस करते थे और एक उसी का जूनियर है उसने मुझे दो-तीन महीने पहले बताया कि उसकी मासी की डायलिसिस होती है।अपने समय में वह बहुत बड़ी लेखिका थीं।अपने देश में उनका काफी नाम था लेकिन बीमार होने के बाद वे कलम को हाथ नही लगातीं थीं परन्तु अंकित की किताब पढ़ने के बाद उन्होंने फिर से अपने हाथ में कलम पकड़ ली।कहने लगा कि इस किताब या अंकित की बातों से वे बहुत प्रभावित हुईं हैं और घर के सभी लोग बहुत खुश हैं कि उन्होंने फिर से कलम पकड़ ली।इसी तरह अंकित की एक दोस्त आई थी मेरे पास 11 मई को।उसने मुझे बताया कि मैं मार्च तक व्हील चेयर पर थी और अंकित ने मुझे ऐसी कविताएँ सुनाईं फ़ोन पर कि मैं ऐसे अच्छी हुई हूँ कि आज चलकर आपके घर आई हूँ।” यह कुछ ऐसी बातें हैं जो महसूस करने की हैं।जिन लोगों के उदाहरण चाहे वे अंकित के जूनियर की मासी हैं या उसकी दोस्त,उनलोगों को न तो मैं मिली हूँ,न जानती हूँ फिर भी मैं पूछना चाहूंगी कि इतने जीवंत,इतने संत कलाकार को क्या वे कभी सोच पाती हैं कि वह अब उनके साथ नही है।मुझे पता है सबका जवाब यही होगा कि वह तो हर पल उनके साथ ही है।मुझे लग रहा है कि आज के दिन कोई भी उसे याद करके दुखी नही होना चाहेगा।आइये आज हम यह मान लें कि जैसे उसकी आँखों में इतनी गहराई है कि लगता है एक झील ही इन आँखों में बसती है और झील-सी गहरी आँखों वाले को झील ही पसंद आई।झील को ही उसने अपना आशियाना बना लिया।उसी तरह वह हमारे दिलों में सदा बसता रहेगा।हर समय हँसते मुस्कुराते रहने वाले कलाकार को जिसने कभी जीवन में हार नही मानी और सदा ही जीता रहा अपनी दास्तानों में न जाने कितने चरित्र, जो अमर हो गये।उसी तरह अंकित भी अमर है जिसे कोई भी गया हुआ नही मान सकेगा।
संत कवि कबीरदास से मैं बहुत ज़्यादा प्रभावित रही हूँ।उसका कारण यह है कि वे इतनी बड़ी-बड़ी बातों पर या कह लें कि सामाजिक कुरीतियों और आडम्बरों पर इतने कम और सरल शब्दों से प्रहार करते थे कि वे शब्द सुनने वाले को झकझोर देते थे।वास्तव में वे इस युग की विभूति ही थे और युग की विभूतियाँ युग-प्रसूत होती हैं।कबीर जैसा तो खैर न आज तक हुआ है और न ही मुझे लगता है कि कोई होगा भी लेकिन कुछ गिने-चुने लोग जिन्होंने कबीर के दर्शन को, उनकी शिक्षा को अपने अन्दर आत्मसात किया है,उनमे अंकित का नाम भी बड़े आदर के साथ लिया जा सकता है।यह बात कोई मैं ऐसे ही नही लिख रही बल्कि जब मैंने भी उसकी किताब ‘तो हाज़िरीन हुआ यूँ…दास्तान-ए-अंकित चड्ढा’ को गहराई से पढ़ा तो समझा कि कैसे बड़ी-बड़ी बातों को छोटे-छोटे शब्द या पंक्तियों से उसने ऐसा सजाया है और कहीं-कहीं इन आडम्बरों या बुराइयों पर ऐसा कुठाराघात किया है कि इन्सान तिलमिलाए बिना रह ही नही सकता लेकिन वह भी इतने सरल और सादे तरीके से कि आप सुन कर कहेंगे ‘अरे इतनी बड़ी बात और वह भी बस ऐसे ’?लेकिन यही एक सच्चे कलाकार की विशेषता होती है।अपने युग के साथ,उस युग की बुराइयों के साथ,उस युग के एक-एक व्यक्ति के साथ connect होना और इस प्रयास में अंकित पूरी तरह सफल रहा है।
मैं उसकी किताब ‘तो हाज़िरीन हुआ यूँ…’ में से कुछ दास्तानों के उदाहरण यहाँ देना चाहूंगी,जिन्हें आप भी महसूस करेंगे कि उनमें कितनी गहराई है,सोच है और उसके शब्दों से ऐसा भाव टपकता है कि जैसे कोई संत बैठ कर अपने भक्तों को थोड़ा सा डांटकर फिर कभी प्यार से ज्ञान दे रहा हो।अंकित की माँ ने ही बताया कि उसके अन्दर दिखावा बिलकुल नही है और उसे बहुत ही सादगी संपन्न युवा व्यक्ति कहा जा सकता है।उन्होंने बताया कि जब भी वह कार्यकम देने के लिए जाने लगता तो एक माँ होने के नाते वे उसे कहतीं कि कपड़े ठीक से पहन या बाल ठीक से बना तो अंकित हमेशा यह ही कहता कि माँ वहां मुझे लोग सुनने आते हैं कोई देखने नही आते।तो ऐसा व्यक्तित्व था उसका।सब कुछ को झाड़-फटकार कर चल देने वाला एक संत व्यक्तित्व।
उसकी लिखी और सुनाई गई दास्तान ‘प्रार्थना’ में उसने महात्मा गाँधी के चरित्र का जैसा चित्र खींचा है,वह एक नवीनता का एहसास कराता है।गाँधी जी एक ऐसा व्यक्तित्व थे जिन पर खूब लिखा गया और खूब सुना गया लेकिन उन्ही बातों को ऐसे ढंग से पेश करना कि सुनने वाला उसमें नवीनता का अनुभव करे,यही सच्ची कला है और दास्तानगोई में तो इसका बहुत ही महत्व है।अंकित की दास्तानों को पढ़कर मुझे एक शेर किसी का कहा हुआ याद आ रहा है-
कौन सी बात कब और कहाँ कही जाती है,
यह सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है।
और इस सलीके से अंकित भली प्रकार परिचित था।
महात्मा गाँधी के विषय में उसने अपनी ‘प्रार्थना’ दास्तान में जो कुछ कहा है उसमें ऐसा नही है कि हम कुछ भी नही जानते क्योंकि बहुत सी बातें तो बापू ने खुद अपने संस्मरणों में ही कही हैं,लेकिन उन बातों को अंकित ने ऐसे सुन्दर और साफ़ शब्दों से सजाकर पेश किया है कि ज्ञान भी मिलता है और मनोरंजन भी होता है।हालाँकि अपनी पुस्तक में उसने गांधीजी के चरित्र को काफी विस्तार दिया है,जिसे मैं यहाँ थोड़े से शब्दों में नही बांध सकती।उसे तो उसी की ज़ुबानी हम पुस्तक में पढ़ कर मज़ा ले सकते हैं लेकिन कुछ थोड़ी सी झलक –
सोलह बरस की उम्र में जब गाँधी जी के पिता नासूर की वजह से बिस्तर पर थे,तब उनके जिम्मे ही पिता की सेवा का काम था परन्तु उनका ध्यान अपनी पत्नी की तरफ रहता था।तभी उनके चाचाजी राजकोट से आ गये और उन्होंने अपने भाई यानि गांधीजी के पिता की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और गांधीजी को सोने के लिए कमरे में भेज दिया।पांच-सात मिनट बीतने पर ही नौकर ने आकर बताया कि उनके पिता अब नही रहे।गांधीजी ने स्वीकार किया कि बात उनके समझ में आई कि अगर वासना उन पर सवार न होती तो उनके पिताजी की आखिरी घड़ी में उनके नसीब में उनसे जुदाई न होती।गांधीजी द्वारा दिया गया इतना बड़ा ज्ञान शायद हम कभी महसूस न कर पाते लेकिन अंकित ने इतनी सहजता से दास्तान में इस बात को पेश किया कि हम सोचने पर मजबूर हुए कि हाँ मनुष्य गलतियों का पुतला है।जब गांधीजी जैसा इतना महान व्यक्तित्व ऐसी गलती कर सकता है और ऐसी सोच रख सकता है तो हम तो आम लोग हैं लेकिन ज़रूरत इस बात की है कि हम भी गांधीजी से शिक्षा लेकर अपनी गलती स्वीकार करें और आगे से ऐसी गलतियों से दूर रहें।ऐसे ही और भी न जाने कितने सन्देश हैं जो गांधीजी के जीवन से लिए गये हैं लेकिन अंकित ने उसे अपनी शैली में इतना प्रभावपूर्ण और रुचिकर कर दिया है कि पढ़ते-पढ़ते मन इन्ही बातों में डूब जाता है।
इसी पुस्तक में एक दास्तान है ‘दुर्गा-सप्तशती।’दुर्गा-सप्तशती जो मूलतः संस्कृत में कही गयी लेकिन इस कथा का बयान उर्दू शायरी में अंकित ने कैसे किया है?चंद पंक्तियाँ –
कि होता रक्तबीज इक आन में ज़ेर
मगर बरपा किया उस ने वो अंधेर
बला टाली तदबीर ओ अमल से
किया सौदा न हस्ती का अजल से
बदन से खून का फव्वारा छूटा
किसी दरया का गोया बंद टूटा……………
इतने सुन्दर तरीके से उसने दुर्गा सप्तशती को अपनी दास्तान में पेश किया है कि सुनने वाले मन्त्र मुग्ध हो जाते हैं और उसकी यह दास्तानें राष्ट्रीय एकता और अखंडता का प्रतीक भी हैं।हम सब समझ सकते हैं कि आज के समय में इन भावों और विचारों की कितनी आवश्यकता है।
अपनी दास्तान ‘गौरक्षक’में अंकित ने इतने रुचिपूर्ण तरीके से राजा दिलीप जो श्री राम के पूर्वज थे और बड़े प्रतापी थे,उनकी दास्तान सुनाई है।राजा दिलीप ने किस प्रकार नंदनी गाय की सेवा की और उसकी रक्षा करने का क्या तरीका अपनाया इसे मैं यहाँ पूरा नही लिख सकती।अंकित के शब्द कितने मज़ेदार और प्रासंगिक हैं,यह आप उसकी इस दास्तान को उसी के शब्दों में पढ़कर जान सकते हैं।आज जब गौ रक्षा के नाम पर क्या कुछ नही हो रहा ऐसे में यह प्यारी सी दास्तान अपना सन्देश धीरे से दे जाती है और इस दास्तान में अंकित के शब्द कितने व्यंग्य भरे हैं इसकी एक बानगी देखिये –
गाय धरती है जिसको Mining Mafia लूट रहा है
गाय दलित और मुस्लिम जिनको High Caste हिन्दू कूट रहा है
गाय हिंदुस्तान है जो इन हाथों से छूट रहा है
गाय प्रेम है जिसमें अब मिल झूठ रहा है।
SHORT+SWEET THEATRE ग्रुप है,उसने एक प्रतियोगिता रखी थी,जिसमें अंकित ने ‘किस्सा चींटी का’ यह दास्तान पेश की थी।बहुत सारे लोगों ने इसमें भाग लिया था लेकिन अंकित ने इसमें अवार्ड जीता था।इसमें एक छोटी सी चींटी का चित्रण है जो हर सुबह अपने घर से दफ्तर के लिए निकलती है।चींटी की कम्पनी का CEO जो कि एक शेर था,उसके ऊपर एक सुपरवाइजर रखना चाहता है जो बता सके कि चींटी कैसे अपनी परफॉरमेंस को बेहतर कर सकती है,जिससे कि उसके Morale को boost मिले।चींटी का सुपरवाइजर मकड़ा बना दिया जाता है और मकड़े का सेक्रेटरी दीमक बन जाता है।दीमक को एक कंप्यूटर और प्रिंटर की ज़रूरत पड़ी जिनकी देखभाल करने के लिए मक्खी को रखा गया।आज की व्यवस्था पर कितना तीखा व्यंग्य,कितनी चुभती चोट और वह भी इन छोटे-छोटे जानवरों के माध्यम से।कितनी सामयिक और तीक्ष्ण दृष्टि है इस कलाकार की।चींटी के मुंह से अंकित ने कहलवाया-
मेरे कुछ पल मुझको दे दो,बाक़ी सारे दिन,
ओ लोगों तुम जैसा जैसा कहते हो,सब वैसा वैसा ही होगा ।
आज पता नही क्या हो गया है? लग रहा है कि बस मैं लिखती ही जाऊं।इतना कुछ है उसके बारे में अभी जानने को और जो मैं जानती हूँ उसका एक हिस्सा भी अभी लग रहा है मैं नही लिख पायी हूँ।ऐसा व्यक्तित्व है हमारे अंकित का।उसकी एक-एक दास्तान से ही सैकड़ों दास्तानें निकल सकती हैं।अंत में यही लिखना चाहूंगी कि –
उसको इस तरह से भी याद न कर कि आँखों से आंसू टपकें,
बल्कि उसकी कही एक-एक बात पर आज से हमारी नज़रें अटकें।
अतिसुन्दर