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स्त्री त्रासदी का यथार्थ रूप भाग 2

मुझे खेद है कि ‘स्त्री त्रासदी का यथार्थ रूप भाग 2’ प्रकाशित करने मे मुझे अधिक समय लग गया।

ममता जी के शब्द जो मैंने इस लेख के प्रथम भाग में दिए हैं, कितने सटीक हैं कि प्रेम और विवाह दो अलग संसार हैं।प्रेम में भावना और विवाह में व्यवहार की ज़रूरत होती है।यही व्यवहार शायद नही आ पाता और रिश्ते टूटने लगते हैं।ममता जी ने जो यह लिखा कि औरतों को सहमति प्रधान जीवन जीना होता है और अपने घर की कारा में वे क़ैद रहती हैं।अब इस बात पर बहुत से बुद्धिजीवी वर्ग के लोग शायद यह सोचें कि ऐसा तो नहीं है।आज औरतें अपनी सहमति से जी रही हैं और घर की कारा में तो वे बिलकुल भी नहीं हैं।जहाँ चाहे जा सकती हैं,जो चाहे कर सकती हैं तो इसके जवाब में मैं बस एक बात ही पूछना चाहूंगी कि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो क्या वास्तव में औरतों को अपना जीवन उस तरह बिताने की आज़ादी है जैसा कि किसी भी इन्सान को होनी चाहिए? बहुत से अभिजात्य वर्ग के परिवारों में मैं देखती हूँ कि औरतों के हाथ में मोटी रकम आ जाती है और सारा दिन किटी पार्टी और ब्यूटी पार्लर में अपना समय वे बिताती हैं और पैसे खर्च कर शॉपिंग करना भी उनकी दिनचर्या का एक अंग होता है।अब इस तरह की औरतों की न तो अपनी कोई सोच होती है न विचारधारा।बस सारा दिन पति की कमाई दौलत पर ऐश मारकर वे खुद को आत्मनिर्भर दिखाने की कोशिश करती हैं लेकिन यह तो कोई आत्मनिर्भरता नही है।वास्तव में मेरे ख्याल से ममता कालिया जी ने ऐसी औरतों के लिए ही ‘घर की कारा’ शब्द का प्रयोग किया होगा क्योंकि वे मानसिक रूप से तो घर की कारा में ही बंधी जान पड़ती हैं।हालाँकि आज समय ने करवट ली है और महिलाएं आज क्या कुछ नहीं कर रहीं यह मुझे बताने की ज़रूरत नही है, सभी जानते हैं और मैंने महिला दिवस(8मार्च) पर अपने लेख ‘नई करवट लेती नारी अस्मिता’ में इन्ही पहलुओं पर प्रकाश डाला है कि जो क्षेत्र महिलाओं के लिए वर्जित समझे जाते थे आज उनमें भी महिलाओं ने अपनी पूरी भागीदारी निभाई है।आज औरतें नौकरी या व्यवसाय न करके भी समाज सेवा आदि के कार्य करके स्वयं के जीवन को कुछ दिशा देने का कार्य कर रही हैं लेकिन यह चीज़ भी बहुत कम है क्योंकि ऐसे कार्यों में भी अधिकतर महिलाएं पति या घर के किसी पुरुष सदस्य पर ही निर्भर रहती हैं।

ममता जी ने जो यह लिखा कि “हर एक की दिनचर्या में अपनी-अपनी तरह की समरसता रहती है और हरेक के चेहरे पर अपनी-अपनी तरह की ऊब।……कुछ औरतें इस ऊब पर श्रृंगार का मुलम्मा चढ़ा लेती हैं पर उनके श्रृंगार में भी एकरसता होती है।” वास्तव में यह सत्य है।एक बार पढ़ने में शायद यह बात कुछ अजीब सी लगे लेकिन मैंने भी जब मनन किया और ऐसी औरतों के बारे में सोचा तो एक बात तो स्पष्ट होती है कि आज के पढ़े-लिखे समाज में यह सब खूब हो रहा है।अब घर में घूँघट निकाल कर सारा दिन काम करने के दिन तो गये।औरतें मन का पहनती हैं,मन से जहाँ चाहे घूमती हैं और हर चीज़ में स्वतंत्र होने का दम भरती हैं और ऐसे क्रिया-कलाप वे करके भी दिखाती हैं कि उनकी स्वतंत्रता सबको दिखे।परन्तु क्या वास्तव में यह सब करने वाली औरतों की सोच स्वतंत्र हो पाती है?मुझे तो इन सब बातों की जड़ में औरतों का ही दोष अधिक नज़र आता है क्योंकि सारा दिन आजकल मोबाइल में सोशल मीडिया में वे डूबी रहती हैं और उसमे भी कुछ रचनात्मकता नही होती सिवाय एक से सन्देश एक दूसरे को भेजने के या किसी की फोटो पर कमेंट करने के।इसी तरह मैं देखती हूँ कि हमारे समाज में महिलाओं का एक बहुत बड़ा वर्ग है जो अपने समय का एक बहुत बड़ा भाग किटी पार्टी और ऐसे आयोजनों में ही व्यर्थ करता है।मुझे समझ नहीं आता कि इन पार्टियों में एक जैसी ही बातें जिनमे एक दूसरे के मेकअप और कपड़ों से लेकर और भी न जाने क्या कुछ नही डिस्कस किया जाता।अब ऐसी बातों में कोई रचनात्मकता तो नही ही होती उल्टा दिमाग अलग कुंठित होते हैं।कोई हमेशा नये नये कपड़े पहन कर आती हैं तो किसी के पास कुछ कम कपड़े होते हैं,किसी के कपड़े ब्रांडेड होते हैं तो किसी के कुछ सस्ते। अब यह सारी बातें इन महिलाओं की चर्चा का मुख्य विषय होता है।ऐसी बातें इन महिलाओं की सोच को और भी कुंठित करती हैं। रही सही कसर मैंने खुद देखा है की तब पूरी हो जाती है जब अपने बच्चों की पढ़ाई और कैरियर को लेकर भी इन महिलाओं के बीच ऐसी पार्टियों में खींच-तान चलती है। अब बच्चे तो सभी अलग-अलग प्रतिभा से युक्त होते हैं,कोई ज़रूरी तो नही कि सभी बच्चे 90 या 95 प्रतिशत अंक ही लाएँ लेकिन मैंने कई किटी पार्टियों मे देखा है कि वे माएँ जिनके बच्चे कम अंक लाते हैं वे बिलकुल कुंठा ग्रस्त हो जाती हैं जबकि उनको स्वयं के अंदर भी और बच्चे के अंदर भी यह आत्मविश्वास जगाना चाहिए कि बच्चे के न॰ कम आए तो क्या?उसके अंदर कुछ और प्रतिभा है जो बाकी के बच्चों में नहीं है।मेरी बात को सही साबित करने का प्रमाण मैं यह देना चाहूंगी कि आखिर क्या कारण है कि आज आठ-दस साल के बच्चे भी आत्महत्या करते दिख रहे हैं।इसी तरह इन किटी पार्टियों में एक सी ही गेम्स होती हैं जिन्हें देख कर मैं तो हमेशा यह ही सोचती हूँ कि इन औरतों को वास्तव में ऊब नही होती एकरसता से।मैं ऐसा बिलकुल नही लिख रही कि सब औरतें ही ऐसी हैं क्योंकि आजकल ऐसी महिलाओं का भी एक बहुत बड़ा वर्ग है जो रचनात्मक कार्यों से जुड़ा हुआ है और अपनी जिंदगी को ऐसी औरतों ने एक नई दिशा दी है लेकिन एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसी महिलाओं का भी है जो इस तरह का एकरस,ऊबाऊ और दिशाहीन जीवन जी रहा है।ऐसी बहुत सी महिलाओं को मैंने भी कई बार पूछा कि वे कुछ पढ़ना या रचनात्मक करना चाहती हैं तो उनका जवाब होता है कि हमारा तो सोशल-सर्किल ही इतना है कि हमें टाइम ही नही मिलता।सारा दिन मेकअप करके और नई नई ड्रेसें पहनकर पार्टियाँ कर लेने में ही इन महिलाओं को सुकून आता है और इसे ही वे अपनी आजादी और आत्मनिर्भरता समझने की भूल करती हैं।वास्तव में इनके श्रृंगार में भी इनकी ऊब दिखती है और उसमें एकरसता होती है।मुझे पता है कि मेरी यह बातें बहुत सी महिलाओं को एकदम ठीक नहीं लगेंगी पर फिर भी मैं क्षमा मांगते हुए यही कहना चाहूंगी कि आप एक बार मनन करिए।

मेरा उपन्यास ‘पौन दर्ज़न’ जो 2017 में प्रकाशित हुआ है उसमें भी मैंने औरतों की इसी कुंठित सोच और फिर उसके परिणाम स्वरुप उनके हिस्से आए दुःख का वर्णन किया है।अपने उपन्यास के कई महिला पात्रों के चरित्र का जब मैंने चित्रण किया तो मुहे यूँ लगा कि वास्तव में आज अपनी इस दशा की ज़िम्मेदार काफी हद तक वे भी हैं क्योंकि स्वयं ही वे अपनी बेड़ियाँ तोड़ना नही चाहतीं और एकरस तथा आराम तलब जीवन जीने की वे आदी हो जाती हैं लेकिन जिन औरतों ने भी अपने जीवन को कुछ अलग दिशा दी या कह लें अपनी सोच को आत्म-निर्भर और बहुआयामी बनाने की कोशिश की वे शुरू में तो काफी कठिन दौर से गुज़रती हैं और दूसरे क्या अपने परिवार के लोगों का भी उन्हें साथ नही मिल पाता लेकिन ऐसी बहुत सी महिलाओं को मैंने देखा है कि उनके चेहरे पर एक अलग ही सुकून और शांति होती है।मेरे उपन्यास पौन दर्ज़न की कुछ पंक्तियाँ यहाँ मैं देना चाहूंगी क्योंकि मेरे जिन पाठकों ने अभी मेरा उपन्यास नही पढ़ा है उनके लिए भी मैं यहाँ इनका उल्लेख करना चाहूंगी-

“……..हर उस जगह मुझे टांग कर ऐसे ले जाते हैं जहाँ मेरी इज्ज़त,मेरे जज़्बात धूल में मिल जाते हैं लेकिन फिर भी मैं कुछ बोल नहीं पाती क्योंकि ऐसा नही है कि मेरे पास बोलने को कुछ नही है बल्कि बोलने को तो इतना कुछ है कि इनका मुंह शायद खुल ही न सके पर मैं इनकी तरह नहीं बन पाती।मुझसे किसी का इतना अपमान ,इतना तिरस्कार नहीं हो पाता।हम सब नारी अधिकारों,औरतों के

सशक्तिकरण और न जाने कितने ऐसे ही मुद्दों पर बड़ी-बड़ी बहस तो कर लेते हैं लेकिन नारी अधिकारों के नाम पर मुझ जैसी पढ़ी-लिखी,अपने पैरों पर खड़ी न जाने कितनी औरतें हैं जो घर के अन्दर तो घुटती रहती हैं लेकिन घर के बाहर अपने पतियों के साथ ऐसा कदम से कदम मिलाकर चलती हैं कि कोई भी धोखा खा जाए कि क्या पति-पत्नी का जोड़ा है और यही घुटन मेरी भी है।हमसे अच्छी और ज़्यादा सशक्त तो यह झुग्गी-झोपड़ी और घरों में झाड़ू सफाई का काम करने वाली गरीब और अनपढ़ औरतें हैं।मैंने कई बार अपने घर के सामने जो झुग्गी-झोपड़ी है उसमे औरतों को ज़ोर-ज़ोर से अपने पतियों के साथ लड़ते झगड़ते देखा है।बदले में पतियों की मार भी खूब खाती हैं लेकिन साथ ही साथ इतना चिल्लाती और इतनी गालियाँ भी अपने पतियों को देती जाती हैं कि कभी-कभी मुझे लगता है कि उनके दिल इसीलिए लड़-झगड़ कर हलके और खुश हो जाते हैं।…………..हम पढ़ी लिखी औरतें अपनी इज्ज़त ही बचाते रह जाते हैं कि कहीं दुनिया न कुछ सुन ले और हमारी इसी कमजोरी को तुम्हारे मामा जैसे कुछ मर्द अपनी ताकत समझ लेते हैं और जितना हो सकता है औरत का अपमान,तिरस्कार करने की इनकी आदत सी बन जाती है क्योंकि इन्हें पता है कि सामने वाली कुछ बोल तो सकेगी नही और उसके आंसू इन्हें दिखेंगे ही नहीं।इन सब बातों से मैं बिलकुल टूट चुकी हूँ।”

वैवाहिक जीवन की ही सिर्फ यह त्रासदी नहीं है अपितु अगर हम देखें तो आज समाज में अविवाहित रहकर भी बहुत सी महिलाएं अपना जीवन यापन कर रही हैं।यहाँ भी दोनों पहलू हैं।कहीं तो लड़कियां पूरी तरह अपने मन का करती स्वतंत्र जीवन बिताती हैं लेकिन मैंने देखा है कि कहीं-कहीं पर जहां लड़कियां बहुत ज़्यादा अपने परिवार,माता-पिता,भाई-बहन का ही सोचती रह जाती हैं और अंजाने में ही सही उनके जीवन से बहुत सी चीज़ें छिन जाती हैं जिनका उनको तब आभास होता है जब समय गुज़र चुका होता है।ऐसे में बहुत से परिवारों में यह भी देखने को मिलता है कि घर वाले ही ऐसा कह देते हैं कि तुमने खुद ही अपना जीवन ऐसा कर लिया या तुम्हारी किस्मत मे ही ऐसा लिखा होगा अब हम क्या कर सकते हैं?ऐसे में घर वालों को शायद उसके वह त्याग नहीं दिखते होंगे जिनपर उस घर की नींव टिकी होती है या बहुत सी खुशियाँ शायद उस घर में ऐसी लड़कियों के अनकहे त्याग की वजह से ही आई हुई होती हैं।शायद उनके त्याग या कहें कि उनके जीवन के स्वर्णिम काल जो उन्होने सिर्फ घर परिवार का सोच-सोच कर ही बिता दिया,उन्हें ही समझ लिया जाए तो उनके दुख या जीवन में बहुत कुछ खो देने का एहसास कम हो जाए।

मेरा आज का यह लेख एक ऐसे विषय पर है जिसमें सबकी अपनी-अपनी सोच या विचारधारा हो सकती है और मेरे विचार बहुत से लोगों को गलत या दकियानूसी भी लग सकते हैं लेकिन फिर भी मैं एक ही निवेदन करना चाहूंगी कि आप भी अपनी सोच को थोड़ा व्यावहारिक करके मेरा लेख पढ़ें।जो कुछ देखने में अच्छा लगता है ,सुनना अच्छा लगता है या समाज के थोड़े से ही हिस्से में होता है मात्र उसको ही न आँककर वरन व्यापक स्तर पर और समाज के काफी हिस्से में जो हो रहा है या सरल शब्दों में कहें तो आमतौर पर जो हर घर की कहानी है लेकिन दिखती नहीं या दिखाने की कोशिश ही नहीं की जाती, उसे भी देखें और समझें। इक्कीसवीं सदी की आम नारी वह नहीं है जो आज समाज में दिखाने की कोशिश की जा रही है बल्कि कुछ खास ही औरतें हैं जो इक्कीसवीं सदी का प्रतिनिधित्व करती हुई दिखती हैं और इन कुछ खास को ही आम बनाने का काम हमें और आपको मिलकर करना होगा।

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