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किस्सा बगीचे का

ज़रा-सी आहट पर चंद्रशेखर जी की नींद टूट गई।कुछ समय तो उन्होंने शून्य में रहकर दूसरी आवाज़ आने की प्रतीक्षा की।फिर अपने मन को समझाने की कोशिश की कि हो सकता है हवा चल रही हो और पत्तियों की सरसराहट हो रही हो लेकिन मन भला कभी समझाने से समझा है,अचानक उन्हें लगा कि बगीचे में कोई चोर है जो उन के वृक्षों के फलों को तोड़ रहा है।समय देखा तो चार बज रहे थे।उन्होंने स्वयं को समझाना चाहा कि इतनी सुबह कौन चोरी करने आएगा?पर हाय रे मानव मन,चैन लेने दे तब न,फिर से पत्तियों की सरसराहट से वे उठ कर बैठ गये और सोचने लगे, “चोरी करने के लिए अगर कोई आएगा तो यह समय तो सबसे अच्छा है क्योंकि इस समय पकड़े जाने का भय सबसे कम है।इतनी सी बात भी मुझ बेवकूफ को समझ नही आई।” स्वयं को धिक्कारते हुए वे उठे और दरवाजा खोल ही रहे थे कि उन्हें विचार आया कि यदि सच में कोई बाहर हुआ तो वह तो उन पर वहीँ हमला कर देगा।क्या पता तीन-चार लोग हों तो वे बेचारे अकेले वृद्ध व्यक्ति उनसे क्या मुकाबला करेंगे?यह विचार आते ही वे थोड़ा सहम गये और अपने बेटे उदय को जोकि बगल के कमरे में सो रहा था,आवाज़ लगाने लगे। “उदय ओ बेटा उदय….” जवाब न मिलने पर उन्होंने ज़ोर-ज़ोर दरवाज़ा खटखटाया, “क्या है पापा?” उदय ने नींद में ही जवाब दिया।

चंद्रशेखर जी गुस्से में बोले, “बाहर चोर घुस आए हैं और तू आराम की नींद सो रहा है।”

“पापा आप की तो उम्र हो गई है,नींद कम आती है,इसीलिए रात भर बगीचे से कोई फल-सब्जी न चुरा ले यही सोच आपको परेशान करती रहती है।चुपचाप सो जाइए और मुझे भी सोने दीजिये नहीं तो सुबह ऑफिस जाने में मुझे देर होगी।” उदय ने जवाब दिया।

चंद्रशेखरजी क्रोधित होते हुए बोले, “शर्म नहीं आती यह है आजकल की औलाद।ज़बान तो ऐसे चलती है कि पूछो न।बाप को बहला रहा है कि आप तो बूढ़े हैं नींद नहीं आती।अरे मेरा क्या है आज हूँ कल नहीं पर जब तक मेरी साँसें चल रहीं हैं मैं किसी को बगीचे से फल-सब्जी नहीं चुराने दूंगा।” इसी जोश में उन्होंने दरवाज़ा खोला और बाहर बगीचे में आ गये।पूरा बगीचा चांद की रौशनी से जगमग कर रहा था।आदमी तो क्या वहां कोई परिंदा भी नज़र नहीं आ रहा था।उन्होंने मन ही मन बुदबुदाया कि उदय ठीक ही कह रहा था कि किस के पास इतना समय है कि उन के बगीचे में चोरी करने के लिए अपनी नींद ख़राब करे।फिर से एकबार उन्होंने सारे बगीचे पर नज़र डाली और नज़रों से ही गिनती करने की कोशिश की कि सब फल-सब्जियां अपनी जगह पर हैं तो।

लगभग पांच वर्ष पूर्व ही चंद्रशेखरजी सेवानिवृत्त हुए।उनकी पत्नी का निधन तीन वर्ष पूर्व हो गया था।एक बेटी थी जिसकी शादी वे कर ही चुके थे और अब बेटे-बहू के साथ रहते थे।उन्होंने सोचा तो यही था कि अब सन्यास आश्रम में प्रवेश कर जाएँ और वे घर पर ही सन्यासियों का-सा जीवन बिताने का स्वप्न देखने लगे।प्रातः चार बजे ही उठ जाते और स्नान करके पूजा-पाठ में व्यस्त हो जाते।बाद में थोड़ा घर के पास ही पार्क में टहल आते।बेटे-बहू को भी कभी उनकी दिनचर्या से असुविधा नहीं हुई परन्तु पूजा-पाठ भी कोई कितनी करेगा और कब तक करेगा?चंद्रशेखरजी संसारी व्यक्ति थे,भला कब तक विरक्त रहते?उनके घर के आगे काफी भूमि खाली थी जिसमें उनकी पत्नी कभी-कभार थोड़ा बहुत कुछ बो देती थी जैसे कि पूजा के लिए फूल आदि या धनिया वगैरह लेकिन अस्वस्थ रहने और कामों की व्यस्तता के कारण वे बेचारी कभी बागवानी का शौक तो पूरा कर नहीं सकी और चंद्रशेखरजी भी उन दिनों ऑफिस के काम और बच्चों के करियर और शादी-ब्याह के चक्कर में कभी भी कुछ कर नहीं सके इसलिए अब उन्होंने खाली पड़ी ज़मीन का सदुपयोग करने की सोची।घर के सामने रंग-बिरंगे फूल और साथ ही अमरुद,पपीते,नींबू आदि के पेड़ और छोटा सा किचन गार्डन।उदय और उसकी पत्नी भी खुश हो गये।

परन्तु जैसे-जैसे बगीचा फलने-फूलने लगा वैसे-वैसे समस्याएँ भी बढ़ने लगीं।पड़ोस के घरों के बच्चों की नज़रें तो बाग के अमरुद और केलों पर ही रहने लगी।बच्चे तो बच्चे उनके माँ-बाप भी छुपे तौर पर पपीता-लौकी आदि तुड़वा लेते थे ताकि ऑर्गनिक सब्जी खा सकें।पर चंद्रशेखरजी भी कम चौकस नहीं थे।वे बगीचे की ऐसे रखवाली करते कि कोई अपने बहुमूल्य खजाने की रखवाली भी क्या करेगा?इस उम्र में सन्यासी का-सा जीवन जीने की बात पीछे छूट चुकी थी।पूजा-पाठ करने का भी न समय बचता था और न ही इच्छा।

चंद्रशेखरजी ने बगीचा लगाया और वृक्षों के नाम रखे गये।फलों की वे प्रतिदिन गिनती करते थे।फूलों का क्या कलियों तक का हिसाब रखा जाता था।किसी पेड़ को वे यदि मुरझाया हुआ देखते तो पूरा दिन उसके कारणों की विवेचना की जाती थी।पर बालक तो बालक ही होते हैं।पड़ोस के घर के रजत जी के तीन बच्चे आस-पास के और बच्चों या घर में काम करने वालियों के बच्चों के साथ मिलकर छोटी-मोटी घटना को अंजाम दे ही देते थे।इन्ही कारणों से मोहल्ले में झाड़ू-पोछा,बर्तन का काम करने वाली भी कोई उनके घर टिक नहीं पाती थी क्योंकि इधर बीच दो-तीन आईं लेकिन सबके बच्चे शरारत में दूसरे बच्चों के साथ मिलकर फल-फूल तोड़ने में लग जाते थे जो बात चंद्रशेखरजी के बर्दाश्त से बाहर थी।इसी वजह से बहू अपर्णा भी जल-भुन जाती थी क्योंकि उसे झाड़ू-पोछे और बर्तन का काम भी खुद करना पड़ रहा था।पड़ोसियों के बीच भी मनमुटाव बढ़ने लगा।शुरुआत में तो चंद्रशेखरजी स्वयं जाकर बच्चों के माता-पिता से शिकायत करते थे और माता-पिता भी उनकी उम्र का लिहाज करके अपने बच्चों को डांटते फटकारते थे पर कुछ दिनों बाद बात उदय और उसकी पत्नी तथा पड़ोसी और उनकी पत्नी के बीच बढ़ने लगी क्योंकि यह जो पड़ोसी थे उन्हीं के घर के तीन बच्चे मिलकर मोहल्ले के बाकी बच्चों के साथ चोरी करते थे।इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों परिवारों में मित्रता शत्रुता में बदल गई।

अब तो चंद्रशेखरजी की मुसीबत और भी बढ़ गई क्योंकि उन्हें रात-दिन बगीचे में चोरी का भय सताने लगा।कहीं एक दिन के लिए जाना चाहते तो जा भी नहीं पाते।अब तो पपीता,लौकी सब्जियां और नींबू भी उनके बगीचे में ही होने लगा।बहू भी रूचि लेने लगी और बगीचे की इतनी सेवा से हरी-भरी सब्जियां लहलहाने लगीं।घर लौकी,पपीते और नींबू से भरा रहता था।बाज़ार से सब्जियां लाने की ज़रूरत ही ख़त्म हो गई।बहू-बेटा भी खुश रहने लगे।चंद्रशेखरजी का परिवार महाकंजूस माना जाता था लेकिन अब तो मेहमानों के आने पर उन्हें नीम्बू पानी पहले पेश किया जाने लगा।जाते समय भेंट स्वरुप सब्जियां भी दी जाने लगीं।आज के युग में जब सब्जियां ज़हरीली हो चुकी हैं ऐसे में कोई भी घर की उपजाई इन शुद्ध सब्जियों को पाकर निहाल हो जाता था।अगल-बगल के घरों में भी सब्जियां पहुंचा दी जाती थीं।चंद्रशेखरजी प्रभुमय होना चाहते थे पर अब फल-सब्जीमय होकर रह गये थे।

पर दूसरी तरफ अंधेर हो रहा था।बगल के घर में हरी-भरी सब्जियां लहलहाएं और रजत जी तथा उनके घर वाले सिर्फ देख कर ही संतोष कर लें।परन्तु चंद्रशेखरजी के अनुसार रजत जी के तीनों बेटे कई बार उन के बगीचे को तहस-नहस कर चुके थे,अतः उन के लिए यह सजा बिलकुल सही है कि उन्हें बगीचे की सब्जियों से वंचित रखा जाए।लेकिन हद तो उस दिन हो गई जब चंद्रशेखरजी ने स्वयं यह दृश्य देखा कि रजत जी के तीनों बेटे हाथ में हरे-हरे अमरुद लेकर ख़ुशी से नाच रहे थे और उन्होंने देखा कि उनके बगल में 3-4 लौकियाँ और पपीते भी पड़े हुए थे।

“दादाजी ! आप के बगीचे के मीठे-मीठे अमरुद और यह रही सब्जियां (ऊँगली से पपीते,लौकी की तरफ इशारा किया)।” चंद्रशेखरजी को अपनी तरफ देखता हुआ पाकर बड़ा लड़का हँसते हुए बोला।

“तुम लोग फिर बगीचे में घुसे।शर्म नहीं आती तुम बेशर्मों को।” चंद्रशेखरजी दहाड़ते हुए बोले।

लड़के भी उपहास उड़ाते हुए बोले, “हम कसम खाकर कहते हैं कि हमने आपके बगीचे में कदम भी नहीं रखा।”

“चुप करो बेशर्मों यह अमरुद,पपीते कहाँ से आ गये।चोरी तो करते ही हो साथ में झूठ भी बोलते हो।” चंद्रशेखरजी चिल्लाते हुए बोले।

लड़के भी पूरी तरह से पंगा लेने को जैसे तैयार ही बैठे थे, “दादाजी देखिये यह जो पेड़ है अमरुद और पपीते का उसकी डालियाँ कितनी बाहर लटक रही हैं हम तो बड़े आराम से डंडा लेकर इन्हें गिरा लेते हैं और अमरुद ,पपीता मज़े से खाते हैं और हाँ आपकी लौकी की बेल तो ऊपर तक चढ़ गई है वह हम छत से तोड़ लेते हैं।फिर बताइए हमने आपके बगीचे में कहाँ पैर रखा।”

सुनते ही चंद्रशेखरजी का पारा सातवें आसमान पर हो गया।प्रश्न सिर्फ अमरुद,पपीते का नहीं था,उन्हें तो वह अपमान सता रहा था जो बच्चों ने उन्हें अँधेरे में रख कर किया था।तुरंत ही वे अन्दर गये और बहू से पूछा कि पेड़ की डालें काटने वाला बड़ा चाकू कहाँ रखा है?बहू भी ससुर का रौद्र रूप देखकर डर गई और पूछा कि क्या बात है?

चंद्रशेखर जी गुस्साते हुए बोले, “रजत के लड़कों ने नाक में दम कर रखा है।पेड़ की बाहर को लटकती डालियों से इन्होंने खूब अमरुद पपीते खाए हैं।आज मैं इन डालियों को ही काटकर फेंक दूंगा।न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।”

बहू भी डरते हुए बोली, “लेकिन पापा इतनी सी बात पर आप पेड़ों की डालियाँ काट देंगे।?”

चंद्रशेखरजी ने अपना गुस्सा बहू पर उतारते हुए कहा, “तुम्हारी इतनी हिम्मत कि मेरे काम में बाधा डालो।”

बहू ने पति उदय को झट जाकर बताया कि पिताजी पेड़ काटने जा रहे हैं,कुछ करो परन्तु इससे पहले कि कोई भी कुछ कर पाता,डालियाँ पेड़ से अलग हो चुकी थीं।बहू भी कटी डालियाँ देखकर दुखी हो गई और बोली, “यह आप ने क्या कर डाला पापा।”

चंद्रशेखरजी ने तसल्ली देते हुए कहा, “ऐसी सैकड़ों डालियाँ उग आएंगी लेकिन अब हम उन डालियों को ऐसे रखेंगे कि इन मनहूसों की तरफ से कुछ भी तोडना मुश्किल हो।”

उसी समय द्वार की घंटी बजी और रजत जी के तीनों बेटों ने हाथों में अमरुद ,पपीता और लौकी लेकर घर में प्रवेश किया। “अंकल,हमें बहुत दुःख है कि हमारे कारण दादाजी को अपने इतने प्यारे पेड़ काटने पड़े।यह अमरुद,लौकी और पपीता आप रख लीजिये।अब आगे से हम आप के बगीचे की एक पत्ती भी नहीं छुएंगे।” बड़े लड़के ने उदय से यह कहा और तीर की तरह तीनों बच्चे बाहर निकल गये।

चंद्रशेखरजी सामने पड़े अमरुद और पपीतों को देखते रहे।अब उनका क्रोध पश्चाताप में बदल गया था।उन का दिल तो यही चाह रहा था कि कहीं थोड़ा-सा एकांत मिल जाए तो फूटफूट कर रो लें लेकिन दिल,दिमाग और शरीर उनका कुछ भी ठिकाने पर नहीं था।

 

2 thoughts on “किस्सा बगीचे का

  1. आपके लेख सामयिक और गंभीर विषयों पर होते हैं।ऐसे में इस प्रकार के हास्य व्यंग्य से परिपूर्ण लेख सुकून देते हैं।इससे पहले आपने ‘मुस्लिम बहनों की कॉन्फ्रेंस’लेख दिया था और उसके प्रकाशन के 7-8 दिन बाद तीन तलाक पर प्रतिबंध संबंधी विधेयक राज्यसभा में पारित हो गया।क्या सुखद संयोग?

    1. धन्यवाद!आप लोगों को लेख पसंद आ रहे यही मेरे लिए प्रसन्नता की बात है।

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