विश्व में हर धर्म में अनेक संत हुए हैं।संतों के वचन अनमोल होते हैं और कुछ ही शब्दों में गहरी बात कहने की इनमें ईश्वर-प्रदत्त शक्ति होती है।कुछ संत और उनके विचारों से तो हम सभी परिचित हैं या कह सकते हैं कि उन्हें इतनी प्रसिद्धि मिलती है कि शायद ही दुनिया में कोई हो जो उनके नाम से परिचित न हो परन्तु ऐसे भी बहुत से संत हुए हैं,जिनका बहुत कम उल्लेख मिलता है।उनके विषय में या तो हम जानते ही नहीं अथवा बहुत कम जानते हैं परन्तु उनके विचार या शिक्षाएं अनमोल हैं और किसी भी मायने में कम नहीं हैं।इसी बात को ध्यान में रखकर आज मैं कुछ ऐसे ही संतों के जीवन के विशेष प्रेरक प्रसंग आपके लिए प्रस्तुत कर रही हूँ जो किन्हीं परिस्थितियों के कारण बहुत प्रसिद्धि तो नहीं पा सके लेकिन जिनके विचार या शिक्षाओं ने बहुत से लोगों के जीवन बदल दिए और हम भी आज उनके विचारों से प्रेरणा लेकर अपने जीवन,समाज,देश और विश्व में एक सुखद परिवर्तन ला सकते हैं।
महात्मा जाफर बहुत प्रसिद्ध संत थे।क़ुरान के गूढ़ तत्वों को समझाने में वे अद्वितीय थे।उनका सारा जीवन त्याग और तपस्या में ही बीता।इसी कारण लोगों की उनके ऊपर अगाध श्रद्धा थी।जिस समय महात्मा जाफर हुए उस समय अरब का खलीफ़ा मंसूर था।जब उसने महात्माजी की अत्यधिक प्रसिद्धि सुनी,तब उसे बड़ी ईर्ष्या हुई और उसने उन्हें मारने के लिए बुलावा भेजा।सभी दरबारियों ने खलीफ़ा को ऐसा कुकर्म न करने की चेतावनी दी परन्तु अभिमानी खलीफ़ा न माना किन्तु जैसे ही महात्मा जी आए,उनके तेजस्वी मुखमंडल का न जाने खलीफ़ा पर क्या प्रभाव पड़ा कि वह अपनी सुध-बुध ही भूल गया।उसने बड़े आदर के साथ उनका स्वागत-सत्कार किया।उन्हें ऊँचे आसन पर बैठाया और स्वयं नतमस्तक हो उनके सम्मुख बैठा।दरबार के सभी लोग खलीफ़ा के इस परिवर्तन पर आश्चर्यचकित थे।खलीफ़ा ने महात्माजी से पूछा कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ?इस पर महात्माजी बोले कि बस आगे से कभी भी मुझे बुलाकर मेरे तप में खलल न डालना।तपस्वी की इस बात से खलीफ़ा बड़ा लज्जित हुआ।उसने उनसे क्षमा मांग ली और उन्हें आदरपूर्वक विदा किया।महात्मा जाफर जी की इस बात से मुझे ‘अष्टछाप’ के प्रसिद्ध कवि कुम्भनदास जी की बात याद आ जाती है।वे भी हमेशा भक्ति में तल्लीन रहते थे और अपनी रचनाएँ करते रहते थे।उनकी ख्याति को सुनकर अकबर बादशाह ने उन्हें फतेहपुर सीकरी बुलवाया।मगर संत व्यक्तित्व को यह सब कहाँ पसंद आता है?कुम्भनदास जी विरक्त भाव से सीकरी चले तो गये परन्तु उन्होंने सम्राट अकबर के समक्ष जो पद गाकर सुनाया,वह उनके अनासक्त-भाव का सूचक है;
संतन को कहा सीकरी सों काम ।
आवत जात पन्हैया टूटी बिसरि गयो हरिनाम।।
जाको देखे दुख लागै ताकौ करन परी परनाम।
कुम्भनदास लाल गिरिधर बिन यह सब झूठो धाम।।
अकबर उनकी भक्ति से प्रसन्न हुआ और उनसे अनुरोध किया कि वे कुछ मांग लें।कुम्भनदास जी ने सबसे पहले यही इच्छा प्रकट की कि भविष्य में मुझे सीकरी मत बुलाना।श्रीनाथ जी के अनन्य भक्त होने के कारण उन्हें ब्रज से बाहर रहने पर अपार कष्ट की अनुभूति होती थी।ऐसे संतों की बानियाँ कितनी सरल और दिल पर उतर जाने वाली होतीं हैं।सम्राट का भी कोई डर नहीं और ईश्वर भक्ति के आगे धन-वैभव सब बेकार।कितना मधुर लगता है जब पढ़ो कि ‘आवत जात पन्हैया टूटी….’ अर्थात आने जाने में चप्पल(पन्हैया)भी टूट गई और इन सारे झमेलों में हरि नाम भी भूल गया।यह बात हमें सिखाती है कि भक्ति में भी भोलापन होना चाहिए,व्यर्थ आडम्बर नहीं।
एक बार एक व्यक्ति के रुपयों की थैली गुम हो गई तो उसने महात्मा सादिक को चोर समझकर पकड़ लिया।महात्मा सादिक ने उस व्यक्ति से पूछा कि तुम्हारी थैली में कितने रुपये थे?इस पर उस व्यक्ति ने जवाब दिया कि एक हज़ार।महात्मा जी ने एक हज़ार रूपए अपनी ओर से उस व्यक्ति को दे दिए।कुछ समय बाद असली चोर पकड़ा गया,तब वही व्यक्ति महात्मा सादिक के रुपये लौटाने गया।तब महात्माजी ने यह कहकर “मैं दी हुई चीज़ वापस नहीं लेता,” अपने रूपए लेने से इनकार कर दिया।महात्मा सादिक की शिक्षाएं भी बहुत ही सरल और जीवन-परिवर्तन करने वाली थीं।
अबुस्मान हयरी,खुरासान के निवासी थे।उनका जन्म एक ऊँचे घराने में हुआ था,किन्तु बचपन से ही ईश्वर में आस्था होने के कारण उनका मन सांसारिक कामों में नहीं लगता था।उन्होंने अपना पूरा जीवन खुरासान में धर्म-प्रचार करने में बिताया।उनके बचपन की एक घटना है।एक बार वे मदरसा जा रहे थे।उन्होंने कीमती वस्त्र पहने हुए थे।मार्ग में उन्हें एक गधा दिखाई दिया, जिसकी पीठ पर एक गहरा घाव था और कुछ कौवे उसमे अपनी चोंचें मार रहे थे।यह देखकर उन्हें बड़ी दया आई और उन्होंने अपनी पगड़ी उतारकर उसके घाव पर बाँध दी और अपना कीमती शाल उसे ओढ़ा दिया।समझा जा सकता है कि वे बचपन से ही कितने परोपकारी थे।एक बार एक व्यक्ति ने उनसे पूछा, “महाराज,मेरी ज़ुबान तो ईश्वर का जाप करती है पर मन इस ओर नहीं लगता।मैं क्या करूँ?”
इस पर अबुस्मान ने उत्तर दिया, “भाई,तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि एक इन्द्रिय वश में आ गई है।जब एक इन्द्रिय वश में हो गई तब एक दिन मन भी वश में होगा ही।” कितने सरल और सकारात्मक विचार थे।एक और बात जो उनकी महानता दर्शाती है।एक बार एक युवक मक्का की यात्रा के बाद महात्मा अबुस्मान से मिलने आया।उसने उन्हें सलाम किया परन्तु महात्मा जी ने उसका सलाम मंज़ूर नहीं किया और बोले, “तुमने यह यात्रा अपनी माँ को दुखित अवस्था में छोड़कर की है।अतः तुम्हे इसका फल नहीं मिलेगा।”
महात्मा जी की यह बात सुनकर उस युवक को बड़ा पश्चाताप हुआ।वह तुरंत वहां से लौटकर अपनी माँ की सेवा में लग गया।कुछ समय बाद अपनी माँ का देहांत हो जाने पर वह वापस अबुस्मान के पास आया तब उन्होंने बड़े स्नेह से उसे अपने पास रख लिया।आगे चलकर वह युवक उनका प्रिय शिष्य हुआ।इन शिक्षाओं की आज के समय में कितनी आवश्यकता है जबकि रिश्तों की मिठास ही ख़त्म होती जा रही है और माता-पिता भी बोझ लगने लगे हैं।
संत धर्मदास कबीर के प्रमुख शिष्य थे।कबीर-वाणी को ‘बीजक’ में संकलित करने का श्रेय इन्हीं को प्राप्त है परन्तु इनके बारे में भी आज किसी को बहुत जानकारी नहीं है जबकि इनकी ‘बानियाँ’ भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।कबीरदास जी की मृत्यु के पश्चात् उनकी गद्दी का उत्तराधिकार भी इन्हीं को मिला था।इनकी भक्ति-भावना और विचारधारा कबीर से भिन्न नहीं थी,किन्तु खंडन-मंडन की कटुता इनके यहाँ नहीं मिलती।लौकिक प्रपंच और माया के प्रभाव को नष्ट करने में वे ब्रह्म की साधना को अनिवार्य मानते थे-
“बरनौं मैं साहेब तुम्हरे चरना,संतन सुख लायक दायक प्रभु दुःख हरना।”
इसी प्रकार मध्य युग में एक अन्य संत ऐसे हुए जिनके नाम से शायद बहुत लोग परिचित न हों लेकिन उनकी बानियाँ और शिक्षाएं कहीं से भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं और वे हैं संत रज्जब जिनकी गणना प्रसिद्ध संत कवि दादूदयाल के प्रमुख शिष्यों में की जाती है।इनका पूरा नाम रज्जब अली खां था। ’सब्बंगी’ शीर्षक कृति में इन्होने अपनी रचनाओं के साथ अन्य प्रसिद्ध संतों की वाणी का संकलन किया है।वैसे इनकी रचनाएँ ‘रज्जब बानी’ में संग्रहीत हैं।इनकी विचारधारा का अनुमान इन साखियों से सहज ही हो जाता है –
बारी बुद्धि माहै उदे,सफरी सबद समान।
इह प्रकार बाणी बिबिध,समुझै साधु सुजान।।
निर्मल पीबै प्रेम रस,पल पल पोसै पोषै प्राण।
जान रज्जब छाक्या रहै,साधू संत सुजान।।
इस प्रकार हम देखते हैं कि संतों का कोई धर्म,जाति या सम्प्रदाय नहीं होता है।संत-सम्प्रदाय विश्व-सम्प्रदाय है और उसका धर्म विश्वधर्म है।विश्वधर्म का मूलाधार ह्रदय की पवित्रता है।जनमानस के संताप को दूर करने वाली संतों की पियूषवर्षी वाणी का व्यक्ति के ऊपर कैसा प्रभाव पड़ता है और हम देखते हैं कि एक छोटी सी घटना या कह लें संतों के कुछ शब्द पूरा जीवन ही बदल देते हैं।इतिहास में ऐसे उदाहरण विद्यमान हैं जबकि संत विशेष के कृतित्व,व्यक्तित्व और उपदेशों से प्रभावित होकर शासक-वर्ग स्वयं उनके दर्शनार्थ उपस्थित हुआ अथवा उन्हें ससम्मान आमंत्रित किया गया।महात्मा जाफर और कुम्भनदास जी के बारे में अभी ऊपर हम पढ़ ही चुके हैं।संतों के व्यक्तित्व का प्रभाव सभी धर्म और जाति के लोगों पर समान रूप से पड़ा और उन्होंने अपनी ‘बानियों’ से आनेवाली पीढ़ियों को अजस्र प्रेरणा प्रदान की।यहाँ तक कि बीसवीं शताब्दी के सबसे महान नेता,युगपुरुष महात्मा गाँधी भी कबीरदास तथा अन्य संतों के जीवन-सिद्धांतों और आध्यात्मिक मान्यताओं से प्रभावित थे।संतों के व्यक्तित्व और साधना के प्रभाव का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा?आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि इन संतों की बानियों और शिक्षाओं को जनमानस तक पहुँचाया जाए और आज की युवा पीढ़ी को भी इन संतों के विचारों को जानने और फिर आत्मसात करने की प्रेरणा दी जाए।
वाह! आज के दिन बिल्कुल सामयिक पोस्ट।विश्व में आज 19 अगस्त के दिन को ‘मानवीय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।यह मानवीयता को याद करने और विश्व भर के उन हज़ारों मानवीय सहायता कर्मियों को श्रद्धाञ्जलि देने का दिन है ,जिन्होंने सङ्कट और घोर निराशा के बीच ज़रूरतमन्द लोगों को जीवन रक्षक मदद मुहैया कराने के लिए अपनी ज़िन्दगी जोखिम में डाली।
इस वर्ष का थीम था– विश्व को और अधिक मानवीय नायकों की आवश्यकता है– इन सन्तों के विचार ,बानियाँ और शिक्षाएं मनुष्य को सभी धर्मों और जातियों से ऊपर उठकर पूर्ण मानव बनने की प्रेरणा देती हैं।