आजकल पितृपक्ष या श्राद्ध चल रहे हैं। ‘श्राद्ध’ जैसा कि नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि श्रद्धा का भाव और लगभग सभी जानते होंगे कि इस अवसर पर हम अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का भाव व्यक्त करने के लिए तरह-तरह के उपक्रम करते हैं।आज श्राद्ध का मतलब सिर्फ भोज कराना और दिखावा मात्र रह गया है।इसके विपरीत श्राद्ध-कर्म में पिंडदान और तर्पण से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम अपने पूर्वजों के प्रति मन में कितनी श्रद्धा रखते हैं।श्राद्ध-कर्म का मूल-तत्व है श्रद्धा।यह अवसर हमें अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का मौका देता है।यह हमें अपने पूर्वजों व बुजुर्गों के दिशा-निर्देश मानने और उनकी बातों पर अमल करने व उनका सम्मान करने को प्रेरित करता है।पूर्वजों के प्रति श्रद्धाभाव में यह भाव भी निहित है कि हम अपने दिवंगत पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता तो व्यक्त करें ही परन्तु उसके साथ ही जीवित बुजुर्गों को भी पूरा सम्मान दें।अब एक बात जो मुझे तो बहुत चुभन देती है वह यह कि इन पंद्रह दिनों में मैंने बहुत से परिवारों में देखा है कि एक-दो नहीं बल्कि सोलह पीढ़ियों तक के पूर्वजों के नाम पर भोज दिए जाते हैं और न जाने कौन-कौन से कर्म-काण्ड किये जाते हैं।अपने पूर्वजों के पसंद की वस्तुओं और कपड़ों आदि के दान पर दिल खोलकर खर्च भी किया जाता है।परिवार के बच्चे जिन्हें पूरे वर्ष भर इन पूर्वजों के बारे में कोई भी बात नहीं पता होती उन्हें भी पाप-पुण्य का भय दिखाकर इन कर्मकांडों में संलिप्त किया जाता है।जो भी कुछ इस मौके पर किया जाता है उससे मुझे कोई शिकायत नहीं है और न ही मैं कोई इतनी विदुषी हूँ कि इस बारे में कोई टिप्पणी कर सकूँ परन्तु चुभन इस बात की होती है कि जो हमारे बुजुर्ग इस समय हमारे साथ हैं और उन्हें हमारे प्यार,सम्मान और अपनेपन की ज़रूरत है,वह तो हम उन्हें दे नहीं पाते और वर्षों पहले गुज़र चुके बुजुर्गों के नाम पर भोज आदि देकर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।बहुत से परिवारों में मैंने देखा है कि बुजुर्ग माता-पिता अपने बच्चों के सब तरह से समर्थ होते हुए भी बिलकुल निर्वासित जीवन बिताने को मजबूर रहते हैं।दो बोल भी प्रेम के कोई उनसे बोलना नहीं चाहता और जिन मृत लोगों के श्राद्ध-कर्म में लोग सोलह पीढ़ियों तक जल पहुँचाने के लिए दक्षिण दिशा की और मुख करके सोलह लोटे जल चढ़ाते हैं वही लोग अपने साथ रहने वाले बुजुर्ग माता-पिता या दादा-दादी को प्यास लगने पर एक गिलास पानी देने में भी भार महसूस करते हैं।दिल खोलकर जो लोग दान करते हैं उन्हें ही अपने जीवित माता-पिता की छोटी-मोटी ज़रूरतें अक्सर बेकार लगती हैं।याद रखना चाहिए कि वृद्ध माता-पिता को हमारे पैसों या ऐश-आराम से ज्यादा ज़रूरी हमारा प्यार और अपनापन है क्योंकि इस उम्र में उनके खर्चे तो वैसे ही कम हो जाते हैं और दो जोड़ी कपड़े और सादगी पूर्ण भोजन का इंतजाम तो ज़्यादातर वे अपने आप ही कर लेते हैं पर जिस चीज़ की उन्हें सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है वही सबसे कम उन्हें मिल पाती है।बहुत से लोग मैंने ऐसा कहते भी पाए हैं कि “सब कुछ तो है घर में जो करना हैं करें” लेकिन वे यह नहीं याद रख पाते कि उन्हें ‘सब कुछ’ अब इस उम्र में चाहिए ही नहीं।बस चाहिए तो प्यार,अपनापन और सम्मान।आज के बच्चों से जो माता-पिता पूर्वजों की कई पीढ़ियों के लिए तर्पण करने के संस्कार करवाते हैं और गर्व महसूस करते हैं कि हमने बहुत बड़ा कार्य किया,उन्हें अपने बच्चों को जीवित बुजुर्गों को सम्मान और प्यार देना भी सिखाना चाहिए।
पौराणिक ग्रंथों में श्राद्ध और तर्पण पर विस्तृत चर्चा मिलती है।वायु-पुराण और पुलस्त्य-स्मृति में श्राद्ध शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि श्रद्धा से किये जाने के कारण ही इसे श्राद्ध कहते हैं।हम सभी जानते हैं कि श्रीमद्भागवद्गीता में माना गया है कि शरीर मरता है,आत्मा नहीं मरती।वह अजर-अमर है।संभवतः इसी सिद्धांत के आधार पर श्राद्ध का विधान बनाया गया होगा।हमारे ग्रंथों-पुराणों में जो भी बातें हैं वे बड़ी ठोस और वैज्ञानिक आधार पर हैं।सिर्फ कही-सुनी या काल्पनिक कहानियां नहीं हैं।इस तरह से पूर्वजों के प्रति श्रद्धा ज्ञापित करने की शिक्षा यदि हमारे ग्रन्थ देते हैं तो निश्चित ही उनका निहितार्थ यह रहा होगा कि जब मृत पूर्वजों के प्रति व्यक्तियों में इतने श्रद्धापूर्ण भाव होंगे तो जीवित वृद्धजनों के लिए तो वे वैसी श्रद्धा और निष्ठा रखेंगे ही लेकिन आज के समय में लोग कर्मकांड और दिखावा करने में लगे हुए हैं और जीवित वृद्धजनों के प्रति मन से श्रद्धा का भाव तिरोहित होता जा रहा है।विष्णु-पुराण तो यहाँ तक कहता है कि यदि किसी की वित्तीय स्थिति श्राद्ध कराने की न हो तो वह गाय को चारा खिला सकता है।यानि बात केवल श्रद्धा की है,दिखावे या कर्मकांड की नहीं।
भारतीय धर्म-ग्रंथों में तीन प्रकार के प्रमुख ऋण बताए गये हैं-पितृ ऋण,देव ऋण और ऋषि ऋण।इनमें पितृ ऋण सबसे महत्वपूर्ण बताया गया है क्योंकि पितृ (जिसमें सिर्फ दिवंगत पिता ही नहीं अपितु माता तथा सभी पूर्वज आते हैं) ने हमारे जीवन को विकसित बनाने में अपना बड़ा योगदान किया है।उनके इस ऋण को चुकाने का एक ही तरीका है कि हम माता-पिता तथा अन्य सभी बुजुर्गों के किये गये कार्यों,उनकी उपलब्धियों और उनके दिए संस्कारों को उचित सम्मान दें।जीवित हैं तब भी उन्हें सम्मान दें और उनके मरणोपरांत श्राद्ध कर सम्मान व्यक्त करें।संस्कृत की एक उक्ति है –“श्रद्धा दीयते तत श्राद्धम।” अर्थात श्रद्धा से कुछ देना ही श्राद्ध है।अतः श्राद्ध में अपनी सामर्थ्य से अधिक व्यय करना या किसी प्रकार का प्रदर्शन करना आवश्यक नहीं है।साधनों के अभाव में पितरों को केवल जलांजलि दे देना या मात्र प्रणाम कर लेना ही पर्याप्त है।विष्णु-पुराण में कहा गया है- “मेरे पास श्राद्ध करने की न क्षमता है,न धन है और न कोई अन्य सामग्री।अतः मैं पितरों को प्रणाम करता हूँ।वे मेरी भक्ति से तृप्ति लाभ करें।”
आज के इस वैज्ञानिक युग में यह बात एक बहस का विषय हो सकती है कि दान,पूजा और भोज आदि हमारे पितरों को कैसे और कितना पहुँचता है?परन्तु एक बात से तो सभी सहमत होंगे कि अपने आस-पास के वृद्धजन,माता-पिता आदि की सेवा से हमें आत्मिक शांति और संतोष मिलता है।अंत में एक बात मुझे याद आ रही है जो मुझे बहुत तकलीफ देती है इसलिए न चाहते हुए भी मैं उसे आपके साथ साझा करुँगी और वह यह है कि मैंने स्वयं कई ऐसे लोगों को अपने आस-पास देखा है कि वे इस डर से मृत व्यक्तियों का श्राद्ध करते हैं कि कहीं उनकी आत्मा उन्हें परेशान न करे।मुझे आश्चर्य होता है ऐसे व्यक्तियों की सोच पर जिन्हें अपने ही लोगों की आत्मा पर भी विश्वास नहीं है।इस तरह की सोच का कारण यह है कि ऐसे व्यक्तियों ने कभी भी किसी बड़े-बुजुर्ग की सेवा या सम्मान तो उन्हें दिया नहीं होता और उनका अपना मन उन्हें हर समय धिक्कारता रहता है लेकिन वे स्वीकार नहीं करना चाहते।इसलिए श्राद्ध के कुछ दिन इस तरह के कर्म-कांड करके वे अपनी कुंठित सोच को बदलने का प्रयास करते हैं।ऐसे लोगों को मैं एक बात कहना चाहूंगी कि अपने पूर्वजों को जीते जी प्रसन्न रखिये तो कोई भी हमारा अपना मर के हमें तंग नहीं कर सकता।हाँ जो लोग इस वहम में जीते हैं कि आत्मा मर के तंग न करे तो निश्चित रूप से ऐसा वे ही लोग सोचते हैं जिन्होंने जीवित पूर्वजों को किन्हीं कारणों से प्रसन्न नहीं रखा अन्यथा यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि वृद्धजनों की सेवा और उन्हें प्रसन्न रखकर जो संतुष्टि और प्रसन्नता मिलती है वह हमारे जीवन के सभी डर और नकारात्मकता के भावों को दूर कर देती है और हमारा जीवन बहुत सारे अभावों या कमियों के बावजूद पूर्णता की प्राप्ति करता है।इसलिए आज से ही हम संकल्प लें कि पितृपक्ष के बाद भी जीवनपर्यंत अपने दिवंगत परिजनों के प्रति कृतज्ञता का भाव रखेंगे और जीवित वृद्धजनों के प्रति सेवापूर्ण व्यवहार रखते हुए उन्हें प्रसन्न और संतुष्ट रखने का प्रयास करेंगे।