आजकल हर तरफ उत्सवों का माहौल है,हम सभी नवरात्रि और दशहरा मना रहे हैं और फिर दीपावली मनाने की तैयारियां कर रहे हैं।सभी को नवरात्रि और दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएँ।इन पर्व त्यौहारों की जो उमंग पहले हुआ करती थी,वह अब उतनी नहीं रही।आजकल इन अवसरों पर लोगों की सहभागिता कम होती जा रही है।इनका स्वरुप लोकोन्मुखी नहीं रहा है।मैं तो यही कहूँगी कि आज जीवन में राम को लाने की आवश्यकता है तभी दशहरा,दीपावली जैसे पर्व को सही मायने में प्रासंगिक बनाया जा सकता है।
नवरात्रि दशहरा और दीपावली इन सभी पर्वों का सम्बन्ध श्री राम से ही है।जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हमारे प्रभु राम ने स्वयं को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत किया और वे परब्रह्म राम न होकर मानव राम हैं जो निरंतर संघर्षों से लड़ते रहते हैं।उनका जीवन सुख-दुःख,आशा-निराशा,घात-प्रतिघात का जीवन है।परिस्थितियों की विषमता उन्हें विचलित कर देती है,परन्तु कर्तव्य-बुद्धि द्वारा संयत रहकर वे आत्म-विश्वास को पुनः जागृत करते हैं और अंततः समस्त रावण-रूपी बाधाओं पर विजय प्राप्त करते हैं।
इन पर्वों का जो मूल उद्देश्य था उसे तो हमने भुला ही दिया है।नवरात्रि मतलब नौ दिन देवी की आराधना।श्री राम की विजय का कारण नारी द्वारा प्रदत्त शक्ति ही है।देवी भागवत की कथा में उल्लेख है कि राम जब रावण के सम्मुख हतप्रभ और पराजित से होने लगते हैं तब वे महाशक्ति का आराधन करते हैं।ऐसा केवल पौराणिक कथा-वृत्तों में ही उल्लेख नहीं है बल्कि आदि कवि वाल्मीकि से लेकर गोस्वामी तुलसीदास,सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला से लेकर आज तक श्री राम को लेकर जैसा भी चित्र हम सबके सामने आया है उसमें श्री राम के माध्यम से जैसे लगता है कि हम अपने ही जीवन-परिवेश को चित्रित कर रहे हैं और यही किसी भी चरित्र की महानता का सबसे बड़ा प्रमाण होता है कि वह चरित्र आम होते हुए भी खास बन जाए या ईश्वरीय ही हो जाए।
राम ने जिस महाशक्ति की आराधना की वे वस्तुतः नारीस्वरुपा आदि शक्ति ही हैं।इसको अदिति भी कहा गया है।सीता की स्मृति भग्न-ह्रदय राम को विजय के लिए पुनः सन्नद्ध करती है।नारी(सीता) ही नर(राम) की प्रेरक शक्ति के रूप में दिखाई देती है।ठीक ही है नारी-रूपिणी शक्ति के अभाव में मानव शिव के बजाय केवल ‘शव’ रह जाता है।राम का संघर्ष मात्र राम का न रहकर मानव मात्र के संघर्ष की कहानी बन जाता है।बंगाल में प्रसिद्ध राम-रावण युद्ध सम्बन्धी कथा के अनुसार राम ने रावण के अद्भुत शौर्य से व्याकुल होकर विजय प्राप्त करने के लिए शक्ति की पूजा की थी और सिद्धि प्राप्त करने के लिए वे अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए उद्यत हो जाते हैं।उनका यह आदर्श विषमताओं से त्रस्त मानवता को रावणीय व्यवस्था के प्रति निरंतर संघर्ष करने का सन्देश देता है और उसे विश्वास दिलाता है कि उन शक्तियों की ही अंत में विजय होती है जो मानवता की मुक्ति के लिए राम के समान संघर्षरत रहती हैं।रावण समस्त तमोगुणी विघ्न-बाधाओं का प्रतिनिधि मात्र दिखाई देता है।मनुष्य का मन पराजित होकर भी पराजय स्वीकार नहीं करता।युद्ध के लिए,विजय के लिए वह पुनः चेष्टा करता है।इसी तरह श्री राम का चरित्र भी यही महा आशावादी सन्देश देता है।राम को केवल सीता की चिंता ही नहीं है,उनके मन का मुख्य प्रश्न यह है कि “जगजीवन में क्या रावणवादी ही विजयी होते रहेंगे?” महाशक्ति रावण को संरक्षण प्रदान करती हैं।फलस्वरूप राम के समस्त शस्त्र विफल होते हैं-सब वार खाली जाते हैं।जब राम निराश होने लगते हैं,तब जाम्बवान श्री राम को परामर्श देते हैं कि वे भी तप द्वारा महाशक्ति को वश में करें।राम ऐसा ही करते हैं।तप की सिद्धि की अंतिम दशा के समय दुर्गा आकर राम का अंतिम कमल पुष्प चुरा ले जाती हैं।राम दुविधा में पड़ जाते हैं कि आसन छोड़ते हैं तो तप अपूर्ण रहता है और यदि आसन छोड़कर कमल प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील नहीं होते हैं तो तप भंग होता है।इसी समय उन्हें याद आता है कि उनकी माता उन्हें राजीव नयन(कमल के समान नेत्रों वाले) कहा करती थीं।वे कमल के स्थान पर अपनी एक आँख चढ़ाने के लिए तैयार होते हैं।उसी समय देवी दुर्गा आकर उनका हाथ पकड़ लेती हैं और उन्हें विजय का वरदान देती हुई उनके मुख-तेज में समा जाती हैं।महाप्राण निराला ने ‘राम की शक्ति पूजा’ में कहा है-
होगी जय होगी जय हे पुरुषोत्तम नवीन,
कह महाशक्ति राम के वदन में हुईं लीन।
यह बात आज के समय में बहुत बड़ा सन्देश भी देती है और शिक्षा भी।आज हम कोई भी पर्व-त्यौहार आता है तो तरह-तरह के उपक्रमों में लग जाते हैं और एक बात जो मुझे तो बहुत ठीक नहीं लगती कि ईश्वर पर चढ़ाने के लिए पुष्पों का भी वर्गीकरण किया जाता है जैसे किसी देवता को पीला फूल तो किसी को लाल तो किसी को गेंदा तो किसी को गुलाब।लेकिन प्रभु श्री राम और देवी दुर्गा यहाँ यही सन्देश देते हैं कि भाव और भक्ति होनी चाहिए तथा ईश्वर को प्राप्त करने की तड़प होनी चाहिए जैसी कि श्री राम में थी तो एक पुष्प कम होने पर भी देवी उन पर प्रसन्न होती हैं और उन्हें विजयी होने का वरदान देती हैं।एक बार सच्चे ह्रदय से भाव-सुमन,श्रद्धा-सुमन ईश्वर को अर्पित करके देखिये फिर किसी भी पुष्प की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी,अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिए।इसी तरह राम के चरित्र से जो दूसरा सन्देश मिलता है वह यह कि हम आसुरी प्रवृत्तियों का नाश करें न कि दश मुख वाले रावण को जलता देखकर अपने को धन्य समझें।यह तो प्रतीक मात्र हैं।वास्तव में तो हमें अपने अन्दर के रावण को जलाना है जो हम कर नहीं पाते और हर विजयदशमी को एक या कई रावण जलाकर सोचते हैं कि प्रभु को प्राप्त कर लेंगे लेकिन स्वयं सोच कर देखिये कि ऐसा कैसे होगा?हम पूरी जिंदगी नवरात्रि मनाते हैं और देवी के नाम पर व्रत रखते और उनका पूजन करते हैं परन्तु श्री राम ने माता सीता को प्राप्त करने के लिए कैसे देवी की आराधना की और अपने भाव-सुमन से कैसे उनको प्रसन्न किया,यह जानने की चेष्टा करनी चाहिए।नारी शक्ति को प्रभु राम ने कितना महत्वपूर्ण स्थान दिया और समस्त संसार को यह बताया कि शक्ति की आराधना के बिना कुछ भी प्राप्त करना असंभव है।यह बात आज के समय में जैसे समाप्त हो चुकी है।यदि सच में हम प्रभु राम और मातृ-शक्ति की आराधना करना चाहते हैं तो हमें नारी का सम्मान करना सीखना होगा।तभी हम हर संकट से मुक्ति प्राप्त करेंगे और हमारी विजय होगी।मेरे विचार से तो यही इन त्यौहारों का उद्देश्य है।
विजयदशमी या दशहरे के पर्व को एक सांस्कृतिक पर्व बना कर लोकरंजन के साथ-साथ उसे सीधे उत्पादन के भाव से जोड़ा जाना चाहिए।अन्धविश्वास और कुसंस्कार डालने वाले नाटक या अन्यान्य क्रियाकलापों के स्थान पर सार्थक और उद्देश्यपूर्ण कार्यक्रमों की आवश्यकता है।ऐसे कार्यक्रमों का व्यावहारिक स्वरुप क्या है?इसका जवाब इसी देश की माटी और मानसिकता से उभरेगा।अभी तो इस विचार सरणि को आगे फ़ैलाने की आवश्यकता है।
खूबसूरत एवं ज्ञानवर्धक पोस्ट के साथ – साथ विजयादशमी एवं दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें