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कबिरा सोच न सांचिये

आजकल सभी के दिन ऐसे गुज़र रहे हैं जैसे हम सब कोई बुरा स्वप्न देख रहे हों और ऐसी इच्छा हम सभी की होती है कि काश हम आंखें खोलें और यह बुरा समय गुज़रा हुआ नजर आए लेकिन यह काश कब तक है इसका पता तो हममें से किसी को भी नहीं है।
आज जो कुछ भी रेलवे की पटरियों पर मजदूरों के साथ घटित हुआ उसका दर्द एक-एक इंसान को महसूस होना ही चाहिए।मैं एकदम सच लिख रही हूं कि आज सुबह जबसे इस हादसे के बारे में पता चला तब से मैंने टेलीविजन पर समाचार देखा ही नहीं क्योंकि मेरी मां ने जब मुझे सिर्फ इतना ही बताया कि पटरियों पर इस हालत में मजदूर कट गए और चारों तरफ उनकी रोटियां बिखर गयीं तो यकीन मानिए कि उसके बाद मैं आज दिन भर उस हादसे को भूल ही नहीं सकी।एक ही बात मन को व्यथित करती रही कि सारी कहानी सिर्फ रोटी की ही होती है क्या?रोटी कमाने ही बेचारे यह लोग परदेस गए और इस आपदा के काल में रोटी के लिए ही चार पैसे कमाकर घर लौटना चाहते थे।क्या क्या अरमान लेकर जा रहे होंगे अपने घर।फिर वही रोटी।कुछ रोटियां बनाकर रास्ते के लिए रख ली होंगी कि भूख लगने पर खाएंगे लेकिन होनी कितनी प्रबल?कि रेलवे पटरियों पर उनके शरीर का तो अंत हुआ ही रोटी की कहानी भी खत्म हो गयी।
यह सब देखकर भी हमलोग कुछ समझ नहीं पाते।अभी भी अपने अलावा हर दूसरे इंसान को कोसना ही फितरत बन गयी है।आज लॉक डाउन है जो कि आज के हालातों में बचे रहने का एकमात्र उपाय है और यह हम सभी जान समझ रहे हैं लेकिन फिर भी इन हालातों से समझौता करने की जगह बहुत से लोग सरकार,व्यवस्था, समाज ,अपने परिवार और यहां तक कि ईश्वर को भी कोसना नहीं छोड़ पा रहे।भगवान ने ऐसा क्यों किया?यही उनका प्रश्न होता है और यह कभी मनन किया किसी ने कि कुदरत,प्रकृति या ईश्वर भी शायद कुछ संतुलन करने के मूड में अब है।इतनी बेईमानी, भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, बलात्कार और न जाने किन किन बुराइयों से भरे हुए इस विश्व को जैसे एक सज़ा मिली है।छोटी छोटी बच्चियों के जब बलात्कार होते थे तब हममे से बहुत से लोग ईश्वर से प्रश्न करते ही थे कि ‘प्रभु तुम्हारा न्याय कहाँ है?’ इन बलात्कारियों को उनके परिवार या समाज या कथित बुद्धिजीवी वर्ग के द्वारा जब संरक्षण मिलता था और उनकी सजा माफ होती थी या टलती थी तो भी हृदय रोता था कि प्रभु क्यों गूंगा बहरा हो गया है लेकिन अब एक-एक पाप ,एक-एक गुनाह का हिसाब हो रहा है।बहुत से लोग जो कि पढ़े लिखे बुद्धिजीवी वर्ग में आते हैं उनके इन हालातों में भी मूर्खतापूर्ण तर्क आते हैं कि हमने कौन से पाप किये हैं जो हम यह सब भोग रहे हैं।तो उनको मेरा यह जवाब है कि पहली बात तो यह है कि निष्पाप तो इस धरती पर कोई है ही नहीं।जिन्हें हम अपना ईश्वर मानते हैं वे राम और कृष्ण भी इस धरती पर आकर जब मानव रूप में रहे तो उनसे भी कुछ पाप जाने अनजाने हो ही गए इसलिए यह गर्व तो किसी को नहीं करना चाहिए कि वह निष्पाप है और फिर इस समाज में आज जो इतना अनाचार दुराचार है उसमें एक-एक इंसान दोषी है।माता पिता आज समाज को क्या दे रहे हैं?आज के बच्चों का आचरण क्या हो रहा है?बड़ों की सेवा करना तो दूर उनसे दो शब्द ठीक से बोलना भी भारी हो रहा है।आज के माता-पिता अपने बच्चों के अंदर क्या सेवा भाव डालेंगे जब वे स्वयं ही अपने माता-पिता को भार समझते हैं और उन्हें अपने साथ रखना उन्हें खलता है।अपनी लाइफ एन्जॉय करने का जो फंडा लोगों पर हावी हो गया था उसे आज के हालातों ने तोड़कर रख दिया है।रोज कहीं होटल में खाना या बाहर से मंगाकर खाना, घूमना फिरना सैर सपाटे,जश्न क्लब किटी पार्टी सब बंद।लंबी फेहरिस्त है उन चीजों की जो आज बंद हैं लेकिन लॉकडाउन से पहले यही चीजें ज़िंदगी का हिस्सा हो गयी थीं।घर के खाने से दूर एक फोन पर खाना आर्डर होता था और होम डिलीवरी होती थी।उस खाने के शरीर को क्या नुकसान थे यह सोचने की फुर्सत ही किसको थी।दलील यह दी जाती थी कि मैं तो बिना बाहर का खाए जी ही नहीं सकता/सकती।अब लगभग दो महीने होने को जा रहे।ऐसे लोगों से मैं यह पूछना चाहूंगी कि अब कैसे जी रहे हैं?हालांकि इतने खराब हालातों में भी लोगों ने अभी कुछ दिन पहले तक खाने की होम डिलीवरी करवाई और जब डिलीवरी बॉय ही कोरोना कोविड-19 पॉजिटिव निकला तो फिर होश आयी।कहने का मतलब वह हर काम जिसे हम सालों से करते आ रहे थे और उसे करने के पक्ष में अपनी बेसिर पैर की दलीलें देते थे उन्ही चीजों को आज जब हमसे छीन लिया गया है तो भी हम जी रहे हैं।इसका मतलब तो यही निकला न कि कुदरत ने हमें अपनी राह पर चलने के लिए बहुत आगाह किया लेकिन हम आगाह होना तो दूर बल्कि और भी इन चीज़ों में संलिप्त होते गए और तर्क यह देते रहें कि यह सब करना तो हमारी मजबूरी है क्योंकि इन सब चीजों के बिना हम जी नहीं सकते तो कुदरत ने भी अपना करिश्मा दिखाया कि लो जिन चीजों के बिना तुम जी नहीं सकते थे अब देखो कैसे जिया जाता है?
अभी भी लोगों को बहुत संताप है।छोटी से छोटी कमी को भी बढ़ाकर जताते हैं और व्यवस्था को धिक्कारने के सिवा उनके पास कुछ नहीं है।जो लोग हर तरह से समर्थ हैं उनके अंदर ज़्यादा असंतोष है।यह आपदा का काल है और इसमें बहुत सारी कमियाँ और परेशानियां बर्दाश्त करनी ही होंगी।इसलिए अपनी व्यक्तिगत परेशानी को लेकर ही न बैठे रहें।जब अपनी व्यक्तिगत परेशानी आप पर हावी होने लगे तो अपने से बदतर हालात में आज जो लोग हैं उनका सोचिये।आज के समय में वे ही लोग ज़्यादा दुखी और परेशान हैं जो सिर्फ अपना देख रहे हैं।’स्व’ में रहने की आदत या मजबूरी ने ही हमें दुखी और व्यथित किया हुआ है।सिर्फ दिखावे के लिए ही नहीं वरन दिल से दूसरों का सोचिये,उनके लिए कुछ करने का प्रयास कीजिए।चाहे वे शारीरिक रुप से आप पर निर्भर करने वाले आपके परिवारीजन हों या समाज के लोग।बच्चों का,वृद्धों का और बीमार लोगों का इस समय सभी को बहुत ध्यान रखना होगा।
अंत में मैं इस मुश्किल समय से सबके निकलने की प्रार्थना प्रभु से करती हूं।इस महामारी ने जिन लोगों को इस दुनिया से दूर कर दिया है उनकी आत्मा की शांति के लिए भी प्रभु से प्रार्थना है।आज जो मजदूर भाई इस तरह से हादसे का शिकार हुए उनके लिए भी ईश्वर से प्रार्थना है कि उनकी आत्मा को शांति मिले तथा उनके घर वालों को भी ईश्वर सब्र दें।मेरे सभी पाठकों से मेरा निवेदन है कि इस समय बहुत ज़्यादा भविष्य का सोचकर अपने को परेशान न करें।हम जियेंगे तो भविष्य भी रहेगा और हम तभी जी पाएंगे जब तन और मन से स्वस्थ रहकर राष्ट्र निर्माण में अपना सहयोग देंगे।कबीरदास जी की बानी अंत में दूंगी जो आज के माहौल में बहुत ही सटीक बैठती है-
“कबिरा सोच न साचिये जो आगे कू होय।
सीस चढ़ाए पोटली ले जात न देख्या कोय।।
सच में सोचना किस बात का ?सिर पर रखकर तो कुछ ले नहीं जाना है सब यही रह जाएगा।

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