संत कवि कबीरदास, मलिक मोहम्मद जायसी,तुलसीदास,छायावाद के प्रवर्तक कवि जयशंकर प्रसाद और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी मेरे सबसे प्रिय कवि रहे हैं परंतु इसका यह मतलब कदापि नहीं कि बाकी के कवि कहीं से भी कम हैं।हमारा हिंदी साहित्य इतना समर्थ है कि एक से एक रचनाकार और उनकी रचनाएं हैं।
लेकिन पता नहीं क्यों इन पांच कवियों से मुझे विशेष लगाव है और इनकी सभी रचनाएं मेरे दिल के बहुत करीब हैं और इन्हें पढ़ना,सुनना मुझे बहुत अच्छा लगता है।इसलिए आज मैं एक छोटा सा लेख जायसी जी पर लिख रही हूं।
आज के हालातों को मैं जब देखती हूँ तो कबीर और जायसी इतने प्रासंगिक लगते हैं कि उनकी रचनाओं को पढ़कर ऐसा लगता है जैसे उन्होंने आज ही बैठकर इन हालातों पर अपनी रचना लिखी है।प्रासंगिक होना,सामयिक होना,किसी भी रचनाकार की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है लेकिन फिर एक दिक्कत है कि कबीर और जायसी जैसे रचनाकारों को शब्दों या समय की सीमा में बांधा ही नहीं जा सकता।इन पर जितना लिखो,जितना बोलो,कम ही है।
आज अपने देश में ही मैं देखती हूँ कि ज़रा सी भी कोई बात हो जाए तो तुरंत एक दूसरे धर्म पर आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो जाता है।समस्या तो वहीं रह जाती है और लड़ाई-झगड़े होने लग जाते हैं।
जायसी ने प्रेम-भावना के माध्यम से हिन्दू-मुस्लिम एकता की समस्या को मधुरता,कोमलता और काव्यमयता के साथ रखा।हिन्दू और मुसलमानों के आंतरिक भेद-भाव को मिटाने वालों में जायसी का नाम सबसे आगे है।उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम संस्कृतियों को अपनाते हुए एक हिन्दू प्रेम कथा द्वारा आध्यात्मिक तत्व की अभिव्यंजना की और अवधी भाषा को ‘पद्मावत’ के रूप में एक ऐसा महाकाव्य प्रदान किया ,जो ‘रामचरित मानस’ के बाद हिंदी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य होने का गौरव रखता है।
यही पर मैं एक बात और कहना चाहूंगी कि कुछ वर्ष पहले जब पद्मावत फ़िल्म आई थी तो उसको लेकर भी बहुत विवाद हुए थे लेकिन हमारे देश मे ‘विवाद के लिए विवाद’ की प्रथा चल पड़ी है।वैसे अगर किसी ने भी इस महाकाव्य का थोड़ा अध्ययन किया होता तो इतना बवाल मचता ही नहीं क्योंकि हर कलाकार अभिव्यक्ति की आज़ादी रखता है और इसके लिए वह थोड़ा बहुत कल्पना और अपने कौशल का सहारा तो लेता ही है क्योंकि कल्पना के बिना पुनर्निर्माण सम्भव ही नहीं और पद्मावत फ़िल्म भी कहीं न कहीं जायसी की रचना का फ़िल्म निर्माण या पुनर्निर्माण ही है।पद्मावत के कथानक में इतिहास और कल्पना का सफल समन्वय हुआ है।इस महाकाव्य का शुरुआती भाग काल्पनिक और उसके बाद का ऐतिहासिक है।इस महाकाव्य की नायिका रानी पद्मावती का सौंदर्य वर्णन सुनकर राजा रत्नसेन के योगी बनकर सिंहलद्वीप जाने और रानी पद्मावती को लेकर चित्तौड़ तक लौटने की कथा काल्पनिक है लेकिन उसके बाद राघवचेतन के देश निकाले से लेकर अंत तक की कथा ऐतिहासिक है।
‘पद्मावत’ महाकाव्य फ़ारसी प्रेम-परंपरा का काव्य है।सूफी प्रेम पद्धति में लौकिक प्रेम के द्वारा अलौकिक प्रेम की व्यंजना होती है।सूफी प्रेम-साधना के अनुसार ईश्वर एक है, आत्मा उसका बंदा है।यह बंदा प्रेम के सूत्र में बंधकर ईश्वर तक पहुंचने का प्रयत्न करता है।इस महाकाव्य में रानी पद्मावती और राजा रतनसेन की लौकिक कथा के साथ-साथ अलौकिक कथा भी चली है, जिसके अनुसार रानी पद्मावती ब्रह्म है।उसका सौंदर्य सामान्य न होकर अलौकिक है।राजा रत्नसेन जीव का प्रतीक है और उसे पद्मावती की प्राप्ति ‘जीव को ब्रह्म’ की प्राप्ति है।
क्योंकि ‘पद्मावत’ सूफी काव्य परंपरा में लिखा गया काव्य है इसलिए लौकिक के साथ जब इस अलौकिक कथा को हम समझते हैं तभी इस महाकाव्य को पढ़ने या सुनने का असली मज़ा आ सकता है और यही भूल शायद हम कर जाते हैं इसीलिए कभी हमें लगता है कि इस महाकाव्य में रानी पद्मावती का अपमान हुआ या कुछ स्थानों पर अश्लीलता के आरोप भी लगाए जाते हैं जो कि पारलौकिक अर्थ के साथ एकदम सटीक बैठते हैं।पद्मावती के सौंदर्य का हीरामन तोते से वर्णन सुनकर राजा रत्नसेन उसके लिए उसी प्रकार आकुल हो जाते हैं, जिस प्रकार गुरु से ज्ञान पाकर जीव ब्रह्म से मिलने को आकुल हो जाता है,वह किसी भी कठिनाई से विचलित नहीं होता।राजा रत्नसेन सिंहल को चल देते हैं।यह जीव का ईश्वर की ओर बढ़ना है।जायसी ने मार्ग के जिन कष्टों का वर्णन किया है वह परमात्मा की प्राप्ति में साधक के साधना-पथ में आने वाले कष्ट हैं।वास्तव में रत्नसेन को पद्मावती तक पहुंचाने वाला प्रेम,जीवात्मा की ईश्वर प्राप्ति की साधना है।जायसी ‘पद्मावत’ महाकाव्य का कथानक समाप्त करते हुए कह ही देते हैं कि मैंने अपनी पद्मावत की कहानी सुनाकर पंडितों से उसका अर्थ पूछा तो सभी ने कहा कि हमें तो इसमें एक सामान्य प्रेम-कथा के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं पड़ता।इसपर जायसी ने ‘पद्मावत’ की कथा को एक आध्यात्मिक रूपक कह दिया और यह भी कह दिया कि इस रूपक के रूप में इस प्रेम-कथा को विचारना चाहिए, जो इसे समझने की शक्ति रखे, समझ ले।
” मैं एहि अरथ पंडितन्ह बूझा।कहा कि हम्ह किछु और न सूझा।।
चौदह भुवन जो तर उपरांही।ते सब मानुष के घट माहीं।।
तन चितउर,मन राजा कीन्हा।हिय सिंघल, बुधि पदमिनी चीन्हा।।
गुरु सुआ जेइ पंथ देखावा।बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा।।
नागमती यह दुनिया-धंधा।बाँचा सोइ न एहि चित बंधा।।
राघव दूत सोइ सैतानु।माया अलाउदीन सुलतानु।।
प्रेम-कथा एहि भांति बिचारहु।बूझि लेहु जो बूझे पारहु।।”
मलिक मोहम्मद जायसी जी ने प्रेम के मार्ग की प्रशंसा करते हुए लिखा-
“तुरकी, अरबी, हिन्दुई, भाषा जेती आही।
जेसि मह मारग प्रेम कर सबै सराहे ताहि।।”
आज के समय मे जायसी जी पर पुनः चिंतन,अध्ययन होना बहुत आवश्यक है इसलिए मैं समय समय पर जायसी जी की रचनाओं पर और लेख अपने ब्लॉग में प्रकाशित करती रहूंगी।
प्रेम-कथा एहि भांति बिचारहु।बूझि लेहु जो बूझे पारहु।
सुंदर लेख के लिये बधाई 💐