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दक्षिण भारत में हिन्दी साहित्य

आप सभी को ,वैश्विक पटल पर हिंदी के विशेष उत्सव,’विश्व हिंदी दिवस’ की हार्दिक शुभकामनाएं।
10 जनवरी 2006 से इस दिवस को मनाया जा रहा है।इसका मुख्य उद्देश्य हिंदी को अंतरराष्ट्रीय भाषा का दर्ज़ा दिलाना और प्रचार-प्रसार करना है।साथ ही हिन्दी को जन-जन तक पंहुचाना है।
हमारे देश की सभ्यता एवं संस्कृति की यही तो विशेषता है कि यहां हर पांच कोस पर बोली बदल जाती है, हर प्रान्त की अपनी अलग अलग वेशभूषा ,खान-पान और रीति रिवाज हैं परंतु फिर भी इस विभिन्नता में भी एकता हमेशा बनी रहती है, जो हमें विश्व के सभी देशों से अलग करती है।हमारा देश अपने आप में एक विशिष्ट एवं एकीकृत सभ्यता है, जिसकी गहन मतभेदों का समाधान करने,विभिन्न संस्कृतियो,संप्रदायों और दर्शनों के साथ रचनात्मक संबंध स्थापित करने तथा मानवता की कई विविध धाराओं को समाहित करने की क्षमता सिद्ध हो चुकी है।
भाषा के नाम पर आज देश जिस स्थिति में खड़ा है उसे कभी भी उत्साहजनक नहीं कहा जा सकता।इसमें कोई शक नही कि सारी दुनिया में हमारा देश बेजोड़ है परंतु राजभाषा के प्रश्न पर हम बाकी के देशों से बहुत पीछे हैं।
हमारे मन मे दक्षिण के राज्यों को लेकर हमेशा एक प्रश्न रहता है कि वहाँ हिंदी का प्रयोग क्यों इतना कम है? या हिंदी भाषा और साहित्य की वहां क्या दशा है?
मेरे पाठक दक्षिण भारत के भी शहरों में है इसलिए मुझे लगा कि अपने कार्यक्रम में “दक्षिण भारत मे हिंदी साहित्य” इस विषय पर एक संवाद होना चाहिए और यह हमारा सौभाग्य है कि हमें बंगलुरू के दो ऐसे साहित्यकारों को अपने कार्यक्रम में बुलाने का अवसर मिला जिन्होंने दक्षिण भारत मे रहकर भी हिन्दी पर अपनी अच्छी पकड़ रखी है।
डॉ. श्री लता सुरेश जी, दक्षिण भारत में हिंदी से जुड़ा एक ख़ास व्यक्तित्व हैं।शिक्षिका होने के साथ साथ दक्षिण भारत मे हिंदी साहित्य को स्थापित करने में उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई है।आप लेखिका एवम कवयित्री होने के साथ-साथ वॉइस ओवर कलाकार, टी. वी.एंकर एवं एक प्रशिक्षिका भी हैं।अनगिनत संस्थाओं से जुड़ी होने के साथ साथ दक्षिण में हिंदी साहित्य को जोड़ने के लिए आपने ओडेसी टॉक शो के माध्यम से हिंदी साहित्य की जानी-मानी हस्तियों को एक मंच पर जोड़ने का कार्य किया है।तो आइए जानते हैं उन्हें जो दक्षिण का,हिंदी साहित्य से परिचय करवाने में एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं।
इसी कड़ी में हमारे दूसरे मेहमान भी मेरे लिए बहुत आदरणीय हैं, क्योंकि उनका आशीर्वाद भी ‘चुभन’ पर हमेशा ही रहा है और मुझे हमेशा उनसे मार्गदर्शन मिलता है।अजय ‘”आवारा” जी से मेरे पाठक परिचित ही होंगे।आप मूलतः उत्तर भारत से हैं लेकिन काफी समय से दक्षिण भारत मे प्रवास के कारण वहां की संस्कृति एवं साहित्य का आपने बारीकी से अनुशीलन किया है और अपने प्रयासों से हिंदी भाषा एवं साहित्य के उत्थान में भरपूर योगदान दिया है।
आज सोशल मीडिया ने भौगोलिक दूरियों को लगभग समाप्त ही कर दिया है और इनके माध्यम से हम देश ही क्या विदेशों से भी जुड़े रहते हैं।अजय आवारा जी भी इस कार्य को बखूबी अंजाम दे रहे हैं और उनकी ‘कलम’ संस्था दक्षिण भारत को देश के अन्य राज्यों से जोड़ने में अपनी महती भूमिका निभा रही है।आप जैसे लोगों के प्रयासों से ही दक्षिण भारत के साहित्य से हम उत्तर भारत के लोग परिचित हो रहे हैं।मुझे भी इस कार्य को करने के लिए अजय जी ने ही प्रेरित किया और आपके प्रयासों से ही हम दक्षिण भारत के भाषा एवं साहित्य को इतना नज़दीकी से देख सुन सकेंगे।
दोस्तों अजय ‘आवारा’ जी द्वारा लिखित एक लेख प्रकाशित कर रही हूं,जिसमें आपने दक्षिण भारत मे हिंदी साहित्य की स्थिति पर बहुत ही रोचक बातें लिखी हैं।

“दक्षिण भारत में हिन्दी साहित्य”-अजय आवारा जी की ‘कलम’ से-

शायद ही कोई इस बात से असहमत हो, कि हिंदी साहित्य, आज विश्व पटल पर ध्रुव तारे की भांति अपना विशिष्ट स्थान बना चुका है। हजारों वर्षों से हिंदी साहित्य ने, पूरे विश्व एवं मानव जाति का मार्गदर्शन किया है। विश्व पटल पर इस ऊंचाई को छूने के बाद भी, कुछ चुनौतियां हिंदी साहित्य के लिए आज भी बाकी रह गई हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं, कि हिंदी साहित्य ने चुनौतियों से लड़ते हुए सदैव अपनी श्रेष्ठता साबित की है।
परंतु, यह असमंजस की बात है, जिस साहित्य ने पूरे विश्व को अपने कदमों में झुका दिया, उसे अपने ही देश में, अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है।
अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार के अलावा, अहिंदीभाषी क्षेत्रों में, आम मानस के हिंदी से न जुड़े होने के कारण हिंदी साहित्य का दक्षिण में अपने पैर जमाना, पानी पर लकीर खींचने से कम नहीं रहा। इसके अनेक कारणों में एक मुख्य कारण तो हमारी संस्कृति की विविधता ही है। एक तरह से हमारी संस्कृति की खूबी ही, इसके प्रचार-प्रसार में आगे आकर खड़ी हो गई है।
यह हमारे लिए गर्व की बात है, कि हमारी क्षेत्रीय भाषाओं का साहित्य इतना समृद्ध है कि उन्होंने साहित्य में न सिर्फ अपनी श्रेष्ठता साबित की है, बल्कि एक दिशा सूचक बन कर भी उभरे हैं। दक्षिण भारतीय भाषाओं का साहित्य इतना समृद्ध है, कि उन्होंने स्वयं को हिंदी के समकक्ष, एवं कहीं-कहीं तो उससे उच्च स्तर की श्रेष्ठता भी स्थापित की है। जहां तमिल को विश्व की सबसे पुरानी भाषा होने का सम्मान प्राप्त है, वहीं कन्नड़ ने, सबसे अधिक साहित्य अकादमी पुरस्कार जीतकर अपने आप को उच्च स्तर पर स्थापित किया है।
ऐसे में दक्षिण के अहिंदी भाषी जनमानस को हिंदी से जोड़ना, एक अच्छी खासी चुनौती है। और हिंदी अपने ही देश में, एक परदेसी भाषा बन कर रह गई है।
यह एक सकारात्मक भाव ही है, कि इतनी अड़चनों के बाद भी, अहिंदी भाषी क्षेत्रों में, हिंदी ने अपनी खुशबू फैलाई है। यह हिंदी के लिए किसी पर्वत विजय से कम नहीं। दक्षिण भारत में, हिंदी ने अच्छी खासी संख्या में उच्च कोटि के अहिंदी भाषी हिंदी लेखक दिए हैं। इस क्रम में, अभी तो इस खुशबू से, बहुत से अंकुर फूटने बाकी है।
हमारा सीना, इस बात से और चौड़ा हो जाता है, कि इस अहिंदी भाषी क्षेत्र ने इतने उच्च स्तर के हिंदी साहित्यकार दिए हैं, जिनके सामने हिंदी के गृह प्रदेश के लेखक भी नतमस्तक हो जाएं।
इन साहित्यकारों का बहुभाषी ज्ञान, वास्तव में हिंदी के लिए वरदान साबित हुआ है। उनकी दूरदर्शिता का परिणाम यह हुआ कि, हम दक्षिण के उत्तम साहित्य को स्वर्णिम हिंदी से जोड़ पाए हैं। इन साहित्यकारों के उत्कृष्ट अनुवादों ने, दोनों साहित्य को इस तरह जोड़ दिया जैसे ज्ञान की गंगा और कावेरी साथ-साथ बहने लगी है। इससे उत्तम बात क्या हो सकती है कि साहित्य की दो धाराएं हमें असीमित ज्ञान के सागर की ओर ले जा रही है।
मेरा सौभाग्य है कि मुझे उत्तर एवं दक्षिण भारत, दोनों तरफ के हिंदी साहित्यकरों को पढ़ने एवं सुनने का अवसर प्राप्त हुआ है। मुझे यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, कि दक्षिण में हिंदी साहित्य नें अनुसरणीय स्तर स्थापित किया है। शायद यह ज्ञान के दो धाराओं में डुबकी लगाने का ही परिणाम है। दक्षिण भारत के हिंदी साहित्य ने हमें ना सिर्फ दोनों साहित्यों का निचोड़ दिया है, बल्कि उत्तर की मिट्टी को स्वयं में आत्मसात भी किया है। दक्षिण के हिंदी साहित्य ने राष्ट्रीय एकता का एक उत्कृष्ट उदाहरण सबके सामने प्रस्तुत किया है। अगले कुछ कार्यक्रमों में हम दक्षिण में हिंदी के लहराते परचम को भी देखेंगे, साथ में दक्षिण भारतीय भाषाओं की गौरवपूर्ण उपस्थिति से भी दो-चार होंगे।

6 thoughts on “दक्षिण भारत में हिन्दी साहित्य

  1. अजय सर और मैडम श्रीलता जी की कविताएं बहुत अच्छी लगीं।

  2. सराहनीय एवं सार्थक बहस।ठीक ही कहा गया कार्यक्रम में कि यह सभी क्षेत्रीय भाषाएं यदि बेटियां हैं तो हिन्दी उनकी मां है।आवश्यकता इस बात को सिर्फ कथनी से करनी में बदलने की है।

  3. भावना आप बधाई की पात्र हैं।मैं आपको तब से सुन रहा हूँ जब आप आकाशवाणी से कार्यक्रमों को देती थीं और वहां भी हमेशा आपके कार्यक्रम सराहे जाते थे।आप हमेशा आगे बढ़ें यही कामना है।
    दक्षिण से जुड़े दोनों साहित्यकारों को भी बहुत बहुत साधुवाद कि उन्होंने उत्तर-दक्षिण को जोड़ने का सार्थक प्रयास किया

  4. ऐसे टॉक शो आज समय की ज़रूरत हैं लेकिन हमलोग हिंदी को आत्मसात करें न कि जैसा कि कार्यक्रम में वक्ता ने कहा कि उसे एक किसी दिन विशेष का उत्सव मानकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लें।

  5. उत्तर व दक्षिण के साहित्यकारो से परिचर्चा व अपनी मातृभाषा हिंदी पर वार्ता अपने आप में सुखद अहसास कराती हैं। बेहद खूबसूरत प्रस्तुति 👌👌

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