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विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय

“सिर नीचा कर किसकी सत्ता,सब करते स्वीकार यहां।
सदा मौन हो प्रवचन करते, जिसका वह अस्तित्व कहां ?”

                                   – जयशंकर प्रसाद

इस चराचर विश्व का नियमन करने वाली उस ‘अज्ञात’, ‘अव्यक्त’ परम सत्ता की खोज मानव-मन चिरकाल से करता आया है।उसे उस अज्ञात सत्ता का आभास तो हुआ, परंतु वह निश्चित रूप से यह नहीं जान सका कि वह कौन है? उसका स्वरूप क्या है? अपने इस अज्ञान से संकुचित और उस सत्ता के आभास से आश्चर्य चकित हो वह जिज्ञासा के स्वर में पुकार उठा-

“हे अनंत रमणीय? कौन तुम? यह मैं कैसे कह सकता।
कैसे हो? क्या हो? इसका तो, भार विचार न सह सकता।।”

मानव ने सृष्टि के आदि से अब तक जिस वस्तु की आकांक्षा की है, उसे प्राप्त करके रहा है, परंतु उसकी शक्ति ‘ब्रह्म’ के समीप आकर कुंठित हो उठी है-

“पाना अलभ्य जग की यह कैसी अभिलाषा।
है ब्रह्म अप्राप्य इसी से सब करते उसकी आशा।।”

इसी अप्राप्य ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए मानव-हृदय और मानव-मन चिंतन करता आया है लेकिन फिर भी यह अप्राप्य ब्रह्म आज तक हम सब के लिए रहस्य ही बना हुआ है।
इस रहस्य को जानने का मन हम सभी का होता है इसीलिए आज हमने चुभन पर एक ऐसे व्यक्तित्व को आमंत्रित किया है, जिन्होंने शास्त्रों की विज्ञान के द्वारा व्याख्या की है और किसी भी धर्म का उल्लेख न करते हुए सिर्फ उसका संदर्भ देते हुए उन बातों को विज्ञान द्वारा सिद्ध करने का सफल प्रयास किया है।आप हैं डॉ. सी.के. भारद्वाज जी ,जो पिछले 27 वर्षों से इसी कार्य में लगे हुए हैं।
डॉ. भारद्वाज जी ने प्राइमरी, सैकंडरी और उच्च शिक्षा के विकास और उन बातों के क्रियान्वयन के लिए अनुसंधान कार्य किये तथा यूनेस्को और विभिन्न शिक्षा बोर्ड जैसे CBSE, NCERT और AICTE के साथ मिलकर कार्य किया।
आपने इस विषय को लिया कि फिलॉसफी के आधार पर हमारी साइकोलॉजी बनती है और साइकोलॉजी के आधार पर हमारा व्यवहार बनता है।अगर सबका व्यवहार अलग- अलग हो जाए तो गड़बड़ हो जाती है और आज के समय में यही तनाव हो रहा है।सबका एक दूसरे से टकराव है।सारी दुनिया लड़-मर रही है।किसी को भी पता ही नही कि धर्म क्या है? परमात्मा क्या है, हमारा शरीर कैसे बना, ब्रह्मांड कैसे बना, मन क्या होता है, आत्मा जो मृत्यु के समय शरीर छोड़ जाती है, वह क्या होती है? यह सारे प्रश्न हमारे लिए अनुत्तरित ही रहते हैं।ज्ञान का इतना बड़ा भंडार उपलब्ध है, फिर भी हमें नही पता।
भारद्वाज जी बताते हैं कि विज्ञान ने छलांग लगाई है और देखा कि कुछ तो है जो परे की चीज़ है और अभी तो वह खोज शुरू हुई है।आपका कहना है कि एक शक्ति है जो सब कुछ चला रही है, जिसे हम ईश्वर कहते हैं, लेकिन वह क्या है?यही हमें जानना पड़ेगा।हम कौन हैं और हमारा उससे क्या संबंध है?इन बातों को आपने बहुत अच्छे से हमलोगों तक पहुंचाया है।आप कहते हैं कि जैसे हमारी उंगली हमारे शरीर का अंश है, उसी तरह हम उस ब्रह्मांड का अंश हैं।हमारे अंदर भी वही जीन है जो ब्रह्मांड में है।जो परमात्मा है ,वह हमारे अंदर आत्मा के रूप में विद्यमान है।हमारी आत्मा का बाहरी स्वरूप हमारा ध्यान है।ध्यान एक प्रकाश के कण के बराबर है, जो सभी दिशाओं में देख सकता है।उसमें कुछ भी कर देने की क्षमता है क्योंकि हर प्राणी यहां परमात्मा का ही प्रतिनिधित्व कर रहा है क्योंकि आत्मा सभी मे विराजमान है।
इन बातों का हमारे शास्त्रों में भी प्रमाण है।सृष्टि के आरंभ की जो कथा हमारे शास्त्रों में वर्णित है, उसमे यही तो है।परमात्मा की इच्छा हुई कि वह एक से अनेक बने –

“एको अहं बहु स्याम्”

एक से अनेक होने पर इस सृष्टि का निर्माण हुआ, किंतु अनेक होने के बाद भी उसके एकत्व में कोई अंतर नहीं पड़ा।जैसे कोई बीज एक होता है, किंतु समय पाकर एक से अनेक हो जाता है।पहले अंकुर फूटता है, फिर तना, डालियां, पत्ते, फूल, फल और अंत में बीज रूप में वह अनेक हो जाता है, किंतु हर बीज उस पूर्व बीज के ही समान है।उसमें भी अनेक होने की पूरी संभावनाएं हैं।जैसे अंकुर, तना या डालियां ,फूल आदि सभी उस बीज में से ही निकले हैं पर वे बीज नही हैं इसी प्रकार ब्रह्म से ही जड़ जगत, वृक्ष, पशु, पक्षी आदि हुए हैं पर वे ब्रह्म के एकत्व का अनुभव नहीं कर सकते, केवल मानव को ही यह सामर्थ्य है कि वह फूल की तरह खिले, फिर उसमें भक्ति व ज्ञान के फल लगें और उसके भीतर ब्रह्म रूपी बीज का निर्माण हो सके।
इन सारी बातों को भारद्वाज जी ने विज्ञान के द्वारा सिद्ध करने का प्रयास किया है और पिछले 27 सालों से अनवरत इस कार्य में संलग्न हैं।उनके साथ हुई सारी बातों को सुनने के लिए चुभन के पॉडकास्ट पर जाएं।

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