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कश्मीरी पंडित : शरणार्थी अपने देश में

जम्मू-कश्मीर में जो भी हुआ या हो रहा है, उसके बारे में हम सभी कुछ न कुछ जानते ही हैं परंतु यह भी अटल सत्य है कि जो भी परिस्थितियां बनीं और आज तक कायम हैं, उसमें हमारी भी गलतियां हैं।कश्मीर क्या था और क्या बन गया है, यह तो किसी से भी छुपा नहीं है।
कश्मीर से अब तक लाखों कश्मीरी पंडित अपना घर- बार छोड़ कर अलग-अलग स्थानों पर रहने को विवश हुए।उस समय हुए नरसंहार में सैकड़ों पंडितों का कत्लेआम हुआ।पाकिस्तान की सेना और आई एस आई ने मिलकर कश्मीर में दंगे कराए और यह सिलसिला आज तक जारी है।पहला कार्य जो इन लोगों के द्वारा किया गया, वह यह था कि मस्जिदों की संख्या बढ़ाई गई, दूसरा कश्मीर से गैर-मुस्लिमों को भगाया और तीसरा कार्य यह किया कि बगावत के लिए तैयार किया।

कश्मीर में आतंकवाद के चलते लगभग सात लाख से अधिक कश्मीरी पंडित विस्थापित हो गए।इस दौरान हज़ारों कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतार दिया गया।

कश्मीरी पंडितों का दर्द तो बस वे लोग स्वयं ही समझ सकते हैं क्योंकि हम सब लोग शायद अपने आप में इतना खो चुके हैं कि बहुत सी बातें या दुख हमें व्यथित तो कर देते हैं लेकिन हम कुछ कर पाने की क्षमता ही नहीं रखते, जो महसूस करे वही समझ सकता है।वरना भाषण देकर राष्ट्रीय एकता की बातें करना बहुत आसान है।

वहां से उजड़े लोगों का दर्द देखकर मेरी आंखों के सामने विभाजन (1947 भारत-पाक) के समय के चित्र जीवन्त हो उठते हैं, परंतु वह एक बहुत बड़ी दुर्घटना थी।एक देश के दो टुकड़े हो रहे थे, इसलिए गलत ही सही, ऐसा माहौल बना और हमें सहना पड़ा परंतु आज यह सोचना आवश्यक है कि अपने देश में ही क्यों कश्मीरी पंडित शरणार्थी बनने को विवश हैं।उनका दर्द तो किसी ने महसूस ही नहीं किया क्योंकि यदि किया होता तो आज वहां की यह हालत न होती।मैं कोई राजनीतिक विषयों की विशेषज्ञ नहीं हूं, न ही कोई राजनीतिक व्यक्ति हूं, बल्कि एक आम इंसान के तौर पर मेरा यह सोचना है कि जब 90 के दशक में यह सब शुरू हुआ और कश्मीरी पंडितों पर अत्याचारों की पराकाष्ठा हो गई तो उसी समय राजनीतिक स्तर पर भी और हमारी इन तथाकथित सिविल सोसाइटी ने भी क्यों नहीं उनके साथ खड़े होकर उन्हें बेघर होने से रोका ? उस समय लोग इस तरह अपने घरों से भागे थे कि सामान इधर-उधर बिखरे पड़े थे, गैस स्टोव पर देगचियां और बर्तन बिखरे हुए थे।लोग अपने पुश्तैनी घरों के दरवाजे खुले छोड़ कर ही भागने को मजबूर हुए थे।अपनी जड़ों से उखड़ कर रहने को विवश हुए ये लोग आज भी किन हालातों में होंगे, इसे तो सिर्फ वे ही समझ सकते हैं।अपनी यादों को, अपने घरों की एक-एक छोटी से छोटी चीज़ों को, गलियों को, उन रास्तों को, वहां जन्म से बिताए पलों को कैसे कोई एक झटके में भुला सकता है ? यह सब कुछ तो एक-एक रोम में बस जाता है और सदियों तक याद रहता है।

यह त्रासदी किसी एक परिवार की न होकर सामूहिक त्रासदी है।ऐसी बातें सोचकर मन बोझिल सा हो जाता है और ईश्वर से यही दुआ मांगता है कि ऐसे हालात अब खत्म हों।ईश्वर किसी को भी उसकी जड़ों से उखड़ने को मजबूर न करें क्योंकि चाहे झोपड़ी हो या महल अपना घर छोड़ना कितना दुखदाई है, इसका एहसास ईश्वर अब किसी को भी न कराएं।

उस समय के चश्मदीद लोगों के संस्मरण सुनकर पता चलता है कि वे लोग हिंसा, आतंकी हमले और हत्याओं के माहौल में कैसे जी रहे थे।ऐसी ही एक शख्सियत, जिन्होंने इस दर्द को न सिर्फ देखा, बल्कि भोगा भी, उनसे मैंने ‘चुभन पॉडकास्ट’ पर बातचीत की।आप हैं डॉ. महेश कौल।आप Indian Council of Philosophical Research, (ICPR) शिक्षा मंत्रालय नई दिल्ली, जो कि श्री अरबिंदो और कश्मीर शैविज्म पर कार्य कर रहे हैं, में पोस्ट डॉक्टोरल फेलो हैं।

आपके शोध-कार्य का विषय ‘Marketing Strategies for Promoting Heritage Tourism in Jammu Region’ था।
आपके कई शोध-पत्र एवं लेख राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय जर्नल्स में प्रकाशित हो चुके हैं।वे कई शोध संस्थाओं की सलाहकार समिति के सदस्य भी हैं।आजकल वे अपनी चार पुस्तकों के लेखन कार्य में व्यस्त हैं।दिसंबर 2019 में आपकी पुस्तक जिसका शीर्षक ‘Jammu & Kashmir Breaking the Subversive web & A Way Forward’ है, प्रकाशित हो चुकी है।

आपके साथ हुए इस संवाद को चुभन पॉडकास्ट पर सुनें।

One thought on “कश्मीरी पंडित : शरणार्थी अपने देश में

  1. नमस्कार
    महेश कौल जी और भावना जी को
    मैं स्वर्ण ज्योति पॉण्डिचेरी से

    आपका संवाद सुना। महेश कौल जी के प्रति मन आदर से भर गया। विद्या विनयं ददाति उक्ति को चरितार्थ करते हुए उनकी वाणी और उनकी वार्ता रही।
    उनकी आप बीती, उनकी शिक्षा के प्रति आसक्ति, उनका संघर्ष सभी सुनकर कई भाव जागृत हुए ।
    कभी दिल दहल उठा तो कभी क्रोध से भर उठा।
    लड़कियों को छेड़ने के वाक्य….उफ्फ कितना जलील करते थे। घृणा सी हो गई
    टेंट में रहना फिर भी शिक्षा के प्रति ललक आदर से भर गया मन
    कवि वाणी में कहूँ तो नौ रसों का अनुभव संवाद के जरिए हो गया।

    सबसे प्रभावशाली रहा
    जब भावना जी ने पूछा कि हमारी संस्कृति पर ही क्यों चोट की जाती है तब महेश जी का जवाब अत्यंत सटीक और प्रभावशाली लगा। हमारी संस्कृति पानी की संस्कृति है। महाभारत की भाँति ही कुरान भी हमारा इतिहास है। परमार्थिका और व्यवहारिका की व्याख्या के साथ – साथ आप ने बतलाया कि हमारी संस्कृति में आगम – निगम, उपनिषद, वेद, आदि सभी हमारी संस्कृति की पहचान है हमारी संस्कृति बेहद समृद्ध है हम स्वयं अपनी संस्कृति की जानकारी में बहुत क्षीण हैं हम स्वयं अपनी ठोस धरातल पर पैर नहीं जमा सके हैं यही कारण है कि हमारी संस्कृति पर पहले चोट की जाती है ।क्योंकि
    हमारी संस्कृति ही हमारी शक्ति की परिचायक है वही हमारी आत्मा है और आत्म पर चोट कर ही हमें कमजोर बनाने की कोशिश की जाती है ।

    कहने को तो बहुत कुछ है, 370 हटाने के पश्चात भी हालत सुधरने में बहुत समय लगेगा, सरकार को अभी और योजनाएं बनानी होंगी, देश के शरणार्थियों को नागरिक बनाना होगा, आदी आदि परंतु अपनी बात की इस शेर के साथ समाप्त करती हूँ

    तिज़ारत की मंज़िल हमारी नहीं है
    यह आंधी है बागे – बाहरी नहीं है
    जिरह हमने तन से उतारी नहीं है
    अभी बढ़ेंगे हम और आगे बढ़ेंगे

    बहुत बहुत साधुवाद भावना जी को कि उन्होंने एक उम्दा संवाद प्रस्तुत किया। और पुनः महेश कौल जी को सादर नमन।

    स्वर्ण ज्योति

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