Blog कश्मीर के रंग

कश्मीरी विस्थापितों की चुभन : सम्मानजनक वापसी

वक्त के बहाव में कभी-कभी सब कुछ बह जाता है, ढह जाता है और हम टूट कर, बिखर कर रह जाते हैं। ऐसे ही एक बहाव, एक तूफान ऐसा आया कि हमारे देश की संस्कृति का उद्गम स्थल, उसका मुकुट, भारत की शान कहे जाने वाले कश्मीर में ऐसा सब कुछ बदला कि खंडहर से ज्यादा अब वहां कुछ नजर आता ही नहीं, मातम-सा फैल गया है। इतना दर्द,इतनी वेदना का जहां साम्राज्य फैला हो, वहां के लोगों पर क्या बीती होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है और इस दुख की पराकाष्ठा तो यह हुई कि कश्मीर के पंडितों को अपनी जड़ों, अपने घर-द्वार सब कुछ छोड़कर तो आना ही पड़ा और वहां से आकर अपने ही देश में चाहे किसी भी शहर में वे रहे हों, उन्हें शरणार्थी का-सा जीवन जीने को मजबूर किया गया।
कहते हैं न कि दर्द ही जिंदगी का आखिरी सच है, दर्द को आप किसी से भी साझा नहीं कर सकते।अपना अपना दर्द हमें अकेले ही भोगना होता है लेकिन कुछ दर्द ऐसे होते हैं, जो किसी एक या दो या चार के हिस्से ही नहीं आते बल्कि लाखों लोग जिसकी चपेट में आते हैं और पीढ़ियां तक उसका दर्द झेलती रहती हैं। ऐसा ही एक दर्द कश्मीर विस्थापितों का भी है, जिन्होंने तीन दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद आज भी सुकून की सांस शायद नहीं ली है क्योंकि अपनी जड़ों से तो वे उखाड़ दिए गए हैं।सब कुछ गंवा कर भी इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी जीने को मजबूर इन लोगों की व्यथा, दिल को झकझोर कर रख देती है और लगता है कि काश कुछ ऐसा होता कि हम इनके लिए कुछ कर पाते।

भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित चर्चित उपन्यास ‘दर्दपुर’ (2004) की लेखिका क्षमा कौल जी से मैंने एक संवाद किया, जिन्होंने दर्द ही लिखा है क्योंकि दर्द को उन्होंने भोगा है।उनका उपन्यास ‘दर्दपुर’ कश्मीर ही नहीं पूरे भारत के दर्द की कहानी कहता है। ऐसा लेखन, ऐसे कथोपकथन कि एक दृश्य ही हमारे आगे उपस्थित हो जाता है। कश्मीर में जो कुछ भी 1990 के दशक में हुआ उसे मानवीयता से जोड़ कर देखा ही नहीं जा सकता।वह तो हैवानियत की भी हदें पार कर देने वाली घटनाओं से भरा समय था जो कि आज तक कायम है।इस जनसंहार ने, उत्पीड़न ने,शोषण ने क्षमा कौल जी जैसी लेखिका को व्यग्र एवं बेचैन बनाकर अपनी मूक वेदना एवं असह्य पीड़ा को वाणी देने के लिए बाध्य कर दिया। उनका स्वयं का भोगा हुआ दुख-दर्द घनीभूत पीड़ा से ओतप्रोत होकर ‘दर्दपुर’ उपन्यास में छलक उठा है।


मुझे ऐसा लगता है कि कश्मीरी पंडितों का दुख, आज तीन दशक बीत जाने के बाद भी, पूरे देश के सामने आ ही नहीं सका या शायद आने दिया ही नहीं गया और हमने जानने की भी कोशिश नहीं की लेकिन आज जब क्षमा कौल जी जैसी साहित्यकार, उस दर्द को उद्घाटित कर रही है तो हमें उसे जानना चाहिए, समझना चाहिए।
क्षमा कौल जी की ‘दर्दपुर’ के अलावा और भी महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। आपकी ‘समय के बाद’ (डायरी) रचना को 1997 में केंद्रीय हिंदी निदेशालय का राष्ट्रपति सम्मान मिला।
आपका कविता संग्रह ‘बादलों में आग’ (2000) बहुचर्चित व लोकप्रिय रहा। 2014 में प्रकाशित आपका उपन्यास ‘निक्की तवी पर रिहर्सल’ भी काफी चर्चित रहा।
‘No earth under our feet’ (हिंदी कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद) और ’19 जनवरी के बाद’ (कहानी संग्रह) सहित कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं और चर्चित रहीं। आपका ‘मूर्ति-भंजन’ उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य है।

कोई भी रचनाकार मौन के अधीन नहीं जी सकता। आपकी रचनाएं इस बात का प्रमाण हैं। आपने अपने शब्दों से, अपनी लेखनी से मौन को मुखरित किया है।वे कहती हैं कि मेरा युद्ध लेखन से चलेगा।मेरा आयुध, मेरे शब्द और मेरी लेखनी है।सन 1990 से कश्मीर में आतंकवाद और अलगाववाद के चलते अपने ही देश में शरणार्थी बनी रचनाकार क्षमा कौल जी से पूरा संवाद आप मेरे पॉडकास्ट में सुन सकते हैं।

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