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वैलेंटाइन्स डे : सच से कितना दूर, कितना पास

– अजय “आवारा”

परंपरा निभाना अच्छी बात है। इससे समाज में संस्कार आते हैं, परंतु किसी भी संस्कृति की परंपरा को सिर्फ अनुसरण के नाम पर अपना लेना कहां तक उचित है? इस महीने वैलेंटाइन्स डे की धूम रही है। माना जाता है कि यह प्रेमियों का दिन है। मेरे विचार से वैलेंटाइन्स डे की परंपरा को अपनाने से पहले हमें हिंदुस्तानी संस्कृति में प्रेम की अभिव्यक्ति का भी अध्ययन कर लेना चाहिए। हमारी रीतियों और रिवाजों में प्रेम की अभिव्यक्ति, और इसके परिणय तक जाने के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे।

यह सही है, कि नई परंपराओं का जुड़ना, समाज के लिए एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। मेरे विचार से, सर्व धर्म समभाव का अर्थ तो सही है, परंतु हम अपनी परंपराओं को तो दकियानूसी करार दे कर उनका त्याग कर रहे हैं, तो किस आधार पर, हम दूसरे देश की परंपरा को प्राथमिकता देने लगे हैं ? क्या हमने यह जानने की कोशिश भी की, कि वैलेंटाइन डे का आधार क्या है? किसी भी परंपरा के वास्तविक अर्थ को समझे बिना, उसके ऊपरी अर्थ में ही उसका अनुसरण करना, क्या तर्कसंगत है?

वैसे भी, प्रेम को मात्र प्रेमी जोड़े के प्रेम की अभिव्यक्ति तक सीमित कर देना, प्रेम की भावना के साथ अन्याय होगा। क्या प्रेम को सिर्फ एक ही परिप्रेक्ष्य में देखा जाना उचित है? क्यों हम प्रेम के अन्य रूपों को नकार रहे हैं? प्रेम तो अनेक रूप में विद्यमान है। क्या ऐसा करके, हम प्रेम के अंतर रूप को कमतर करके नहीं आंक रहे? मेरे विचार से प्रेम के सभी स्वरूप, समान रूप से अभिव्यक्ति के अधिकारी हैं।

वैलेंटाइन्स डे की पृष्ठभूमि, मूल रूप से, रोम में करीब 2300 साल पहले पाई जाती है। जब वहां के शासकों का यह मानना था, कि विवाह और प्रेम, एक सैनिक के कर्तव्य में बाधक बनते हैं। इसलिए उनके शासन में, एक सैनिक को विवाह करने का अधिकार नहीं था। संत वैलेंटाइन ने उन सैनिकों का विवाह में साथ दे कर एक आंदोलन ही खड़ा कर दिया। परिणाम स्वरूप, उन्हें गिरफ्तार कर मृत्यु दंड दे दिया गया। इस तरह संत वैलेंटाइन ने प्रेम को उसके परिणय तक पहुंचा कर उसकी सार्थकता को स्थापित किया और इसे स्थापित करने में उन्होंने अपना जीवन भी त्याग दिया। उन्होंने प्रेम को, मात्र अभिव्यक्ति तक सीमित नहीं रखा।

क्या हम, प्रेम की अभिव्यक्ति को, सीमित दायरे में बांधकर, संत वैलेंटाइन के बलिदान का अपमान नहीं कर रहे हैं? हम किस आधार पर अभिव्यक्ति का उत्सव मना रहे हैं? जबकि उसे परिणिति तक पहुंचाने का प्रतिशत तो नगण्य है। संत वेलेंटाइन ने प्रेम की जिस अभिव्यक्ति को परिणति तक पहुंचाने में अपना जीवन त्याग दिया, उसे हमने मात्र फैशन, दिखावे एवं स्टेटस सिंबल के टैग के साथ टांग कर उनकी आत्मा को सूली पर ही चढ़ा दिया।

प्रेम की अभिव्यक्ति, चाहे भारतीय संस्कृति में हो, या पाश्चात्य में। परंतु इसके अपमान का अधिकार हमें नहीं है। प्रेम का भाव, ईश्वर का आशीर्वाद है न कि फैशन और दिखावे का संसाधन। प्रेम कीजिए, इसकी अभिव्यक्ति, इसकी खुशबू को फैला देती है। इसे रोकिए मत, परंतु सिर्फ आधुनिकता के नाम पर इसका प्रयोग कर इसे खेल का सामान मत बनाइए। इसे, इसकी परिणीति तक तक पहुंचा कर, इसका सम्मान कीजिए।

आइए, अपनी परंपराओं को भी टटोलें, जो कुरीतियों के बोझ में कहीं दब गई हैं। प्रेम का सम्मान करें, संत वैलेंटाइन का सम्मान करें।

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