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संस्कृति के दो रंग, पहचानो अपना रंग

होली, एक पर्व मात्र नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन भी है।होली के रंग तो एक दिन में उतर जाते हैं।क्या जीवन के रंगों का समावेश हमेशा के लिए नहीं कर लेना चाहिए ?
जाने-अनजाने, हम जीवन के रंगों को दरकिनार करते जाते हैं।पता नहीं क्यों हम चटकीले रंगों पर उदासीन रंगों को हावी होने देते हैं? क्यों न उदासी के रंगों को धोकर मुस्कुराहटों के रंग में खुद को डुबोया जाए? सच में दोस्तों, अगर हम ऐसा कर पाए तो जीवन जीने का तरीका, उसके मायने कुछ और ही हो जाएंगे।शायद हम रंगों की वो लकीर भी छोड़ जाएं जो हमारे पीछे भी हमारी तस्वीर उकेरती रहेगी।
आइये, होली के रंगों को मात्र एक पर्व नहीं, जीवन की संस्कृति बनाएं।

आज के इस रंगभरे पावन पर्व पर, कुछ गीत-संगीत की बात हो जाए।


संगीत की एक लोकप्रिय विधा क़व्वाली का इतिहास लगभग 700 वर्ष पुराना है और हमारे देश सहित पाकिस्तान एवं बांग्लादेश में यह संगीत की एक लोकप्रिय विधा है।कव्वाली का अन्तरराष्ट्रीय स्वरूप नुसरत फतेह अली खान साहब के गायन से सामने आया।हमारे देश के सूफी संतों ने ही इसे लोकप्रिय बनाया, परंतु बहुत दुख होता है, जब हम देखते हैं कि आज इसका स्वरूप उस रूप में नहीं है, जैसा पहले था, अपितु कव्वाली आज इस तरह से गाई जाती है कि उसे सुनकर सुकून मिलना तो दूर, एक दर्द, एक टीस की अनुभूति होती है।
आज “चुभन पॉडकास्ट” पर हमने एक ऐसे कलाकार निसार वारिस साहब को आमंत्रित किया, जो स्वयं तो एक गायक हैं ही और उन्हें मशहूर बॉलीवुड संगीत निर्देशक रविन्द्र जैन जी के साथ काम करने का अवसर मिला।

आपके पिता अब्दुल रज़्ज़ाक साहब एक मशहूर क़व्वाल थे।आपके पूर्वज लगभग 60 साल पहले नाटक कंपनी में अभिनय करते थे।रज़्ज़ाक साहब बनारस चले गए और चांद पुतली क़व्वाल से कव्वाली की शिक्षा ग्रहण की।शीघ्र ही वे एक निपुण क़व्वाल बन गए और हिंदुस्तान के कोने- कोने में कार्यक्रम देने लगे।लगभग 40 वर्षों तक आप बनारस ही रहे।

प्रसिद्ध कव्वाल अब्दुल रज़्ज़ाक साहब।

अब्दुल रज़्ज़ाक जी की सबसे प्रसिद्ध क़व्वाली ‘सीता बनवास’ है।

“राम देखे सिया और सिया राम को
चारो अँखियाँ लड़ी की लड़ी रह गयी।”
“बलम तुम तो होई गइले गुलरी के फुलवा ”
“जैसे गंगा के पानी हिलोर मारे ला”

यह तीनों कव्वालियां रेडियो स्टेशन लखनऊ से प्रसारित की गई,और खूब सराही गयीं।
निसार वारिस साहब ने कार्यक्रम में बताया कि कव्वाली का क्रेज़ कम होने और अपने पिता अब्दुल रज़्ज़ाक साहब के वृद्ध हो जाने के कारण आप मुम्बई चले गए और काम की तलाश में भटकते-भटकते रविन्द्र जैन जी से मिले।उनसे ही आपने संगीत की शिक्षा ली और उनके पास रहकर ही काम करने लगे।आपने सिंगापुर, मलेशिया, ब्रुनेई, दक्षिण अफ्रीका, केप टाउन, जॉन्सबर्ग, जकार्ता, थाईलैंड आदि देशों में कार्यक्रम दिए।
निसार वारिस साहब रविन्द्र जैन को याद करते हुए बताते हैं कि एक बार मैंने उनसे रफी साहब के बारे में पूछा तो उन्होंने दो शब्दों में कहा “लता जी देवी हैं और रफी साहब नेक फरिश्ते”।

संगीत निर्देशक आनंदजी के साथ निसार वारिस।

निसार साहब ने बताया कि उस समय फ़िल्म इंडस्ट्री में कोई हिन्दू मुस्लिम नहीं था, दादा (रविन्द्र जैन) तो उन्हें अपने परिवार का सदस्य मानते थे।
ऐसी ही कुछ खट्टी यादों को निसार वारिस साहब ने ‘चुभन’ पर मेरे और शाबिस्ता जी के साथ साझा किया।पूरा संवाद “चुभन पॉडकास्ट” पर सुनें।

2 thoughts on “संस्कृति के दो रंग, पहचानो अपना रंग

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