कवि की पहचान, कवि की कलम से-
-कमल किशोर राजपूत
सर्वप्रथम सुरक्षित बचपन की संक्षिप्त यात्रा:
भारत की आध्यात्मिक नगरी देवास में जन्मा, पड़ोसी बुआ ने “कमल” नाम रखवाया जो बहुत काम आया, संयोग से कमल भारतीय अध्यात्मवाद का प्रतीक भी है। पंक का कमल के जीवन में विशेष स्थान रहा है। मेरी माँ (जीजी) श्रीमती तुलसी बाई और पिताजी (दादाजी) श्री रामकिशनजी एक मध्यमवर्गीय परिवार से संबन्ध रखते थे।
अपने बचपन का बहुत ही दिलचस्प क़िस्सा है; मुझसे पूर्व पाँच बहनें और दो भाई…. लेकिन दोनों भाई बचपन में ही परलोक सिधार गए। मेरा आठवाँ नम्बर था, मेरी माँ को मेरे भी मर जाने का डर था, इसलिए पाँच वर्ष की उम्र तक मुझे लड़की के भेष में रखा गया, यानि मैंने फ्रॉक पहनी, लंबे-लंबे बालों वाली चोटियाँ रखी, कानों में बालियाँ और पैरों में पायज़ेब पहनी।
माँ और बड़ी बहनों द्वारा बताईं गईं बचपन की वो धुंधली-सी यादें हैं जो आज भी ताज़ा हैं। भाग्यवश मैं बच गया, मुन्ड़न संस्कार समारोह हुआ तब जाकर ये रहस्य खुला कि मैं लड़की नहीं लड़का हूँ। जब भी बचपन की उस दुर्लभ तस्वीर को देखता हूँ तो आश्चर्य होता है कि मैं लड़की की तरह कैसे दिखता था ?
मेरा लड़की से लड़के के परिवर्तन के समय मन:स्थिति क्या रही होगी, यह आज भी मेरी कल्पना से परे ही है। माँ, मुझे अक्सर हिंदू देवताओं, दरगाहों जैसे पूजा स्थलों पर ले जाती थी मेरी सलामती के लिए।
विस्तृत यात्रा का लघु वर्णन:
अपनी लेखनी की पहली पहचान कब हुई उसकी चर्चा ज़रूरी है मेरे लिए। श्री लालबहादुर शास्त्री देश की मिट्टी और आत्मा में डूबे प्रथम प्रधान मन्त्री थे, जिन्होंने मेरी आत्मा को बहुत क़रीब से छुआ था, लेकिन ताशकन्द में जब उनकी अचानक, अजीब हालात में, मौत हुई, उस दिन को मैं कभी भुला नही पाऊँगा, क्योंकि उस दिन मेरा कवि हृदय पहली बार रोया और बहुत रोया था, तब मैं शायद उन्नीस या बीस वर्ष का था, उस दिन दिल के उद्गार या अन्तर की छटपटाहट ख़ुद-ब-ख़ुद उभरी और मुझसे चार-पाँच पृष्ठों का लेख लिखवाया, जिसे मैने अतिप्रिय कवि साहित्यकार श्री नन्दकिशोर सोनी, जो घर के सामने रहते थे सुनाया, उन्होंने बहुत सराहा और मुझे लिखने के लिए आशीर्वाद दिया।
उन्होंने ही बचपन में देश के कई विराट कवियों नाटककारों, उपन्यासकारों को, जिसमें श्री निराला, श्री पन्त, श्री दिनकर, श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान, श्रीमती महादेवी वर्मा, श्री नीरज, श्री बच्चन, श्री माखनलाल चतुर्वेदी, श्री प्रेमचन्द, श्री अज्ञेय, श्री धर्मवीर भारती, श्री मैथिलीशरण गुप्त, आचार्य शुक्ल, श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी इत्यादि इत्यादि की लेखनी से अवगत करवाया। श्री नन्दकिशोर सोनी जी ख़ुद भी उत्कृष्ट शैली के कवि थे। उनके सानिध्य में बहुत मनन किया। उन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया। यह क्रम लम्बे समय तक चला और मैं बैंगलोर आ गया।
उर्दू में मोहतरम ग़ालिब से शुरुआत हुई और महान शायरों शकील, मीर, इक़बाल, मजाज़, फ़ैज़, साहिर, जां-निस्सार अख़्तर को जी भर के पढ़ा, क्योंकि इसके सिवाय मेरे पास दूसरा पर्याय नहीं था वक़्त गुज़ारने का। साईंटिस्ट और साहित्य का रिश्ता बड़ा लम्बा और गहन है मेरे जीवन में जो स्वाध्याय भी बना और शौक भी अन्तत:।
अनुभूति की गहराईयों में मेरा कवि हृदय सदैव झाँकता रहा, कई राज़ छुपे पाये, जो दिखे भी, बजे भी और अन्तर्मन आत्मविभोर होता रहा। मैं ये मानता हूँ कि जीवन रूपी सागर में सतह पे जीने वाला ’आम’ और गहराई में डूबकर जीने वाला ’ख़ास’ बन जाता है, कलाकार बन जाता है, कवि बन जाता है, चित्रकार बन जाता है, दार्शनिक बन जाता है विशेष बन जाता है। जब एहसास की गर्मियाँ अन्तर्मन को तपाती है तब ह्रदय में कुछ ज़रूर होता है, चेतना के शिवालय में ज़रूर घंटिया बजती हैं और उसकी प्रतिध्वनि कविता या कला का माध्यम बनती है।
मेरा ये मानना है कि कविता लिखी नहीं जाती, अपितु कविता अनुभवों की कोख से जन्मती है। यूँ देखा जाए तो प्रकृति की हर कृति स्वत: ही लय-बद्ध है लेकिन जब मानव अपनी पंचशक्तियों और विवेक की वजह से महसूस करके उसे उजागर करता है तो अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार कविता होती हैं। हर व्यक्ति का जीवन ख़ुद ही लम्बी कविता है; छन्दबद्द एवं छन्दमुक्त। सभी इन अनुभवों को महसूस तो करते हैं लेकिन कुछेक उनका भलीभांति चित्रण कर पाते हैं। अनुभूतियों को अगर हृदय का लहू मिल जाए, सही शब्द मिल जाए तो लेखनी लिखवा ही लेती है, ये मेरा विश्वास है।
जो अपने अनुभवों को शब्दों में, चित्रों में, धुनों में बाँध पाते हैं, वे भाग्यशाली होते हैं। वे लेखक, चित्रकार, संगीतज्ञ और कवि बन जाते हैं जिनके माध्यम से जनमानस की संवेदनाएँ प्रतिबिंबित हो प्रकट होती हैं। जब कोई कविता पढ़ता है, संगीत सुनता है, कलाकृति देखता है तो उसके अन्तर्मन में प्रतीति ज़रूर होती है। कविता पढकर अगर पाठक को वह गाथा, वह संवेदना अपनी-सी लगे तो यक़ीनन कविता जी उठती है और वही कविता, कविता कहलाने का सम्मान पाती है। यही बात चित्रों, धुनों और दूसरे माध्यम से रची कृतियों को भी मिलता है।
साइंटिस्ट और फिर आई.टी. की यात्रा के दौरान और ख़ासकर उसके तुरन्त बाद मेरी साहित्यिक यात्रा पूर्णरूपेण शुरू हुई लगभग 2017-18 से जब एक विचार ने कि “अब बहुत हो गया है” याने कि ’Enough is Enough’ के कगार पर लाकर खडा कर दिया। जीवन में एक गुरू की तलाश ज़ारी रही जो 2000 के आसपास अपनी चरम सीमा तक बढ़ी।
इन बीस वर्षों में कई गुरूओं का महत्वपूर्ण सानिध्य हुआ और तभी श्री एम. की वजह से बाबाजी से अन्त:करण में आभास तो हुआ लेकिन साक्षात्कार होना अब तक बाक़ी है। उसी अनबुझ धुन ने कई भजनों, गीतों, ग़ज़लों और नज़्मों को जन्म दिया और ये सिलसिला अभी ज़ारी है। स्वत: का अनुभव है कि जब अन्तर की छटपटाहट सीमाएँ तोडती है तो अन्तर तपता है और तब अन्दर का छुपा हुआ कलाकार बाहर निकलता है, बहुत जद्दोजहद के बाद, अपने लहू की बूंदों में डुबाकर जब लेखनी लिखती है तो वह कविता बनती है, ऐसा मेरा मानना है।
भजनों का सिलसिला; समर्पण और तलाश की पराकाष्ठा ही है। मैं भाग्यशाली हूँ कि माँ सरस्वती का वरद्हस्त बचपन से ही मेरे ऊपर रहा है। बचपन में अपनी माँ जिसे मैं “जीजी” कहता हूँ, उनके गुरू श्री सूरजनाथजी जो नाथ परम्परा के श्री शीलनाथजी महाराज से जुड़े हुए थे, उनके शिष्य थे, उनकी भजन मन्डली का दो तीन महीने में हमारे घर पर आना और भजन गाना मेरे मानस पटल पर ज़रूर अंकित हुआ ही होगा, मेरी माँ भी ब्रह्ममुहूर्त में आटा पीसते हुए रोज़ सुबह लोकगीत गाती थी, शायद वे भी मेरे प्रेरणास्त्रोत बने होंगे।
उन दिनों आज़ादी के पूर्व और उपरान्त देवास महाराजा अपने महल में नवदुर्गा पूजा के उपलक्ष में अनवरत नौ दिनों का भजनों का गायन करवाते थे, ख़ुद भी एक घन्टे अपनी मंडली के साथ गाते भी थे, तब राजबाडा सबके लिए खुला होता था, मुझे भी मेरी बड़ी बहन वहाँ ले जाती थी, छोटा ही था पर अच्छा लगता था आज भी वो भजन मानसपटल पर गुंजायमान है, इसलिए उन लोकगीतों का और उन मधुर धुनों का कालान्तर में प्रादुर्भाव हुआ ही होगा जो मेरे भजनों में ख़ासकर उभरकर आया होगा। इन्हीं कारणों से 108 गज़लों का संग्रह “इल्हाम” प्रकाशित हुआ एवं 108 भजनों “आशीषों की गुड़-धानी दे – भजनांजली -” शीर्षक से प्रार्थनांजली के स्वरूप, ये संकलन आप सबके सन्मुख पहुँचा पाया है। इन भजनों में कई रिकॉर्ड हुए हैं।
ग़ज़लों के दो संग्रह “इल्हाम” (ईश्वरीय प्रेरणा) देवनागरी लिपि में और ग़ज़लों का मजमुआ “रक्से-बिस्मिल” (घायल का नृत्य) उर्दू लिपि में प्रकाशित हुए। “रक्से-बिस्मिल” को मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, संस्कृति विभाग द्वारा 22 मार्च 2022 के अलंकरण समारोह में “शम्भू दयाल सुखन” विशिष्ट पुरस्कार से नवाज़ा गया।
अब क्या भुलूँ क्या याद करूँ क्या बिसराऊँ की स्थिति तो जीवन में बनी रहेगी सर्वदा!
Sabhi ko smjha apna usne
Bna na koi apna Timir ka .
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Thank you so much Bhawna di for bringing such personalities.
Thanks a lot Shraddha ji ????
Reactions keep one feels good and motivates for better????
Thanks wholeheartedly Shraddha Ji 🙏
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Thanks again 🙏