कर्नाटक स्थित मैसूर दक्षिण भारत के ऐतिहासिक और अद्भुत पर्यटन स्थलों में गिना जाता है, जहां हर साल करोड़ों की तादाद में देश-विदेश से पर्यटकों का आगमन होता है। इस शहर का मुख्य आकर्षण यहां का मैसूर पैलेस है, जो अपनी विशालता और भव्यता के लिए प्रसिद्ध है। इसके अलावा भी मैसूर में कई प्राचीन संरचनाएं मौजूद हैं, जिन्हें यात्रा के दौरान देखा जा सकता है। इन सब के अलावा यह प्राचीन शहर अपने हर साल मनाए जाने वाले दशहरे के लिए भी विश्व भर में जाना जाता है। शायद ही ऐसा दशहरा भारत के किसी अन्य कोने में मनाया जाता हो।
मैसूर का दशहरा अपने आप में ही काफी खास है। इस त्योहार का आयोजन नवरात्रि के पहले दिन से ही शुरु हो जाता है, लगभग 10 दिन तक चलने वाले इस त्योहार में लाखों की तादाद में पर्यटको का जमावड़ा लगता है। मैसूर में दशहरे का आयोजन कई सालों से निरंतर किया जा रहा है, और इस साल मैसूर इस भव्य त्योहार की 408 वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है। यह त्योहार दस दिनों तक चलता है, जो नवरात्र के पहले दिन से ही शुरु हो जाता है। अंतिम दिन विजयादशमी का होता है, जो इस त्यौहार का सबसे खास दिन होता है।
डॉ.श्रीलता सुरेश जी स्वयं आज के दिन मैसूर में।
धार्मिक मान्यता के अनुसार इन दिन माँ दुर्गा ने राक्षस महिषासुर का वध किया था, जो बुराई पर अच्छाई का प्रतीक माना जाता है। वैसे तो यह त्योहार पूरे भारतवर्ष, विशेषकर उत्तर भारत में मनाया जाता है लेकिन मैसूर का दशहरा सबसे अलग और अनूठा है। आगे जानिए इस त्योहार से जुड़ी और भी दिलचस्प बातें।
मैसूर दशहरा का आयोजन सबसे पहले 1610 में आयोजित किया गया था। इस त्योहार को यहाँ मनाने की शुरुआत 15वीं शताब्दी में दक्षिण के सबसे शक्तिशाली राजवंश विजयनगर ने की थी। यह त्योहार विजयनगर साम्राज्य के इतिहास में एक अहम भूमिका अदा करता है। उस दौरान त्योहार के साथ-साथ कई विशेष कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता था, जिसमें गायन-वादन, परेड, जुलूस आदि शामिल थे।
महिषासुर से जुड़ा तथ्य यह है, कि मैसूर शहर का नाम राक्षस महिषासुर के नाम पर रखा गया था। महिषासुर पौराणिक काल का एक असुर था। कहा जाता है कि इस दानव का पिता असुरों का प्रमुख था जो जल में रहने वाली किसी भैंस से प्रेम कर बैठा, और इस तरह महिषासुर का जन्म हुआ। इस असुर को कई मायावी शक्तियां प्राप्त थीं, जिनके द्वारा वो किसी भी समय भैंस या इंसान का रूप धारण कर सकता था। महिषासुर दो शब्दों से बना – एक महिष यानी भैंस और दूसरा असुर। बाद में इसके पापों का घड़ा भरने के कारण मां दुर्गा को इसका वध करना पड़ा।
दशहरा का उत्सव देवी दुर्गा द्वारा महिषासुर का वध करने के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है। प्राचीन भारतीय शास्त्रों में इस विजय का उल्लेख मिलता है। मैसूर में, यह त्योहार खासकर चामुंडेश्वरी देवी से जुड़ा है, जिनकी पूजा कर्नाटक के राजाओं द्वारा की जाती थी।
मैसूर दशहरा, जिसे विजयादशमी भी कहा जाता है, का इतिहास प्राचीन समय से जुड़ा हुआ है और इसे कर्नाटक की सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। यह त्योहार बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है और हर साल बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
इस दिन मैसूर पैलेस की रौनक देखने लायक होती, पूरे महल को किसी दुल्हन की तरह सजाया जाता है। आधुनिक रंग-बिरगी लाइटों से महल की दीवारों, छत व आसपास की जगहों को सजाया जाता है। जानकारी के अनुसार दशहरे के खास अवसर पर पैलेस को जगमगाने के लिए 100,000 लाइटों का इस्तेमाल किया जाता है, जो शाम 7 बजे से लेकर रात 10 बजे तक निरंतर जलती हैं। अगर आप भी यहां के शाही दशहरे और महल की जगमगाहट को करीब से देखना चाहते हैं तो इस त्योहार का हिस्सा जरूर बनें।
मैसूर दशहरे के अवसर पर महल को सजाने, गायन-वादन कार्यक्रमों के अलावा एक विशेष शाही शोभायात्रा भी निकाली जाती है, जिसे देखने के लिए पर्यटकों का भारी जमावड़ा लगता है। ऐसा रॉयल अंदाज शायद ही कहीं देखने को मिले। यह शोभायात्रा दशहरे के अंतिम दिन यानी विजयदशमी के दिन आयोजित की जाती है, जिसे स्थानीय रूप से जंबू सवारी भी कहा जाता है। इस यात्रा का मुख्य आकर्षण माँ चामुंडी देवी की मूर्ति होती है, जो सजे-धजे हाथी पर रखे स्वर्ण मंडप(हौदा) पर विराजित की जाती है। गाजे बाजे के साथ यह शोभायात्रा निकाली जाती है।
कार्यक्रमों का आयोजन – इस भव्य त्योहार का एक मुख्य आकर्षण यहां लगने वाली प्रदर्शनी भी है, जो दशहरा प्रदर्शनी स्थल पर लगाई जाती है, जो मैसूर पैलेस के ठीक सामने है। माना जाता है कि इस प्रदर्शनी की शुरुआत मैसूर के महाराजा चामराजा वाडियार दशम ने 1880 में की थी। दशहरे के मुख्य हिस्से के रूप में यह खास प्रदर्शनी प्रतिवर्ष आयोजित की जाती है। यहां कई दुकाने भी लगाई जाती है, जहां से आप कपड़े, साज-सज्जा के सामान आदि खरीद सकते हैं। प्रदर्शनी के अलावा इस दौरान यहां गायन-वादन जैसे कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं।
हमारी सनातन परंपरा की ही यह विशेषता है कि यहां विविधता में एकता है, इसीलिए चाहे उत्तर, दक्षिण हों या पूरब पश्चिम, हमारे पर्व त्योहारों को मनाने का उद्देश्य तो एक ही होता है, परंतु उन्हें मनाने का ढंग इतना विविधता पूर्ण होता है कि हर जगह एक नया रंग देखने को मिलता है।